कुमाउनी रामलीला: पहाड़ की सांस्कृतिक धरोहर का अद्वितीय सौंदर्य

कुमाउनी रामलीला

दिल्ली में होगी उत्तराखंड की गायन प्रधान रामलीला

उत्तराखंड की प्रचलित “कुमाउनी रामलीला” की परंपरा अपने आप में अद्वितीय है, जिसमें संगीत, नाटक और लोक कला का अद्भुत संगम देखने को मिलता है. यह रामलीला उत्तराखंड की लोकसंस्कृति से गहराई से जुड़ी हुई है, जिसमें राग-रागिनियों के माध्यम से संवाद प्रस्तुत किए जाते हैं. विशेष रूप से भैरवी, मालकौंश, जयजयवंती, विहाग, पीलू और माण जैसे रागों में चौपाई, दोहा और सोरठा का गायन किया जाता है. दादरा और कहरवा तालों का तालमेल भी इस प्रस्तुति में प्रमुख भूमिका निभाता है, जो दर्शकों को एक अद्भुत लोकसंगीत का अनुभव देता है.

सांस्कृतिक स्रोत एवं प्रशिक्षण केन्द्र (संस्कृति मंत्रालय-भारत सरकार) सीनियर फैलोशिप अवॉर्डी व  “कुमाऊनी शैली” की रामलीला पर वृहद शोध कार्य कर चुके वरिष्ठ लेखक हेमंत कुमार जोशी जी ने ‘श्रीराम सेवक पर्वतीय कला मंच’ के इस प्रयास की सराहना   की व आयोजन के लिए अपनी शुभकामनाएं प्रेषित की. हेमंत जोशी ने बताया कि 1860 में अल्मोड़ा से प्रारंभ हुई कुमाऊनी शैली की रामलीला संपूर्ण भारत में जहां-जहां कुमाऊनी समाज के लोग बसे वहां-वहां पर उनके द्वारा मंचित की गई. यह रामलीला गेय शैली में होने के कारण अन्य रामलीलाओं से भिन्न व विशिष्ठ है.

 

कुमाऊनी शैली की इस रामलीला को विश्व का सबसे बड़ा ओपेरा कहा जा सकता है. मशालों से लालटेन पेट्रोमेक्स और फिर बिजली माइक और आज अत्याधुनिक साधनों में खेली जाने वाली यह रामलीला 164 वर्षों की यात्रा तय करती हुई आज भी उसी मनोयोग से खेली जाती है. इसमें अभिनय करने वाला कलाकार मात्र अभिनय ही नहीं करता बल्कि इन दो महीनों में उसे पूर्णता में जीता भी है. दर्शक भी उसी भाव से लीला से जुड़ते है तभी तो दर्शक प्रत्येक वर्ष उसी रामकथा को देखते सुनते और जानते हुए भी उसमें गहरा और गहरा उतरता जाता है. आधुनिक मंच पर इसे प्रस्तुत करने का श्रेय नाट्यसंगीतकर मोहन उप्रेती जी को जाता है वहीं एक ऐसा नाम जिसे बहुत कम लोग जानते है वह है जगत सिंह भंडारी जी का. जगत सिंह भंडारी जी ने इस कुमाऊनी शैली की रामलीला को 1968 में मलेशिया सिंगापुर व थाईलैंड के कई मंचो पर प्रदर्शित किया.

अल्मोड़ा के शिव चरण पांडे जी इस रामलीला को पहचान दिलाने में महत्पूर्ण भूमिका निभाई. इस रामलीला को आज जो प्रतिष्ठा मिली है उसमें उसकी शैलीगत विशेषता तो है ही साथ में उन कलाकारो का भी योगदान है जिन्हें कोई जानता नहीं है जिन्होंने इस रामलीला को अगले वर्ष में ले जाने का कार्य किया. उनके इस योगदान पर भी गंभीरता से चर्चा की जानी चहिए.

इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए दिल्ली में 26 और 27 अक्टूबर को श्री रामसेवक पर्वतीय कला मंच द्वारा राग आधारित ‘दो दिवसीय कुमाउनी रामलीला’ का आयोजन हो रहा है. यह आयोजन दिल्ली के प्रवासी उत्तराखंडियों के लिए विशेष रूप से यादगार होने जा रहा है, जिन्होंने वर्षों से पहाड़ी रामलीला का आनंद नहीं लिया.

आयोजन समिति से जुड़े राकेश जोशी कहते हैं, ”इस आयोजन के ज़रिए हमारी कोशिश ख़ासकर पहाड़ की उस प्रवासी पीढ़ी को रामलीला से जुड़ी उनकी पुरानी यादों में ले चलना है जिनके लिए अब पहाड़ में जाकर रामलीला देखना संभव नहीं है.”

रामलीला के इस आयोजन का निर्देशन कर रहे संगीतज्ञ संजय जोशी कहते हैं, ”हालॉंकि बीते कुछ समय से अलग—अलग मंचों पर पहाड़ी रामलीला के आयोजन में बग़ैर गायन के भी संवाद इस्तेमाल किए जाने लगे हैं. लेकिन हमारा मक़सद है कि हम पहाड़ के प्रवासियों को रामलीला का बिल्कुल पारंपरिक स्वाद दें, इसलिए हमारे सारे संवाद राग आधारित गायन के साथ ही हैं. यही इस आयोजन की ख़ासियत भी है.”

पहाड़ी रामलीलाओं में चौपाई, दोहा, सोरठा को प्रमुख तौर पर भैरवी, मालकौंश, जयजयवंती, विहाग, पीलू और माण रागों में गाया जाता है. आम तौर पर दादरा, कहरवा और दीपचंदी तालों के साथ ही पहाड़ी होली के ठेके (चांचर ताल) का भी इस्तेमाल होता है. हालॉंकि इस आयोजन का पहाड़ की प्रवासी बुजुर्ग पीढ़ी के लिए तो ख़ासा महत्व होने ही वाला है लेकिन नई पीढ़ी के लिए भी यह आयोजन एक अनोखा अनुभव बन रहा है. आयोजन से पहाड़ के प्रवासी युवा और बच्चे भी जुड़ रहे हैं.

समिति के अध्यक्ष राजेन्द्र जोशी बताते हैं, ”इस रामलीला के आयोजन में अधिकतर अभिनय कर रहे लोग पहली बार रामलीला के मंच पर उतरने वाले हैं. अधिकतर लोग युवा हैं और पर्वतीय संस्कृति से जुड़ने का उनका उत्साह देखने लायक है.”

भारत के पूर्व गृह मंत्री, मुरली मनोहर जोशी जी ने इस आयोजन को आशीर्वाद देते हुए कहा कि पहाड़ की रामलीला का अपना अलग सौंदर्य और विशेष आनंद है. उन्होंने कहा, “यह आयोजन पहाड़ और मैदान के संगम का प्रतीक है. पहाड़ की रामलीला में कोई आडंबर नहीं होता, यह स्वाभाविक और आंतरिक भावनाओं से ओत-प्रोत होती है. इसमें एक सहज रामभक्ति की अनुभूति होती है, जो दर्शकों को आत्मिक शांति और संतोष प्रदान करती है.”

उन्होंने आगे रामलीला के व्यापक प्रचार और प्रसार के लिए रामलीला प्रतियोगिता आयोजित करने का भी सुझाव दिया, जिससे इस परंपरा को नई पीढ़ी में जीवंत बनाए रखा जा सके और इसके सौंदर्य का प्रसार हो. आयोजन समिति के कार्यकारी अध्यक्ष महेश जोशी और सचिव चंद्रेश पंत ने बताया कि पारंपरिक तौर पर पहाड़ी रामलीला का आयोजन 10 दिनों का होता है लेकिन समय के अभाव में इसे 2 दिनों में समेटा गया है. वे कहते हैं, ”हमने स्क्रिप्ट पर काफी काम किया है ताकि सारे ही महत्वपूर्ण प्रसंगों का मंचन हो सके और दर्शक पारंपरिक अंदाज़ में पूरी रामकथा का आनंद ले सकें.”

 रामलीला का यह मंचन दिल्ली आईटीओ में स्थित प्यारे लाल ऑडिटोरियम में होगा. उपाध्यक्ष एल. आर. पंत और कोषाध्यक्ष नीरज लोहानी ने बताया कि आयोजन को लेकर सारी तैयारीयों का कार्य अत्यधिक उत्साह से चल रहा है. पर्वतीय रामलीला के इस आयोजन को संभव बनाने के लिए संजय जोशी (CA), पूरन तिवारी, हरीश तिवारी, निर्मल जोशी, कैलाश पांडे, योगेश ओली, यश अवस्थी, प्रकाश जोशी, भुवन जोशी, शेखर पंत, पंकज उप्रेती, नितिन जोशी,विक्की तिवारी, गिरजा जोशी, और चन्द्र शेखर पाण्डेय, श्री कृष्ण पंत, योगेश पंत समेत दिल्ली में पर्वतीय संस्कृति को लेकर सजग कई लोगों सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं.

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