डॉ. कीर्तिवल्लभ शक्टा रचित ग्वेल देवता महाकाव्य की समीक्षा
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
ग्वेल देवता की लोकगाथा को आधार बनाकर अब तक दुदबोली कुमाऊंनी भाषा के स्थानीय लेखकों के द्वारा अनेक कविताएं, लघुकाव्य, खंडकाव्य, चालीसा तथा महाकाव्य विधा में साहित्यिक रचनाएं लिखी गई हैं और निरंतर रूप से आज भी लिखी जा रही हैं. किन्तु इन सबके बारे में एक व्यवस्थित जानकारी का अभाव-सा है. अब तक गोरिल देवता के सम्बन्ध में जो रचनाएं मेरे संज्ञान में आई हैं, उनमें गोलू देवता पर रचित काव्यों में कविवर जुगल किशोर पेटशाली रचित ‘जय बाला गोरिया’ और कुमाऊंनी लोक संस्कृति के रंगकर्मी त्रिभुवन गिरी महाराज द्वारा रचित ‘गोरिल’ महाकाव्य लोकविश्रुत रचनाएं हैं. इनके अलावा केशव दत्त जोशी द्वारा रचित ‘ग्वल्ल देवता की जागर’, कृष्ण सिंह भाकुनी विरचित ‘श्री गोल्ज्यू काथ सौती राग’, मथुरा दत्त बेलवाल रचित ‘जै उत्तराखंड जै ग्वेल देवता’, मथुरा दत्त जोशी प्रभाकर का ‘ग्वल्लज्यू जागर’, ब्रजेन्द्र लाल शाह रचित ‘श्रीगोलू त्रिचालिसा’ और डा.कीर्ति वल्लभ शक्टा द्वारा कुमाऊंनी भाषा में रचित ‘न्यायमूर्त्ति गोरल’ महाकाव्य न्यायदेवता पर लिखी गईं अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाएं हैं.
उधर कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल के प्राक्तन प्रोफेसर एवं संस्कृत-विभाग के अध्यक्ष, स्वर्गीय डा. हरिनारायण दीक्षित जी ने भी सन् 2008 में महाकाव्य शैली के माध्यम से 27 सर्गों के बृहत् संस्कृत महाकाव्य ‘श्रीग्वल्लदेवचरितम्’ की रचना करके आधुनिक संस्कृत साहित्य में न्याय देवता ग्वेल के पराक्रमी और गौरवशाली देवचरित्र को विशेष रूप से महिमा मंडित किया है.
कुमाऊंनी साहित्य के सम्बन्ध में एक विकट समस्या यह भी रही है, कि इसका प्रकाशित साहित्य जन सामान्य और पाठकों को सर्वसुलभ नहीं हो पाता है. मैं स्वयं भी ग्वेल देवता सम्बन्धी साहित्यिक रचनाओं पर शोधकार्य कर रहा हूं. अनेक पुस्तकें बहुत प्रयास करने के बाद भी नहीं मिल पाईं. साहित्यिक रुचि रखने वाले सुधीजनों की भी यह एक महत्त्वपूर्ण जिज्ञासा हो सकती है कि अब तक जन-जन के आराध्य न्यायदेवता पर कितनी रचनाएं लिखी गई हैं? पर एक जीवन्त लोक संस्कृति से जुड़े इस देवचरित्र पर निरंतर रूप से जितना कुछ लिखा जा रहा है,किंतु उस सब की अधुनातन जानकारी शायद हम सबको नहीं है.
यहां यह भी बताना चाहुंगा कि प्रकाशित रचना मेरे पास नहीं है. किंतु कुछ समय पूर्व डॉ. शक्टा जी ने महाकाव्य के कुछ महत्त्वपूर्ण पृष्ठ मुझे व्हाट्सएप पर भेजे थे, उन्हीं के आधार पर यह लेख लिखा गया है.
डॉ. कीर्तिवल्लभ शक्टा रचित कुमाऊंनी महाकाव्य ‘न्यायमूर्ति गोरल’
आज मैं इस लेख के माध्यम से संस्कृत के विद्वान् डॉ. कीर्तिवल्लभ शक्टा रचित कुमाउँनी महाकाव्य ‘न्यायमूर्त्ति गोरल’ के विषय में कुछ साहित्यिक चर्चा करना चाहुंगा. राजकीय इंटर कालेज चम्पावत में संस्कृत शिक्षक एवं संस्कृत विद्वान् डॉ. कीर्ति वल्लभ शक्टा ने न्यायकारी देवता गोल्ज्यू पर कुमाऊंनी भाषा में ‘न्यायमूर्ति गोरल’ शीर्षक से महाकाव्य की रचना की है. इस महाकाव्य की रचना शास्त्रीय शैली और संस्कृत छंदों के आधार पर हुई है. शास्त्रीय महाकाव्य शैली में लिखा गया शायद यह दुदबोली कुमाऊंनी भाषा का पहला महाकाव्य है. इस महाकाव्य की प्रस्तावना लिखते हुए दुदबोली कुमाऊनी साहित्य के लब्धप्रतिष्ठ कवि और साहित्यकार मथुरादत्त मठपाल का कथन है कि-
“यद्यपि कुछ कुमाऊंनी रचनाकारों ने अपनी कुछ कृतियों को महाकाव्य बताया है,परन्तु मेरी दृष्टि में तो वे प्रबन्धकाव्य की कसौटी पर भी खरे नहीं उतरते हैं. मेरे विचार में तो महाकाव्य की कसौटी पर कसने पर डॉ. शक्टा की यह कृति ‘न्यायमूर्ति गोरल’ ही कुमाउँनी का प्रथम महाकाव्य होने की अधिकारी है.” (‘न्यायमूर्ति गोरल’ : प्रशस्ति के दो आखर,17,जुलाई,2015)
मठपाल जी एक समीक्षक के रूप में किसी कृति के बारे में जो कुछ लिखते हैं, वह उस कृति के अलावा उसके ऐतिहासिक परिदृश्य और उसकी सांस्कृतिक अस्मिता की जानकारी की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण और युक्तिसंगत होता है. इस आलोच्य महाकाव्य की विषयवस्तु, उसके पौराणिक चरित्र और प्रयुक्त होने वाले छंदों का भी बहुत बारीकी से आकलन करते हुए मठपाल जी ने इस महाकाव्य के कुमाऊंनी भाषासौष्ठव के बारे में भी एक महत्त्वपूर्ण बात कही है कि-
“कुमाऊंनी बोली के प्रायः एक दर्जन विभेदों में पूर्वी क्षेत्र में बोली जाने वाली उपबोलियों में बड़ी मधुरता है.इस काव्य में काली कुमाऊं (चंपावत लोहाघाट क्षेत्र की) ‘कुमैयां’ या ‘कुमांई’ बोली का प्रयोग इसके भाषा-सौष्ठव को बहुत बढ़ा देता है.यही क्षेत्र इस महाकाव्य के नायक और उसकी गाथा के गायक दोनों का ही मूल अभिजन है. छंद को ध्यान में रखकर कवि ने संस्कृत के अनेक शब्दों का सफल प्रयोग किया है.”
डॉ. शक्टा की शास्त्रीय महाकाव्य शैली में रचित यह कृति अठारह सर्गों में विभक्त है तथा इसमें एक हजार के लगभग पद्य हैं. इस महाकाव्य का मुख्य छंद ‘उपजाति’ है.इसके अतिरिक्त महाकाव्य में स्थान स्थान पर इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, मंदाक्रांता,वसन्त तिलका, मालिनी, शालिनी, वंशस्थ आदि संस्कृत के विभिन्न छंदों का प्रयोग किया गया है.
इस महाकाव्य की ऐतिहासिक और राजनैतिक पृष्ठभूमि का निरूपण करते हुए लेखक डॉ. शक्टा कहते हैं कि “प्राचीन काल में मेरे पूर्वजों का बहुत अधिक सम्मान यहां पर था. उस समय विदेशी आक्रांताओं के डर से महाराष्ट्र, राजस्थान,आदि स्थानों से बहुत से लोग यहां आए और यहीं बस गए.प्रायः जो लोग जिस स्थान या गांव में रहने लगे, वही जाति उनकी बन गई.उस समय के ब्राह्मण वर्ग में कुलेठा,पुनेठा,लटोला,शक्टा और उप्रेती प्रमुख थे, जो चौथानी कहलाए, यद्यपि उसके बाद भी बहुत से ब्राह्मणों को यह उपाधि मिली.जैसे सिमल्टिया पांडेय, झिझाड़ व सेलाखोला के जोशी, देवल के पांडेय, सौंज के विष्ट आदि. समाज में आज भी इनका वर्चस्व श्रेष्ठ है.हमारे पूर्वज शकटी नामक गांव में रहने लगे. इसलिए शक्टा कहलाए.”
जैसा कि इस पुस्तक के प्राक्कथन में श्री मथुरादत्त मठपाल जी ने कहा है कि प्रस्तुत गोरिल काव्य शास्त्रीय दृष्टि से महाकाव्य शैली का काव्य है,जिसके लेखन की निरंतर परम्परा संस्कृत साहित्य में चली आ रही है.
डॉ. शक्टा संस्कृत के विद्वान् हैं इसलिए उन्होंने संस्कृत काव्यशास्त्र के महाकाव्य लक्षणों के अनुसार ही इस कुमाऊंनी रचना को महाकाव्य की शैली में निबद्ध किया है.
दंडी के काव्यादर्श के अनुसार महाकाव्य के अध्यायों का सर्गों में विभाजन होता है और आशीर्वाद,नमस्कार आदि मंगलाचरण से उसका प्रारम्भ किया जाता है-
“सर्गबन्धो महाकाव्यं उच्यते तस्य लक्षणम्.
आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखम्..”
-काव्यादर्श,1.14
इसी काव्यशास्त्रीय महाकाव्य लक्षणों का अनुसरण करते हुए लेखक ने अपने गोरल महाकाव्य का प्रारम्भ गणेश की स्तुतिरूप मंगलाचरण से किया है-
“गणेश नामै कि जिनूँ कि कीर्ति
अहो छ फैली जग में विशेष.
उनूंक् ध्यानै क् मि आज साथै,
कुमाऊँनी में रचना रचूँ..”
-न्यायमूर्ति गोरल,1.1
अर्थात् जिनका यश गणेश नाम से विशेष रूप से संसार में फैला हुआ है मैं आज उनके ध्यान के साथ ही कुमाऊँनी में रचना कर रहा हूँ.
महाकाव्य की यह अनिवार्य विशेषता भी होती है कि उसका कथानक इतिहास की कथा या अन्य कोई सज्जन महापुरुष के जीवन चरित पर आधारित होता है और उस महाकाव्य का नायक मानव कल्याण हेतु पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष) का उपदेष्टा भी होता है-
“इतिहासकथोद्भूतं इतरद्वा सदाश्रयम्
चतुर्वर्गफलायत्तं चतुरोदात्तनायकम्..”
-काव्यादर्श,1.15
इस दृष्टि से भी उत्तराखंड के इतिहास में न्यायदेवता का चरित्र इतिहासनिष्ठ, और पराक्रमी देवचरित्र होने के अतिरिक्त न्यायकारी राजा के रूप में परोपकारी और जन-जन के आराध्य ईस्ट देव भी है.
शक्टा जी ने आलोच्य महाकाव्य के तीसरे सर्ग में ‘शालिनी’ छंद में न्यायदेवता गोरिल के वंशवृक्ष का परिचय देते हुए कहा है कि समूचे कुमाऊं में धूमाकोट की राजधानी प्रसिद्ध थी और उसके राजा हालराय हुए. उनके पिता का नाम झालराय तथा बूबू (दादा) का नाम तल्लराय था-
“पैले धूमाकोट नामै कि प्यारी,
राजा की यो राजधानी विशेष.
जै की श्री हो हालराये क् नाम,
फैली वी की कीर्ति सार् रै कुमूँ मैं..”
“बाबा जैका झालरायै छि नाम,
बूबू छया हो धर्मकारी प्रवीण.
संज्ञा जै की तल्लरायै कि भै हो,
नाती वी को वंशधारी प्रसिद्ध..” -न्यायमूर्ति गोरल, 3.1-2
राजा हालराय की सात रानियां थी,किन्तु उनकी कोख खाली ही थी.वे अपने इस दुर्भाग्य को सोचते हुए चिंता में पड़े रहते थे-
“रानी संख्या सात है गै छ मेरी,
सब्बौ की हो कोख खाल्ली.
क्या होलो यो भाग्य मेरो अजीब,
सोचो में हो डूबि ग्यो हालराय..”
-न्यायमूर्ति गोरल, 3.10
हालराय को सर्वाधिक चिंता यह सताने लगी थी कि मृत्यु के उपरांत उनका क्रियाकर्म कौन करेगा? पुत्र के अभाव में पिण्डदान कैसे होगा?
“को यां देलो पिण्ड मी कै मरी बे,
को हो लो कर्ता क्रिया-कर्म को यो.
रानी मेरी एक नैं सात छीं हो.
कैसो मेरो कर्म यो भौ बिगाडू..”
-न्यायमूर्ति गोरल, 3.12
लेखक ने इस काव्य में राजा हालराय के निस्संतान होने की समस्या का धर्मशास्त्र की दृष्टि से भी विशेष आकलन किया है. उदाहरण के लिए कवि का कथन है कि अच्छी सन्तान ही पर लोक का तारण करती है और उसी से ही कुल की पहचान भी स्थापित होती है-
“हमूँ खनै लेत इजा तु कूनियाँ,
जरूरी चैंछी सुख भोग दायिनी.
सुसन्तती हो परलोक तारिणी,
कुलै कि साच्ची पहिचान कारिणी..”
-न्यायमूर्ति गोरल, 4.3
उपर्युक्त कुछ उद्धरणों से स्पष्ट है कि डा. कीर्तिवल्लभ शक्टा रचित यह ‘न्यायमूर्ति गोरल’ महाकाव्य एक भावना प्रधान और विचार प्रधान महाकाव्य है.इसमें दुदबोली ठेठ कुमाऊंनी न होकर अनेक स्थानों पर संस्कृत एवं हिंदी शब्दों से मिश्रित स्वरूप में भी अभिव्यक्त हुई है.जैसे कि ऊपर कुमाऊंनी के पद्यों में अनेक शब्द जैसे- श्री, कीर्ति, प्रवीण, क्रिया-कर्म, सुख भोग दायिनी, परलोक तारिणी आदि संस्कृत और हिंदी मूल के शब्द हैं.कहीं कहीं लेखक ने हिंदी संस्कृत के अलावा उर्दू का लोकप्रचलित ‘सलाम’ शब्द के द्वारा भी गणपति गणेश के चरणों में अपना प्रणाम निवेदन किया है-
“जिनों कि पूजा क् बिना न काँई,
कभै लगै देव पुजी नि जाना.
जिनों कि नामै महिमा अपार,
उनूँ क् दुय्यौ खुट में सलाम..”
किंतु दुदबोली में रचित इस महाकाव्य में हिंदी, संस्कृत,उर्दू आदि शब्दों का मणि- कांचन संयोग देश की सामासिक संस्कृति की तरह परस्पर घुल मिल से गए हैं.
महाकाव्य के शास्त्रीय लक्षणों में नगर वर्णन,ऋतुवर्णन, विवाह,कुमारोत्पत्ति, राजकीय मन्त्रणा, राज्याभिषेक,युद्ध प्रयाण आदि विभिन्न प्रकार के वर्णनों से महाकाव्य को एक व्यापक स्वरूप प्रदान किया जाता है,ताकि वह प्राकृतिक,सामाजिक और राजनैतिक दृष्टि से देश या राष्ट्र के साथ संवाद स्थापित कर सके-
“नगरार्णवशैलार्तुचन्द्रार्कोदयवर्णनैः.
उद्यानसलिलकृईडामधुपानरतोत्सवैः..
विप्रलम्भैर्विवाहैश्च कुमारोदयवर्णनैः.
मन्त्रदूतप्रयाणाजिनायकाभ्युदयैरपि..
अलंकृतं असंक्षिप्तं रसभावनिरन्तरम्.
सर्गैरनतिविस्तीर्णैः श्रव्यवृत्तैः सुसंधिभिः..”
-काव्यादर्श,1.16-18
समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी ‘न्यायमूर्ति गोरल’ महाकाव्य शास्त्रीय महाकाव्य के लक्षणों की कसौटी पर खरा ही उतरता है. लेखक ने गोरिल देवता के राज्याभिषेक का सुंदर वर्णन करते हुए चम्पावत नगरी की तुलना इंद्र की नगरी अमरावती से की है- “कि यो छ अमरावति इंद्र दैवै”.
परंपरागत रूप से आश्विन नवरात्र के दशमी के दिन ग्वेल देवता की वार्षिक पूजा की जाती है. द्वाराहाट स्थित ग्राम जोयूं ,जो मेरी पैतृक भूमि भी है, वहां प्रतिवर्ष आश्विन नवरात्र की दशमी के न्यायदेवता की सामूहिक पूजा करते हैं और शोभायात्रा भी निकाली जाती है. वह इसीलिए क्योंकि इस दिन चम्पावत के राजा नागेश्वर ने अपने हाथों से राजकुमार गोरिल का राज्याभिषेक किया था-
“राज्याभिषेक तुमरो यु दशैं क पर्व,
अश्विन्य शुक्ल नवरात्रि पछेट होलो.
खूबै विधान सित हो करनूँ मि वीस,
लै मिलौ अमरता यु छ भावना हो..”
-न्यायमूर्ति गोरल,17.8
दरअसल, गोरिल देवता उत्तराखंड के एक ऐसे न्यायकारी देवता रहे हैं जिन्होंने सहस्राब्दी पूर्व उत्तराखंड में सामंतवादी राजतन्त्र के विरुद्ध सत्य और न्याय की मुहिम चलाई और लोक अदालतों के माध्यम से घर घर जाकर आम आदमी के लिए इंसाफ के दरवाजे खोले थे-
“गोरिया महाराजन के राजा नाम लिनीं तुमारौ.
दुदाधारी कृष्ण अवतारी नाम छौ तुमारौ॥
दयावान तपवान नंगा कौ सिर ढक्छा झुका के.
पेट भरछा,निधनी कैं धन, पुत्र दिछा अपुत्री कैं॥
इंसापी देव छा दुदी में को बाल छाटछा.
तब महाराजन के राजा नाम लिनीं तुमारौ॥”
-जै उत्तराखंड जै ग्वेल देवता,पृ.22
यही कारण है कि ग्वेल देवता के प्रति उत्तराखंडवासियों की अगाध श्रद्धा है.मान्यता है कि ग्वेलज्यू का श्रद्धापूर्वक स्मरण मात्र करने से लोगों के कष्ट दूर हो जाते हैं और उनकी मनोकामनाएं भी पूरी हो जाती हैं.अन्याय करने वाला चाहे कितना ही ताकतवर और बलशाली हो ग्वेल देवता पीड़ित व्यक्ति की मदद अवश्य करते हैं. यही कारण है कि दीन दुःखियों को न्याय दिलाने के लिए वे आज भी कुमाऊं अंचल के घर घर में न्याय के देवता के रूप में पूजे जाते हैं, क्योंकि उनकी यह न्याय की गद्दी सर्वप्रथम चम्पावत में प्रतिष्ठित हुई थी. डॉ.शक्टा का यह पद्य इसी ऐतिहासिक तथ्य को रेखांकित करता है-
“सभा सजी गै दरबार में यां,
सबै सुमंत्री छन साथ में हो.
राजा कुमाऊँ बनि गौछ गोलू,
न्यायै कि गद्दी सजि गै निराली..”
-न्यायमूर्ति गोरल,18.1
मैं डा.कीर्तिवल्लभ शक्टा जी को उनकी इस भाव और रस से परिपूर्ण और सामाजिक सन्देश से संवलित इस रचना ‘न्यायमूर्ति गोरल’ महाकाव्य के लिए अपनी हार्दिक शुभकामनाएं देता हूं.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)