- आशिता डोभाल
कोठार यानी वह गोदाम जिसमें अनाज रखा जाता है, अन्न का भंडारण का वह साधन जिसमें धान, गेंहू, कोदू, झंगोरा, चौलाई या दालें सालों तक रखी जा सकती है. कोठार में रखे हुए इन धनधान्य के खराब होने की संभावना न के बराबर होती है. कोठार को पहाड़ी कोल्ड स्टोर के नाम से जाना जाता है, जिसमें धान, गेंहू, कोदू, झंगोरा, चौलाई या दालें सुरक्षित रखी जाती है.
कोठार अथवा कुठार जो कि मुख्यतः देवदार की लकड़ी के बने होते हैं और ये सिर्फ भंडार ही नहीं हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग भी रहे हैं, इस भंडार में हमारे बुजुर्गों ने कई पीढ़ियों तक अपने अनाजों और जरूरत के सारे साजो-सामान रखे हैं. ये दिखने में जितने आकर्षक होते हैं उतने ही फायदेमंद भी. पहाड़ों में पुराने समय में लोग सिर्फ खेती किसानी को ही बढ़ावा देते थे और उसी खेती किसानी के जरिए उनकी आमदनी भी होती थी वस्तु विनिमय का जमाना भी था तो लोग बाज़ार और नौकरी को ज्यादा महत्व नहीं देते थे. पहले के समय लोग खेती किसानी से अन्न जैसे धान, गेहूं, मंडवा (कोदा), झंगोरा, कौणी, चिणा, मक्का, जौ या दालें जैसे कि राजमा, उड़द, तोर, रंयास, गहथ, लोबिया, नवरंगी या किसी भी प्रकार की फसलें उगाते थे सबको रखने की एकमात्र जगह थी कोठार, जो कि मुख्य घर से अलग ही होता था.
जो दूर से दिखने में एक अलग मकान जैसा ही होता है बाहर से दिखने पर लगेगा कि छोटा-सा है पर इसके अंदर जाकर ही पता चलता है कि भंडारण की जितनी क्षमता इसमें होती है शायद ही किसी स्टोर रूम की होती होगी. हर अन्न के लिए अलग अलग खाने (सांचे) बने होते थे उसका माप दूण या या बोरी के हिसाब से होता था और जब बात इसके बाहरी सजावट की की जाय तो रवांई-जौनपुर में स्थापत्य कला के ये बेजोड़ नमूने हैं इसके आगे के खंभों पर बारीकी से नक्काशी दार बेल बूटे की आकृतियां बनी हुई होती है जो इसकी सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं. दरवाजा छोटा-सा होता है. ताला खोलने के लिए एक लंबी छड़नुमा आकर की चाबी होती है और इसका ताला खोलना हर किसी की बसकी बात नहीं होती है ताला बड़ी तरकीब के साथ खोलना होता है. कोठार/कुठार के दरवाजे से मुख्य घर से एक सांगल/चेन बंधी रहती थी और उसमे बीच-बीच में घंटियां भी बंधी रहती थी ताकि यदि कोई चोर चोरी करने के इरादे से कुठार में घुसने की कोशिश भी करेगा तो घर के लोगों को पता चल जाता था कि चोरी होने वाली है. सुरक्षा की ये तरकीब भी अनोखी ही थी यानी कि आज के सीसीटीवी कैमरे चोर को पकड़ने में उतने मददगार साबित नहीं हो पा रहे हैं जितनी हमारे बुजुर्गों की तरकीब कामयाब रही है. भंडारण का जो तरीका हमारे बुजुर्गों ने ईजाद किया है वो आज के बड़े से बड़े इंजीनियर भी नहीं कर पाए हैं, लकड़ी के इस भंडार में किसी भी अन्न में कभी न तो कीड़े पड़ने की संभावना रही है न कोई फफूंद, इस कुठार में हमारी लोक संस्कृति भी दिखती है, जब कभी भी किसी पहाड़ी गाने का फिल्मांकन किया जाता है तो ये कुठार उन गानों में जरूर देखने को मिल जाते हैं.
पहाड़ों में लोग पुराने समय से ही खेती किसानी से अपना गुजर बसर करते थे और खेती बाड़ी से ही वे सम्पन्न भी थे लोगों में प्रतिस्पर्धा नाम की चीज दूर दूर तक नहीं थी अगर प्रतिस्पर्धा थी तो वो खेती बाड़ी और पशुपालन को लेकर थी जिस परिवार की जितनी ज्यादा जमीन उसका उतना बड़ा रुतबा और ओहदा होता था जिस परिवार के पास
कुठार होता था उस घर को सर्वगुण सम्पन्न माना जाता था लोग नाते रिश्ते भी जमीन जायदाद और अन्न धन को देखकर करते थे समय बदला और समय के साथ साथ लोगो की सोच और काम करने के तरीको में बदलाव हुए और साथ ही रहन सहन में भी बदलाव हुए लोगों ने कुठार की जगह घर बनाते समय एक स्टोर रूम बनाना शुरू कर दिया क्योंकि खेती में अब कोदा, झंगोरा, कोणी, धान, गेंहू की जगह टमाटर,बीन्स, शिमला मिर्च, राई, मुली, गोभी, मटर, आलू आदि नगदी फसलों ने ले ली है तो हमारे लिए कुठार होना जरूरी नहीं है.
आज कुठार अपने अस्तित्व ही नहीं अपने नाम और संरक्षण की बाट जोह रहा है यदि इसका संरक्षण होम स्टे और पर्यटन के तहत किया जाय तो संभवतः इसका बचाव हो सकता है.
(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)