पहाड़ों में स्वास्थ्य सुविधाओं, अस्पतालों व डॉक्टरों की अनुपलब्धता के कारण बहुत—सी गर्भवती महिलाएं असमय मृत्यु का शिकार हो जाती हैं. ऐसी ही पीड़ा को उजागर करती है यह कहानी
- कमलेश चंद्र जोशी
रुकमा आज बहुत खुश थी कि उसकी जिंदगी में एक नए मेहमान का आगमन होने वाला था और अब वह दो से तीन होने वाले थे. गांव से लगभग 100 किलोमीटर दूर शहर में स्थित अस्पताल से रिपोर्ट लेने के बाद रुकमा अपनी सास के साथ वापस घर की ओर चल दी. रुकमा मैदानी क्षेत्र में पली बड़ी थी इसलिए पहाड़ों की घुमावदार सड़कों की उसे आदत नहीं थी जिस वजह से वह जब भी पहाड़ों में बस या कार से सफर करती तो उल्टियां करते परेशान हो जाती. लेकिन आज उसका ध्यान बस के सफर पर नहीं बल्कि अपनी जिंदगी में आने वाले नए मेहमान पर केंद्रित था. वह उसको लेकर न जाने कितने ही सपने बुन रही थी. इस दौरान उसे पता ही नहीं चला कि कब शहर से गांव तक की इतनी लंबी दूरी तय हो गई. घर पहुँचते ही वह सबसे पहले कश्मीर में ड्यूटी दे रहे अपने फौजी पति को फोन लगाकर खुशखबरी देना चाहती थी लेकिन पहाड़ों में कम्बख्त मोबाइल का नेटवर्क बार-बार आंख मिचौली कर रहा था. निराश होकर रुकमा गुस्से भरे लहजे में बोली- “आग लागौ तै मोबाइल ला” (आग लगे इस मोबाइल को)
इन दिनों रुकमा और उसकी सास को घर तक सड़क न होने की वजह से उठाई जाने वाली मुसीबतों का गहराई से एहसास होने लगा था. थोड़ा सा चलने के बाद रुकमा को थका हारा देख उसकी सास सरकार को कोसती हुई कहने लगी- “न सड़क छ, न अस्पताल में डॉक्टर छन और न एक ढंगों स्कूल छ. तब सरकार बहादुर कूनि भै कि पहाड़ों में पलायन हुन्नो!”
और उसने मोबाइल अपने बिस्तर में लगभग पटकते हुए फेंक दिया. रुकमा की सास उसकी अधीरता को देखते हुए बोली- “गुस्स ठीक नाहान त्वेहेन और भौहन ब्वारी” (गुस्सा ठीक नहीं है तेरे और बच्चे के लिए बहू)
दिन भर की बैचेनी के बाद आखिरकार शाम को उसके मोबाइल ने सिग्नल पकड़ना शुरू किया और रुकमा ने तुरंत अपने पति को कॉल लगाकर उसे नए मेहमान के आने की खुशखबरी दे दी. खबर सुनते ही उसका पति खुशी के मारे नाचने लगा और जल्दी ही छुट्टी लेकर घर आने की बात कहते हुए रुकमा से बोला-
“अब तू खुद का अच्छे से ख्याल रखना. बच्चे की सेहत तुझसे जुड़ी है. ऐसा कोई भी भारी काम मत करना जो तेरी सेहत पर असर डाले. खूब खाना खाना और घर और खेत का सारा काम ईजा-बाज्यू पर छोड़ देना. बाकी सब मैं आकर संभाल लूंगा.”
वैसे तो सब ठीक था लेकिन गांव में अच्छा अस्पताल न होने के कारण रुकमा को रूटीन चेकअप के लिए भी हर बार दूर शहर के अस्पताल जाना पड़ता था. ऊपर से घर तक सड़क भी नहीं थी जिस वजह से सड़क तक पहुँचने के लिए 10-12 किलोमीटर का पैदल सफर तय करना पड़ता था. इन दिनों रुकमा और उसकी सास को घर तक सड़क न होने की वजह से उठाई जाने वाली मुसीबतों का गहराई से एहसास होने लगा था. थोड़ा सा चलने के बाद रुकमा को थका हारा देख उसकी सास सरकार को कोसती हुई कहने लगी- “न सड़क छ, न अस्पताल में डॉक्टर छन और न एक ढंगों स्कूल छ. तब सरकार बहादुर कूनि भै कि पहाड़ों में पलायन हुन्नो!” (न सड़क है, न अस्पताल में डॉक्टर हैं और न ही एक ढंग का स्कूल है. तब सरकार बहादुर कहती है कि पहाड़ों से पलायन हो रहा है!)
रुकमा की तड़प को देखकर उसकी सास की आंखें भर आई और उसे उसकी हालत पर तरस आने लगा. वह बोली-मैंने और तेरे ससुर जी ने तो इन पहाड़ के खेतों को अपने खून पसीने से सींचा ठैरा बाबू और हमें तो तराई में अच्छा भी नहीं लगने वाला हुआ. जिंदगी के कुछ ही साल तो बचे हैं, इन पहाड़ों में ही कट जाएंगे. लेकिन तेरे और आने वाले बच्चे के लिए सुविधाओं रहित ये पहाड़ ठीक नहीं हुए इसलिए तुम लोग शहर में ही घर बनाना.
अपनी सास का समर्थन करती हुई रुकमा बोली- हां ईजा अब ऐसी विषम परिस्थितियों में रहने से तो बेहतर है कि पलायित होकर शहरों की तरफ ही चले जाएं. कम से कम वहां सड़क, अस्पताल और स्कूल की सुविधाएं तो हैं. ये पहाड़ बस दूर से ही लोगों को रिझाते हैं लेकिन इन पहाड़ों में जिंदगी जीना किसी पहाड़ से कम है क्या! एक बार ये बच्चा इस दुनिया में आ जाए तो उसके बाद हम भी शहर में ही बस जाएंगे. जैसे बाकी लोग आते हैं पूजा-पाठ के लिए पहाड़ों में, हम भी साल में 2-3 बार आ जाया करेंगे.
रुकमा की तड़प को देखकर उसकी सास की आंखें भर आई और उसे उसकी हालत पर तरस आने लगा. वह बोली-मैंने और तेरे ससुर जी ने तो इन पहाड़ के खेतों को अपने खून पसीने से सींचा ठैरा बाबू और हमें तो तराई में अच्छा भी नहीं लगने वाला हुआ. जिंदगी के कुछ ही साल तो बचे हैं, इन पहाड़ों में ही कट जाएंगे. लेकिन तेरे और आने वाले बच्चे के लिए सुविधाओं रहित ये पहाड़ ठीक नहीं हुए इसलिए तुम लोग शहर में ही घर बनाना. जाड़ों के दिनों में हम बुढ्ढा-बुढ़िया नीचे आ जाया करेंगे और गर्मियों की छुट्टियों में तुम लोग ऊपर आ जाया करना.
रुकमा इस बात से खुश थी कि उसकी सास आने वाली पीढ़ी के लिए पहाड़ों में होने वाली असुविधाओं को समझती थी और उनसे अच्छी तरह वाकिफ थी. रुकमा खुद पहाड़ में शादी करने के लिए इसलिए राजी हुई थी क्योंकि उसे पहाड़ों का ठंडा मौसम बहुत लुभाता था लेकिन उसे पहाड़ों की धरातलीय सच्चाई शादी के बाद ही पता चली. वह पहाड़ों की खस्ता हालत देखकर सिस्टम को कोसने से अधिक कर भी क्या सकती थी.
ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों को पार करते हुए रुकमा और उसकी सास जैसे-तैसे नीचे सड़क तक पहुँचे और कुछ घंटों के इंतजार के बाद आई बस में बैठकर शहर की ओर चल दिये. अस्पताल में चैकअप के बाद डॉक्टर ने डिलीवरी की तारीख बता दी थी और रुकमा को हिदायत भी दी कि अगर हो सके तो उन दिनों में शहर में ही किसी रिश्तेदार के यहां रहने का बंदोबस्त करवा ले. इतनी दूर पहाड़ से हर बार शहर के अस्पताल आने-जाने का जोखिम ठीक नहीं है. रुकमा को डॉक्टर की बात ठीक लगी और इस बारे में सोचेंगे कहकर वह अपनी सास के साथ वापस घर आ गई.
पति के आने की खुशखबरी के बीच वह उसका रास्ता ताकने लगी थी. आखिरकार उसकी डिलीवरी से दस दिन पहले उसका पति घर आ ही गया. घर में खुशी का माहौल था. रुकमा को पूरा दिन आराम करने की सलाह देता उसका पति उसकी खूब सेवा टहल करता और घर के बाकी कामों में ईजा-बाज्यू का हाथ बँटाता.
इसी बीच उसके पति का कॉल आया और उसने छुट्टी पास होने की खुशखबरी रुकमा को दी. छुट्टी मिलने की खबर ने रुकमा की हिम्मत बढ़ा दी थी. उसके चेहरे पर चिंता की जो लकीरें उभर आई थी वह अब गायब होने लगी थी. पति के आने की खुशखबरी के बीच वह उसका रास्ता ताकने लगी थी. आखिरकार उसकी डिलीवरी से दस दिन पहले उसका पति घर आ ही गया. घर में खुशी का माहौल था. रुकमा को पूरा दिन आराम करने की सलाह देता उसका पति उसकी खूब सेवा टहल करता और घर के बाकी कामों में ईजा-बाज्यू का हाथ बँटाता. डिलीवरी से एक हफ्ता पहले रुकमा के पति ने उससे कहा कि अगर वो चाहे तो डिलीवरी तक उसके साथ शहर में ही किसी रिश्तेदार के यहां रह सकती है. लेकिन रुकमा ने यह कह कर मना कर दिया कि डिलीवरी से एक-दो दिन पहले सोचेंगे और वैसे भी अब आप आ ही गए हो तो कोई चिंता की बात नहीं है. सब कुछ अच्छे से हो जाएगा. रुकमा की हिम्मत देखकर उसके पति ने भी तुरंत शहर जाने की जबरदस्ती नहीं की.
रुकमा असहनीय दर्द से गुजर रही थी और उसे तुरंत अस्पताल ले जाना ही एकमात्र उपाय था. इस मूसलाधार बारीश में घर से 10-12 किलोमीटर पैदल चलकर सड़क तक आना ही सबसे कठिन चुनौती थी. पड़ोसियों कि मदद से जैसे-तैसे बारिश में भीगते हुए रुकमा को कई घंटों की मेहनत के बाद नीचे सड़क तक लाया जा सका.
डिलीवरी की तारीख से तीन दिन पहले ही आधी रात को रुकमा को जबरदस्त दर्द उठा. उस रात मूसलाधार बारिश हो रही थी. रुकमा के पति ने गांव के प्राथमिक अस्पताल में कॉल लगाने की कोशिश की लेकिन हर बार की तरह एक बार फिर मोबाइल नेटवर्क ने धोखा दे दिया. बाघ और गुलदार के डर से रात के अंधेरे में वैसे ही घर से निकलना महफूज नहीं था फिर आज तो बादल ऐसे बरस रहे थे मानो फट पड़े हों. रुकमा असहनीय दर्द से गुजर रही थी और उसे तुरंत अस्पताल ले जाना ही एकमात्र उपाय था. इस मूसलाधार बारीश में घर से 10-12 किलोमीटर पैदल चलकर सड़क तक आना ही सबसे कठिन चुनौती थी. पड़ोसियों कि मदद से जैसे-तैसे बारिश में भीगते हुए रुकमा को कई घंटों की मेहनत के बाद नीचे सड़क तक लाया जा सका. रुकमा अब हिम्मत हारने लगी थी. उसे गांव के प्राथमिक अस्पताल ले जाया गया जहां डॉक्टर न होने के कारण कंपाउंडर ने रुकमा को शहर के अस्पताल ले जाने को कहा.
शहर का अस्पताल 100 किलोमीटर दूर था ऊपर से इस मूसलाधार बारिश में पहाड़ की घुमावदार सड़कों में गाड़ी तेज चला पाना मुश्किल होता जा रहा था. रुकमा अब बेहोश होने लगी थी. उसका पति उसे हिम्मत बंधाता हुआ जागते रहने को बोल रहा था. रुकमा का दर्द अपनी पराकाष्ठा को पार कर चुका था और वह लगभग बेहोश हो चुकी थी. कई घंटों के सफर के बाद रुकमा अस्पताल की लॉबी में स्ट्रेचर पर पड़ी हुई थी. उसके शरीर ने हरकत करना बंद कर दिया था. डॉक्टर के आने से ठीक पहले उसने जोर की एक सॉंस ली थी. रुकमा को ऑपरेशन थियेटर ले ज़ाया गया. डॉक्टर ने आकर उसकी जॉंच पड़ताल की और कुछ ही मिनट में बाहर आकर उसने रुकमा के पति के कंधे पर हाथ रखा और कहा- “आपने इन्हें लाने में देर कर दी. शायद कुछ घंटे पहले ले आते तो हम मॉं और बच्चे को बचा सकते थे.”
यह सुनते ही रुकमा के पति का शरीर सिहर उठा और उसे गहरा सदमा लगा. वह अंदर से इतना टूट गया कि उसके ऑंसू तक सूख गए. वह खुद को कोसता हुआ सोच रहा था अगर एक हफ्ते पहले रुकमा को लेकर शहर आ गया होता तो आज वह उसके बच्चे के साथ उसकी ऑंखों के सामने होती. रुकमा के पार्थिव शरीर को वापस ले जाते हुए 100 किलोमीटर का वह लंबा रास्ता, गांव का डॉक्टरविहीन अस्पताल और 10-12 किलोमीटर का घर तक का पैदल सफर उसे काटने को दौड़ रहा था. वह बार-बार खुद को तो कोस ही रहा था लेकिन यह भी जानता था कि यह रुकमा और उसके बच्चे की मौत नहीं बल्कि सिस्टम द्वारा की गई हत्या है.
(लेखक एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय में शोधार्थी है)