मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—49
- प्रकाश उप्रेती
आस्था, विश्वास का केंद्र बिंदु है. पहाड़ के लोगों की आस्था कई तरह के विश्वासों पर टिकी रहती है. ये विश्वास जीवन में नमक की तरह घुले होते हैं. ऐसा ही “जागर” को लेकर भी है.
“जागर” आस्था के साथ-साथ सांस्कृतिक धरोहर भी है. ‘हुडुक’ सिर्फ देवता अवतार करने का वाद्ययंत्र नहीं है बल्कि पहाड़ की सांस्कृतिक पहचान का अटूट अंग है. आज इसी ‘जागेरी’, ‘हुडुक’ के साथ मैं, और ‘बुबू’ (दादा).जागरी
बुबू जागरी लगाते थे और मैं उनके सानिध्य में सीख रहा था. ईजा को मेरा जागरी लगाना पसंद नहीं था. तब ‘जगरी’ (जागेरी लगाने वाला) को लेकर समाज में एक सम्मान का भाव तो था लेकिन दूसरों की हाय, पाप, और गाली खाने की गुंजाइश भी हमेशा रहती थी. ईजा को लगता था कि बेटे का भविष्य ‘जगरी’ बन जाने से तबाह हो जाएगा.
उनको मेरा शहर में पढ़ना या बर्तन धोना मंजूर था लेकिन जगरी बनना नहीं. कई बार कहती भी थीं- “अब पेलिकोक जस जमान जे के छु, मैसुक ग्याई खणे को है यो” ( अब पहले जैसा ज़माना नहीं रहा, लोगों की गाली खाने वाला काम है ये). उस समय के हालात के हिसाब से ईजा भी गलत नहीं कह रही थी लेकिन बुबू ने मेरे लिए कुछ और सोचा था.बौज्यू
बुबू, ईजा-बौज्यू की परवाह किए बिना मुझे अपना उत्तराधिकारी बनाने की सोच चुके थे. ‘थकुल’ (थाली) बजाने से लेकर “देवता के बोल बिरत”और ‘देवता नचाने’ की मेरी ट्रेंनिग
शुरू हो चुकी थी. बुबू धीरे-धीरे मुझे तराश रहे थे. ‘थकुल’ बजाना मैंने बहुत जल्दी सीख लिया था. वह हुडुक बजाते और मैं उनके साथ थकुल ‘मिसात’ (मैच करना) था. हुडुक में वो 9 अलग-अलग तरह की चाल लगाते थे.
ईजा
ईजा-बौज्यू की परवाह किए बिना बुबू मुझे अपना उत्तराधिकारी बनाने की सोच चुके थे. ‘थकुल’ (थाली) बजाने से लेकर “देवता के बोल बिरत”
और ‘देवता नचाने’ की मेरी ट्रेंनिग शुरू हो चुकी थी. बुबू धीरे-धीरे मुझे तराश रहे थे. ‘थकुल’ बजाना मैंने बहुत जल्दी सीख लिया था. वह हुडुक बजाते और मैं उनके साथ थकुल ‘मिसात’ (मैच करना) था. हुडुक में वो 9 अलग-अलग तरह की चाल लगाते थे. उनका हुडुक पकड़ने का अंदाज ही अलग था. हुडुक की रस्सी को गले में डालते और उसे घुटने से सहारा देते हुए एक हाथ से बीचों-बीच में से हुडुक को पकड़ते और फिर दूसरे हाथ से थाप मारते थे. उनकी सधी हुई उंगलियां जब ‘हुडुक की पूड’ पर पड़ती तो अद्भुत आवाज निकलती थी. उंगलियों के फेरे से ही वो 9 अलग-अलग तरह की चाल निकालते थे.थकुल
जब मुझे ‘थकुल’ की ट्रेनिंग देते तो कहते थे- “म्यर आँगु चहा और कान चाल पर हण चहें” (मेरी उँगली देख और कान हुडुक से निकलने वाली आवाज पर होना चाहिए). मैं वही करता था. धीरे-धीरे उनकी चाल के
अनुसार ही थकुल बजाने लगा था. वह जैसे हुडुक में चाल बदलते , मैं थकुल में भी चाल बदल देता था. बुबू को अब विश्वास हो गया था कि मैं तैयार हो चुका हूँ.घर
घर पर ट्रेंनिग पूरी हो जाने के बाद उस दिन जागरी में थकुल बजाने का मेरा पहला अवसर था. शाम को 6 बजे के आस-पास बुबू और मैं घर से निकल गए थे. बुबू ने अपना झोला निकाला, उसमें हुडुक, तौलिया, बाँसुरी और हुक्का, तम्बाकू रखा. मैंने भी कपड़े का एक छोटा झोला लिया उसमें थकुल बजाने वाले एक जोड़ी ‘आंटू’ ( बजाने वाली दो डंडियाँ)
और एक तौलिया रखा. झोला लटका कर हम दोनों चल दिए. ईजा को तब इतना बुरा भी नहीं लगा. वह छन पर खड़ी होकर हमें जाते हुए देख रही थीं. मैंने ईजा की तरफ देखकर खुशी और कौतूहल भरी मुस्कान के साथ कहा- ‘जामु ईजा’ (जा रहा माँ). ईजा ने जवाब दिया- ‘जा जा पे’ ( जा फिर). ईजा के इस जवाब में दुःख के बजाय खुशी ही ज्यादा थी.लाठी
बुबू आगे-आगे कंधे पर झोला, हाथ में
लाठी, कमर एकदम तनी हुई चल रहे थे. मैं उनके पीछे-पीछे कौतूहल से भरा हुआ मस्ती में चल रहा था. घर से निकलते-निकलते ही अँधेरा हो चुका था. अँधेरा, बुबू के सफर का स्थायी तत्व था लेकिन रास्ता सुनसान था. बुबू की लाठी की आवाज ही सन्नाटे को तोड़ रही थी.एंट्री
बातचीत की गहमा-गहमी
चल रही थी. तभी हमारी एंट्री हुई. बुबू की लाठी की आवाज सुनते ही लोगों का ध्यान इधर को गया. हल्के उजाले में से बुबू ने – “हरि ओम, हरि ओम” कहा. यह बुबू का किसी के भी घर पर पहुँचने और उन्हें अपने होने का संकेतक था.
अफों
हमको जाना ‘अफों’ (गांव का नाम) था. वहीं “पधानुक बाखे” (प्रधान के घर में) में
जागरी लगानी थी. यह बात बुबू 2-3 दिन पहले ही बता चुके थे. घर से निकलते हुए भी उन्होंने अम्मा (दादी) को कहा- ‘आज अफोंपन छु जागेरी’ (आज अफों के गाँव में जागेरी लगानी है).आवाज
अँधेरे में हम दोनों चल रहे थे.
अफों जाने के लिए नदी पार करनी होती थी. नदी पार करने के भी दो तरीके थे या तो लम्बा घूमकर पुल के रास्ते जाओ या फिर नदी पार करो. तब ‘भित’ (नदी पार करने के लिए फट्टे लगा दिए जाते थे) भी नहीं लगे थे.बुबू ने नदी बार करके जाने का ही फैसला किया. तब नदी में बहुत पानी नहीं था. दोनों नदी के किनारे पर पहुँचे, बुबू ने धोती कमर पर बांधी और मैंने पैंट खोलकर झोले में रखी, चप्पल हाथ में पकड़े
और नदी में उतर गए. नीचे की तरफ से बुबू और ऊपर की तरफ से मैं नदी पार कर रहा था. बुबू कह रहे थे- “जतकें मैं खुट रखमु वति रखिए हां” (जहाँ मैं पाँव रख रहा हूँ, वहीं पाँव रखना). पानी मेरे पेट से ऊपर तक आ गया था. आधे में से बुबू ने मेरा हाथ पकड़ लिया और हमने तिरछे- तिरछे नदी पार कर ली. किनारे पहुँच कर बुबू ने कहा ‘आज पानी बढा हुआ था’.लोग
‘पण्डित ज्यू, यो त्यूमर नाती छै’ (पण्डित जी ये आपका पोता है) बुबू, होय, उधर से फिर सवाल आता- यूँ ठुल हया कि छोट’ (ये बडे वाले हैं कि छोटे). बुबू -“यो म्यर छोट नाति छु,
त्यूमर छोट जगरी ले’ (ये मेरा छोटा पोता है और तुम्हारा छोटा जगरिया भी). अब बुबू के साथ मुझे भी लोग पैलाग, नमस्कार बोलने लग रहे थे. संकोच के मारे मेरे मुँह से कुछ निकले ही न.
खुद
मैंने तौलिए से खुद को पोंछा, पैंट
और चप्पल पहनी और चल दिए. रात में नदी की आवाज बड़ी डरावनी लगती है. इसलिए पार हो जाने के बाद भी पीछे मुड़कर देखता रहा.हम
अब हम अफों पहुँच चुके थे. तकरीबन 9 बज रहे होंगे. वहाँ कुछ लोग आँगन में बैठे थे और कुछ बच्चे नीचे बैठकर खाना खा रहे थे. उजाले के लिए एक ‘गैंस’ (पेट्रोमैक्स) जल रही थी. बातचीत
की गहमा-गहमी चल रही थी. तभी हमारी एंट्री हुई. बुबू की लाठी की आवाज सुनते ही लोगों का ध्यान इधर को गया. हल्के उजाले में से बुबू ने – “हरि ओम, हरि ओम” कहा. यह बुबू का किसी के भी घर पर पहुँचने और उन्हें अपने होने का संकेतक था.आवाज
बुबू की आवाज सुनते ही उधर से आवाज़ आई- “पण्डित जी आओ.. आओ, अरे दरी बिछाओ रे पंडित जी आगी” (पण्डित जी आइए-आइए, पण्डित जी के लिए चटाई बिछाओ रे). दरी बिछने तक कोई
‘पैलाग’, कोई नमस्ते, कोई नमस्कार कर रहा था. बूढ़े, बच्चे और जवान सभी बुबू का अभिवादन कर रहे थे. मैं थोड़ा सहमा- सहमा सा था. एक तो थकान और दूसरा पहला अनुभव. बुबू से लोग पूछ रहे थे- ‘पण्डित ज्यू, यो त्यूमर नाती छै’ (पण्डित जी ये आपका पोता है) बुबू, होय, उधर से फिर सवाल आता- यूँ ठुल हया कि छोट’ (ये बडे वाले हैं कि छोटे). बुबू -“यो म्यर छोट नाति छु, त्यूमर छोट जगरी ले’ (ये मेरा छोटा पोता है और तुम्हारा छोटा जगरिया भी). अब बुबू के साथ मुझे भी लोग पैलाग, नमस्कार बोलने लग रहे थे. संकोच के मारे मेरे मुँह से कुछ निकले ही न.खाना
थोड़ी देर में खाना हुआ और लोग जागरी के लिए अंदर बैठने लगे, लेकिन तभी हुडुक…. (आगे जारी…)
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं.)