‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—8
- रेखा उप्रेती
हुआ यूँ कि मेरी दीदी की शादी दिल्ली के दूल्हे से हो गयी. सखियों ने “…आया री बड़ी दूरों से बन्ना बुलाया” गाकर बारात का स्वागत किया और नैनों की गागर छलकाती दीदी दिल्ली को विदा कर दी गयी. आसपास के गाँवों या शहरों में ब्याही गयी लडकियाँ तो तीसरे-चौथे रोज़ या हद से हद महीने दो महीने में फेरा लगाने आ जाती थी पर हमारी दीदी एक साल तक नहीं आ सकी. हर महीने एक अंतर्देशीय से उसके सकुशल होने की ख़बर आ जाती.
एक बार अंतर्देशीय में कुशल-बाद के साथ-साथ यह सूचना भी मिली कि फलां तारीख को हमारी दीदी और भिन्ज्यु आ रहे हैं. घर-भर में ही नहीं आस-पड़ोस में भी उत्साह की लहर दौड़ गयी. जोर-शोर से तैयारियाँ शुरू हुईं. माँ, आमा, काखी, बुआ ने मिलकर घर की लिपाई-पुताई कर डाली. देहरी, चाख, मंदिर ऐपण से जगमगा उठे, आँगन में भी ऐपण की बड़ी-सी चौकी बनाई गयी. शगुन-आँखर देने के लिए गिदारियों को न्योता दे दिया गया. हम बच्चों की तो खुशी का ठिकाना न था. दीदी आएगी, पिछौड़ा ओढ़कर जब देबीथान जाएगी तो हम भी टोली बनाकर उनके साथ जाएँगे.
आखिर वह दिन आ ही गया.
वास्तव में स्कूल बंद होने पर यह हमारा फ़ेवरेट टाइम-पास भी था. जब कोई बस से उतरकर हमारे गाँव की ओर आने वाली पगडण्डी पर पाँव धरता तो अटकलों का बाज़ार गर्म हो उठता. जहाँ बैठकर हम इस गतिविधि को देखते, वहाँ से सिर्फ आकृतियाँ नज़र आती थीं, और कद-काठी, पहनावे, चाल-ढाल आदि से यह अनुमान लगाया जाता कि आने वाले लोग कौन हो सकते हैं, किसके घर के मेहमान हैं, आदि, आदि…
दिल्ली की सवारी लेकर आने वाली बस सुबह के दस-ग्यारह बजे हमारे गाँव की सीमा में प्रवेश करती थी. हमारा घर पहाड़ की धार पर था तो सामने की पहाड़ियों से गुजरने वाली करीब दो किलोमीटर की सर्पाकार सड़क हमें साफ़ दिखती थी. बस का रुकना, उसमें से आगंतुकों का उतरना और अलग-अलग पगडंडियों की ओर मुड़ जाना हमें नज़र आता रहता था. वास्तव में स्कूल बंद होने पर यह हमारा फ़ेवरेट टाइम-पास भी था. जब कोई बस से उतरकर हमारे गाँव की ओर आने वाली पगडण्डी पर पाँव धरता तो अटकलों का बाज़ार गर्म हो उठता. जहाँ बैठकर हम इस गतिविधि को देखते, वहाँ से सिर्फ आकृतियाँ नज़र आती थीं, और कद-काठी, पहनावे, चाल-ढाल आदि से यह अनुमान लगाया जाता कि आने वाले लोग कौन हो सकते हैं, किसके घर के मेहमान हैं, आदि, आदि… कभी-कभी कोई चाची भी इस खेल में शामिल हो जातीं, खासकर जब काका के घर आने की संभावना होती …..
उस दिन भी हम बच्चों की टोली ने नियत समय पर अपनी पोजीशन ले ली. नज़रें एकटक सड़क के उस छोर पर, जहाँ से बस की पहली झलक मिल सकती थी. जाने कितनी देर बाद बस ने सड़क पर एंट्री मारी और सचमुच दिल में घंटियाँ बजने लगीं. बस ख़रामा-ख़रामा हाँफती हुई आगे बढ़ती रही और साथ-साथ हमारी धडकनें भी… घर पर सबको खबर कर दी गयी. बस आ गयी…बस आ गयी का शोर गूँजने लगा. छोटे काका को बस स्टेशन की ओर रवाना कर दिया गया. चूल्हे में केतली और कढाई चढ़ गए. आँगन में बनी चौकी के ऊपर दो पटरे, जिन्हें मझली दीदी ने बड़ी निपुणता से सजाया था, रख दिए गए. दो लोटों में पानी भरकर हरी टहनियाँ डाली गयीं, माँ, चाचियाँ, आमा सबने आँचल सवार लिए और उसमें परखन के लिए अक्षत भर लिए गए….
हमारी नजर तो बस की रफ़्तार पर थी. बस रुके, दीदी उतरे तो हम भी दौड़ लगाएँ और नदी पार करते ही दीदी को भेंट लें… तो हमारी इच्छा का आदर करती हुई बस रुक गयी. कुछ लोग उतरे और बस ने फिर रफ़्तार पकड़ी. असली परीक्षा अब थी. उतरने वाली आकृतियों में हम अपनी दीदी को पहचान लेना चाहते थे. हमारी कल्पना के अनुसार दीदी लाल-लाल साड़ी में लिपटी आकृति होनी थी, पर हमें मायूस होना पड़ा. लाल क्या कोई भी रंग हमारे गाँव की ओर आने वाली पगडंडी पर नहीं चढ़ा. थोड़ी देर बाद एक आकृति जो उस पर सवार हुई, वे हमारे छोटे काका निकले.
दिल्ली से आने वाले यात्री इसी एक बस में आते थे, यानी आज दीदी-भिन्ज्यु के आने की संभावना नहीं बची थी. ‘कोई अड़चन आ गयी होगी, जो आज नहीं आ सके’, कहकर बड़ों ने बड़ी सहजता से आँगन से सामान समेट लिया गया और रोजमर्रा के कामों में लग गए. हम बच्चे ज़रूर उदास हो गए. सुबह जो पुए-पकवान बनाए गए थे, उनमें भी कोई स्वाद नहीं था… चूल्हे की आग के साथ हमारे भी दिल बुझ गए.
तीसरे दिन हम बच्चों ने संकल्प लिया ‘आज सड़क की तरफ देखेंगें भी नहीं. दीदी आएगी तो आखिर घर ही पहुँचेगी.’ बड़े भी ऐसे सहज ढंग से घर-बाहर के कामों में लगे रहे मानो दीदी की चिठ्ठी में आने का कोई ज़िक्र ही कभी न हुआ हो.
अगले दिन फिर उसी उत्साह से प्रतीक्षा शुरू हुई. आज तो पक्का आएगी दीदी.. बस नज़र आई तो घर-भर के लोग उसी जगह पर इकठ्ठे हो गए. जब उतरेगी दीदी तभी बाकी इंतजाम करेंगे. स्टेशन से घर पहुँचने में आधा घंटा तो लगता ही था. बस को स्टेशन पहुँचने की कोई जल्दी नहीं थी. वह अपनी सुस्त चाल से सड़क पर रेंगती हुई पहुँची. अब रुकी कि अब रुकी… हम प्रतीक्षा करते रह गए और वह बिना रुके हमें चिढ़ाती हुई आगे बढ़ गयी.
“कोई ज़रूरी काम रहा होगा, नहीं आ सके..” कहकर माँ ने लम्बी साँस छोड़ी और भीतर चली गयी. थोड़ी देर बाद सब अपने नियत कामों में लग गए.
पहाड़ों की घाटियों में आवाजें गूंजती हैं. सड़क से गुजरती बस की हुम-हुम करती आवाज़ भला कैसे न गूँजती, वह भी तब, जब सबके कान उसे सुनने को उत्सुक हों…तो जब आवाज़ कानों में पड़ ही गयी तो आँखें कहाँ मानने वाली थीं. आँखें चुरा-चुराकर सब देखते रहे बस अब कहाँ तक पहुँच गयी, अब कहाँ तक पहुँची.
तीसरे दिन हम बच्चों ने संकल्प लिया ‘आज सड़क की तरफ देखेंगें भी नहीं. दीदी आएगी तो आखिर घर ही पहुँचेगी.’ बड़े भी ऐसे सहज ढंग से घर-बाहर के कामों में लगे रहे मानो दीदी की चिठ्ठी में आने का कोई ज़िक्र ही कभी न हुआ हो.
पहाड़ों की घाटियों में आवाजें गूंजती हैं. सड़क से गुजरती बस की हुम-हुम करती आवाज़ भला कैसे न गूँजती, वह भी तब, जब सबके कान उसे सुनने को उत्सुक हों…तो जब आवाज़ कानों में पड़ ही गयी तो आँखें कहाँ मानने वाली थीं. आँखें चुरा-चुराकर सब देखते रहे बस अब कहाँ तक पहुँच गयी, अब कहाँ तक पहुँची. स्टेशन के पास पहुँचने को हुई तो सबके दिल बेईमान हो उठे. आँखें वहीं टिक गयीं.
बस रुकी, कुछ लोगों के उतरने का आभास हुआ. धडकनों में उछाल आने लगा. धीरे-धीरे आकृतियाँ इस ओर बढ़ने लगीं… हाँ, लाल रंग अब साफ झलक रहा है, ज़रूर हमारी दीदी होगी, एक पुरुष आकृति भी है, हाथ में कुछ सामान पकड़े, वे भिन्ज्यु होंगे… इसी पगडंडी पर बने रहें तब तो बात है, कहीं दूसरे गाँव की ओर न मुड़ जाएँ…
खेतों के बीच बनी पगडंडी पर एक ही मानुष के चलने लायक लकीर होती थी. तो आगे-आगे लाल साड़ी सरकने लगी और पीछे अनुसरण करता पेंट-शर्ट …. उनके नदी किनारे तक पहुँचते ही हमें पक्का विश्वास हो गया कि हमारे ही पाहुने है. फिर क्या था हमने दौड़ लगा दी. हमारे घर से नीचे की ओर ढलान थी जो घुमावदार पगडंडियों से होते हुए समतल पर बने खेतों तक पहुँचती. तो उस ढलान पर लगभग लुड़कते हुए हम जा पहुँचें…..बीच-बीच में जो भी मिलता उनको भी यह ख़बर देते हुए…
थोड़ा शर्माते-सकुचाते हमने भिन्ज्यु के पैर छुए, फिर दीदी से जा लिपटे. भाई ने भिन्ज्यु की अटेची पकड़ी, मैंने दीदी की उँगली, चचेरे फुफेरे भाई-बहन भी संग हो लिए थे तो सब बढ़ चले घर की ओर.
बड़ी प्रतीक्षा के बाद जब दीदी ने आँगन में कदम रखा तो एक बार फिर शगुन-आँखर के साथ कई आँखों से गंगा-जमुना निकसी. दीदी भिन्ज्यु को पानी अक्षत परखा गया तब जाकर दोनों को भीतर ले जाया गया.
खेत छूटते ही गाँव की ओर चढ़ाई शुरू होती है और साथ ही लोगों के घर. अब जिसने भी देखा कि काफिला चला आ रहा है तो सब अपने आँगन गलियारों में निकल आए, “ अरे!! नीमा लली आईं हैं..” कहते हुए दो-तीन भाभियों ने दीदी की राह घेर ली. गले मिलकर कुशल-क्षेम पूछने का सिलसिला शुरू हुआ, जिसमें हमारी ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी, सो हम दीदी को वहीं छोड़ भिन्ज्यु को लेकर चढ़ाई पार करने लगे.
दिल्ली में पले-बढ़े भिन्ज्यु कौतुक-प्रिय बाल-मंडली से घिरे ससुराल के आँगन तक पहुँचे. शंख-घंट और शगुन-आँखर के स्वर गूँज उठे, उनसे चौकी पर चढ़ने का अनुरोध किया गया ताकि पानी और अक्षत से परछन कर रस्ते की अला-बला से मुक्त किया जा सके…
पर दीदी घर पहुँचे तब तो यह कारज किया जाए! और दीदी का तो दूर-दूर तक पता नहीं. अभी आ जाएगी, अभी आ जाएगी करते करते सब चुपचाप आँगन में बुत बने खड़े रहे. न भिन्ज्यु को समझ आए कि वे क्या करें, न उनके स्वागत में खड़ी सासों, सालियों को कुछ सूझे.
अब दीदी जल्दी घर पहुँचे भी कैसे. रास्ते में मिलने वाली हमजोलियों के साथ उसके कई तरह के नाते थे. किसी भाभी के साथ वह जंगल से लकडियाँ बटोरकर लाया करती थी, कोई घास काटने में साथ दिया करती थी, किसी चाची के साथ रोपाई के गीत गाए थे, किसी ताई के साथ नौले से पानी भरकर लाने का साथ था, कोई बचपन की सहेली थी जिसके साथ गिट्टे और अड्डू खेला करती थी तो किसी के संग हाईस्कूल के इम्तहान देने अल्मोड़ा तक गयी थी… अब ऐसी दुःख-सुख की सहचरियों को केवल ‘हाय’ और ‘बाय’ कहकर आगे कैसे बढ़ा जा सकता था. लिहाजा भिन्ज्यु देर तक आँगन में खड़े सूखते रहे.
बड़ी प्रतीक्षा के बाद जब दीदी ने आँगन में कदम रखा तो एक बार फिर शगुन-आँखर के साथ कई आँखों से गंगा-जमुना निकसी. दीदी भिन्ज्यु को पानी अक्षत परखा गया तब जाकर दोनों को भीतर ले जाया गया.
दोस्तों, इतना लम्बा किस्सा सुनकर आप भी थक गए न… थोड़ी देर और रुको…चाय-वाय पीकर ही जाना…
(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं)