जन्मजयंती पर विशेष
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
आज 24 दिसम्बर उत्तराखंड राज्य आंदोलन
के जननायक श्री इन्द्रमणि बडोनी जी की जन्मजयंती है.उत्तराखंड राज्य आंदोलन के इतिहास में बडोनी जी ‘पहाड के गांधी’ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं.उत्तराखंड
मगर दुःख के साथ कहना पड़ता है कि इस जननायक की जन्मजयंती पर जिस कृतज्ञतापूर्ण हार्दिक संवेदनाओं के साथ उत्तराखंड की जनता के द्वारा इस महानायक को याद किया जाना चाहिए था
उस तरह की जनभावनाओं का उत्तराखंड समाज में अभाव ही नजर आता है. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उत्तराखंड की राजनीति आज किस प्रकार की वैचारिक शून्यता और अवसरवाद के दौर से गुजर रही है? इतिहास साक्षी है कि जो कौम या देश अपने स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को भुला देता है वह ज्यादा दिनों तक अपनी स्वतंत्रता की रक्षा नहीं कर सकता.नदी
उत्तराखंड की सम्पूर्ण जनता अपने
इस महानायक के पीछे लामबन्द हो गयी थी. बीबीसी ने तब कहा था- ‘‘यदि आपने जीवित एवं चलते-फिरते गांधी को देखना है तो आप उत्तराखंड की धरती पर चले जायें. वहाँ गांधी आज भी अपनी उसी अहिंसक अन्दाज में विराट जनांदोलनों का नेतृत्व कर रहा है.’’
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बडोनी जी उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के
मुख्य सूत्रधार थे. 2 अगस्त 1994 को पौड़ी प्रेक्षागृह के सामने आमरण अनशन पर बैठ कर उन्होंने राजनीतिक हलकों में खलबली मचा दी थी. 7 अगस्त 1994 को उन्हें जबरन मेरठ अस्पताल में भरती करवा दिया गया और उसके बाद सख्त पहरे में नई दिल्ली स्थित आयुर्विज्ञान संस्थान में. जनता के भारी दबाव पर 30वें दिन उन्होंने अनशन समाप्त किया. इस बीच आन्दोलन पूरे उत्तराखंड में फैल चुका था. उत्तराखंड की सम्पूर्ण जनता अपने इस महानायक के पीछे लामबन्द हो गयी थी. बीबीसी ने तब कहा था- ‘‘यदि आपने जीवित एवं चलते-फिरते गांधी को देखना है तो आप उत्तराखंड की धरती पर चले जायें. वहाँ गांधी आज भी अपनी उसी अहिंसक अन्दाज में विराट जनांदोलनों का नेतृत्व कर रहा है.’’नदी
यह सच है कि बडौनी जी के कुशल नेतृत्व में ही उत्तराखंड राज्य आन्दोलन पूरे पहाड में जन आंदोलन का रूप
लेने में सफल हो सका था. आज की युवा पीढी के बहुत कम लोगों को यह बात मालूम है कि उत्तराखण्ड आंदोलन में इन्द्रमणि बडोनी जी के जुझारु नेतृत्व के बदौलत ही पृथक् राज्य का सपना पूरा हो सका. जरा याद करें स्वतंत्र भारत में भी पृथक् राज्य की मांग करने वाले उत्तराखण्ड के आन्दोलनकारियों पर किए गए जुल्म और अत्याचार के कारनामों की दास्तां जिसकी रिपोर्टिंग शिवानन्द चमोली ने ‘नैनीताल समाचार’ अखबार में इस प्रकार की है-नदी
“1 सितम्बर 1994 को खटीमा
और 2 सितम्बर को मसूरी के लोमहर्षक हत्याकांडों से पूरा देश दहल उठा था. 15 सितम्बर को शहीदों को श्रद्धांजलि देने हेतु मसूरी कूच किया गया, जिसमें पुलिस ने बाटा घाट में आन्दोलनकारियों को दो तरफा घेर कर लहूलुहान कर दिया. दर्जनों लोगों को गिरफ्तार किया गया. बडोनी को जोगीवाला में ही गिरफ्तार कर सहारनपुर जेल भेजा गया. इस दमन की सर्वत्र निन्दा हुई. मुजफ्फरनगर के जघन्य कांड की सूचना मिलने के बाद 2 अक्टूबर की दिल्ली रैली में उत्तेजना फैल गई.नदी
मंच पर अराजक तत्वों के पथराव से
बडोनी जी चोटिल हो गये थे. मगर ‘उत्तराखंड के इस गांधी’ ने उफ तक नहीं की और यूपी हाऊस आते ही फिर उत्तराखंड के लिए चिन्तित हो गये. उन तूफानी दिनों में आन्दोलनकारी जगह-जगह अनशन कर रहे थे, धरनों पर बैठे थे और विराट जलूसों के रूप में सड़कों पर निकल पड़ते थे. इनमें सबसे आगे चल रहा होता था दुबला-पतला, लम्बी बेतरतीब दाढ़ी वाला शख्स- इन्द्रमणि बडोनी. अदम्य जिजीविषा एवं संघर्ष शक्ति ने उन्हें इतना असाधारण बना दिया था कि बड़े से बड़ा नेता उनके सामने बौना लगने लगा.”नदी
श्री इन्द्रमणि बडोनी जी का जन्म
24 दिसम्बर 1925 को टिहरी गढवाल के जखोली ब्लाक के अखोडी ग्राम में हुआ. उनके पिता का नाम श्री सुरेशानंद बडोनी था. अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्ष में उतरने के साथ ही उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई. अपने सत्याग्रहपूर्ण सिद्धांतों पर दृढ रहने वाले इन्द्रमणि बडोनी जी का जल्दी ही राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति करने वाले दलों से मोहभंग हो गया. इसलिए वह चुनाव भी निर्दलीय प्रत्याशी के रुप में लडे और 1967,1974,1977 में देवप्रयाग विधानसभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के रुप में चुनाव जीत कर उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे. उत्तर प्रदेश में बनारसी दास गुप्त के मुख्यमंत्रित्व काल में वह पर्वतीय विकास परिषद के उपाध्यक्ष भी रहे थे.नदी
पूरे पहाड़ में व्यापक
आंदोलन शुरु होने के बाद तन मन धन से समर्पित बडोनी जी ने स्कूल-कालेजों में आरक्षण व पंचायती सीमाओं के पुनर्निधारण नीति का विरोध करते हुए 2 अगस्त 1994 को कलेक्ट्रेट कार्यालय पर आमरण अनशन शुरु कर दिया जो उत्तराखण्ड आंदोलन के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ.
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उत्तराखण्ड आंदोलन के
प्रणेता इन्द्रमणि बडोनी राज्य निर्माण के लिए सन् 1980 में उत्तराखण्ड क्रांति दल में शामिल हुए. उन्हें पार्टी का संरक्षक बनाया गया. 1989 से 1993 तक उन्होंने उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति के लिए पर्वतीय अंचलों में व्यापक जनसम्पर्क अभियान द्वारा जन जागृति की मुहिम चलाई और लोगों को अलग राज्य की लडाई लडने के लिए मानसिक रूप से तैयार किया. पूरे पहाड़ में व्यापक आंदोलन शुरु होने के बाद तन मन धन से समर्पित बडोनी जी ने स्कूल-कालेजों में आरक्षण व पंचायती सीमाओं के पुनर्निधारण नीति का विरोध करते हुए 2 अगस्त 1994 को कलेक्ट्रेट कार्यालय पर आमरण अनशन शुरु कर दिया जो उत्तराखण्ड आंदोलन के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ. उनके इसी आमरण अनशन ने आरक्षण के विरोध को उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन में बदल दिया.नदी
आंदोलन के दौरान गाधीवादी विचारों,
सत्याग्रहपूर्ण सिद्धांतों और आंदोलन को नेतृत्व देने की अपनी विशिष्ट शैली के कारण वह स्वतंत्रता आंदोलन के पुरोधा बनकर एक क्रातिकारी नेता के रूप में भारतीय राजनीति में छाए रहे. वह अहिंसक आंदोलन के प्रबल समर्थक थे. उनके इसी क्रातिकारी व्यक्तित्व को रेखांकित करते हुए तब अमरीकी अखबार ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने स्व. इन्द्रमणि बडोनी जी को ‘पहाड के गॉधी’ की उपाधि तक दी थी. ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने लिखा था कि- “उत्तराखण्ड आंदोलन के सूत्रधार इन्द्रमणि बडोनी की आंदोलन में वैसी ही भूमिका थी जैसी आजादी के संघर्ष के दौरान ‘भारत छोडो’ आंदोलन में राष्ट्रपिता महात्मा गॉधी ने निभायी थी. जिसकी परिणति अंततः उत्तरांचल की स्थापना के रूप में हुई.नदी
उत्तराखंड हिमालय
भ्रमण के दौरान उन्होंने ही भिलंगना नदी के उद्गम स्थल खतलिंग ग्लेशियर को खोजा था. उनका सपना पहाड को आत्मनिर्भर राज्य बनाने का था और उन्ही के प्रयासों से इस क्षेत्र में दुर्लभ औषधियुक्त जडी बूटियों की बागवानी प्रारम्भ हुई.उनका सादा जीवन देवभूमि के संस्कारों का ही जीता-जागता नमूना था. वे चाहते थे कि इस पहाडी राज्य को यहां की भौगोलिक परिस्थिति व विशिष्ट सांस्कृतिक जीवन शैली के अनुरूप विकसित किया जाए.
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श्री इन्द्रमणि बडोनी जी को
देवभूमि उत्तराखंड और अपनी संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम था. उत्तराखंड हिमालय भ्रमण के दौरान उन्होंने ही भिलंगना नदी के उद्गम स्थल खतलिंग ग्लेशियर को खोजा था. उनका सपना पहाड को आत्मनिर्भर राज्य बनाने का था और उन्ही के प्रयासों से इस क्षेत्र में दुर्लभ औषधियुक्त जडी बूटियों की बागवानी प्रारम्भ हुई.उनका सादा जीवन देवभूमि के संस्कारों का ही जीता-जागता नमूना था. वे चाहते थे कि इस पहाडी राज्य को यहां की भौगोलिक परिस्थिति व विशिष्ट सांस्कृतिक जीवन शैली के अनुरूप विकसित किया जाए. वर्ष 1958 में राजपथ पर गणतंत्र दिवस के अवसर पर बडोनी जी ने केदार नृत्य की ऐसी कलात्मक प्रस्तुति की थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी उनके साथ थिरक उठे थे.नदी
युगपुरुष इन्द्रमणि बडोनी जी
हिमालय के समान दृढ निश्चयी, गंगा के समान निर्मल हृदय, नदियों और हरे भरे जंगलों की भांति परोपकारी वृत्ति के महा मानव थे. उत्तराखंड के इस सच्चे सपूत ने 72 वर्ष की उम्र में 1994 में राज्य निर्माण की निर्णायक लड़ाई लड़ी, जिसमें उनके अब तक के किये परिश्रम का प्रतिफल जनता के विशाल सहयोग के रूप में मिला. उस ऐतिहासिक जनान्दोलन के बाद भी 1994 से अगस्त 1999 तक बडोनी जी उत्तराखंड राज्य के लिए जूझते रहे. मगर अनवरत यात्राओं और अनियमित खान-पान से कृषकाय देह का यह वृद्ध बीमार रहने लगा.नदी
मातृभूमि की प्राणपण
से सेवा करते-करते 18 अगस्त 1999 को उत्तराखंड का यह सपूत अनंत यात्रा की तरफ महाप्रयाण कर गया. इसे भी हमारा दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जिस राज्य के लिए बडोनी ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया उसके अस्तित्व में आने से पहले ही वह हमें नेतृत्व विहीन करके चला गया.
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देहरादून के अस्पतालों,
पी. जी.आई.चंडीगढ़ एवं हिमालयन इंस्टीट्यूट में इलाज कराते हुए भी मरणासन्न बडोनी जी सदा उत्तराखंड की बात करते थे.गुर्दे खराब हो जाने से दो-चार बार के डायलिसिस के लिए भी उनके पास धन का अभाव हो गया था. मातृभूमि की प्राणपण से सेवा करते-करते 18 अगस्त 1999 को उत्तराखंड का यह सपूत अनंत यात्रा की तरफ महाप्रयाण कर गया. इसे भी हमारा दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जिस राज्य के लिए बडोनी ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया उसके अस्तित्व में आने से पहले ही वह हमें नेतृत्व विहीन करके चला गया.नदी
आज हमारे बीच बडोनी जी जैसे नेता होते तो उत्तराखंड की ऐसी दुर्दशा नहीं होती. उत्तराखंड की ‘अगस्त क्रांति’ के इस जननायक और ‘पहाड के गांधी’ को हम समस्त उत्तराखंड वासियों की ओर से उनकी जन्मजयंती पर कोटि कोटि नमन !!
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)