भाग—1
- डॉ. रुद्रेश नारायण मिश्र
राजनीति, जिसका संबंध समाज में शासन और उससे संबंधित नियम या नीति से है. यह नीति और नियम, राज करने वालों से लेकर समाज के विभिन्न वर्गों पर प्रभाव डालता है. परंतु सत्ता के कई संदर्भ में इसकी दिशा और दशा बदल जाती है, और तब यह सत्ता विशेष के हाथों की कठपुतली मात्र बनकर रह जाती है. यहीं से राजनीति की अदला बदली का खेल शुरू होता है.
सत्ता पाने के लिए और अपने अनुसार समाज में नीति का निर्माण करने के लिए वैश्विक इतिहास में कई संघर्षों को देखा जा सकता है. साथ ही, इन संघर्षों में नीति बनाने वालों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि नीति निर्माता समय काल और स्थिति को समझता है और उसी के अनुरूप अपने विचारों को व्यक्त करता है. कुछ राजनीति के विचारक स्वतंत्र रूप में अपने विचारों को सभी के समक्ष प्रस्तुत करते दिखते हैं, जिससे उन्हें कई परेशानियों का सामना भी करना पड़ता है. यह स्थिति प्लेटो, अरस्तु, चाणक्य, थिरुवल्लुवर, सिसरो, थॉमस हॉब्स, बेंजामिन फ्रैंकलीन, एडम स्मिथ, बी. आर. अंबेडकर आदि तक तक दिखाई पड़ता है. स्थितियां बदलती है तो, नीति के पन्ने बदलने के साथ राजनीति अपने नए रंग रूप में आ जाता है. परंतु इसके लाभ और हानि में जनता का समर्थन मांगा जाता है और जनता के पास स्वीकार या संघर्ष के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता है. इसका खामियाजा कई बार राजनीति के नीतिकार को भी उठाना पड़ता है. उनके विरुद्ध भी विरोध स्वर उठने लगते हैं, जिससे उन्हें खुद को समाज से दूर करना पड़ता है जैसे अरस्तू ने किया. चाहे उन्होंने कानून को ही क्यों न न्याय माना हो और न्याय को मानवीय संबंधों के नियम. उनके विचारों की झलक सिसरो के चिंतन में देखी जा सकती है.
कई नियम-कायदे, कानून बने और वह टूटते चले गए. सत्ता पर आसीन होने की ललक और अपने अनुसार राजनीति को तैयार करने की चाहत ने कई राजनीतिक एवं जातीय संघर्ष को जन्म दिया. यह राजनीति की अदला-बदली ही तो थी, जिसमें शामिल बड़े-बड़े राजनीतिक विचारक और दार्शनिक होते थे.
बावजूद इसके राजनीति का बदलाव नैतिक दृष्टि का विश्लेषण नहीं करता है. सामाजिक और मानवीय मूल्यों का परीक्षण नहीं करता है, बल्कि वह व्यक्तिगत हो जाता है. इस संदर्भ में व्यक्ति के आगे समाज की नहीं बल्कि राजनीति की व्यापकता बढ़ जाती है और वह अच्छे बुरे संदर्भों से परे, राजनीति के अधिकारों को जुटाने में लग जाता है. इसलिए समाज के नए संदर्भों ने या तो शासक वर्ग को सलाह दी यह स्वतंत्र रूप में राजनीति के आंतरिक क्षमता पर बात की. चाणक्य ने तो राजनीतिक उठापटक को लेकर यहाँ तक कहा कि, जो भी राजनीतिक वर्ग अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा, वह स्वयं नष्ट हो जाएगा.
जाहिर तौर पर कई राजनीतिक सभ्यताओं का विकास हुआ और वह नष्ट भी होती चली गई. कई नियम-कायदे, कानून बने और वह टूटते चले गए. सत्ता पर आसीन होने की ललक और अपने अनुसार राजनीति को तैयार करने की चाहत ने कई राजनीतिक एवं जातीय संघर्ष को जन्म दिया. यह राजनीति की अदला-बदली ही तो थी, जिसमें शामिल बड़े-बड़े राजनीतिक विचारक और दार्शनिक होते थे. जिनके कहे अनुसार ही राजनीति के संघर्षों को रूप दिया जाता था.
बीसवीं शताब्दी में राजनैतिक प्रतिबिंब सत्ता से परे व्यापार हो गया. परंतु यह व्यापारिक राजनीति भी सत्ता की राजनीति में बदल गया. आवश्यकता से अधिक देशों पर अपनी-अपनी नीति को थोपने के लिए साधन के रूप में देश/राज्य का इस्तेमाल किया जाने लगा. व्यापार को हथियार बनाकर राजनीति की अदला-बदली की गई.
यह संघर्ष राजनीति के वर्चस्व की थी. जो आज के राजनीति के अदला-बदली में भी देखने को मिल जाता है, जहां न्यायपूर्ण समाज नहीं बल्कि राजनैतिक हस्तक्षेप चाहिए. ऐतिहासिक संदर्भों में कई सभ्यताएं जैसे- यूनान की सभ्यता और रोम की सभ्यता में राजनीति के अदला-बदली की तस्वीर मिल जाती है. भारत के ऐतिहासिक संदर्भ में महाभारत इसका सटीक उदाहरण है.
बीसवीं शताब्दी में राजनैतिक प्रतिबिंब सत्ता से परे व्यापार हो गया. परंतु यह व्यापारिक राजनीति भी सत्ता की राजनीति में बदल गया. आवश्यकता से अधिक देशों पर अपनी-अपनी नीति को थोपने के लिए साधन के रूप में देश/राज्य का इस्तेमाल किया जाने लगा. व्यापार को हथियार बनाकर राजनीति की अदला-बदली की गई. उसके बाद इसका आधुनिक शस्त्र के रूप में प्रयोग किया जाने लगा. परिणामस्वरूप प्रथम विश्वयुद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध सबके सामने आ ही जाता है.
सोचनीय है कि जब यहीं राजनीति का शस्त्र देश के आंतरिक राजनैतिक विचारधारा में शामिल हो, जब मूल्य परिस्थिति के अनुसार बदल जाते हो और समन्वय सामाजिक न होकर सिर्फ राजनीतिक हो, तब समाज को अलग-अलग दृष्टि से राजनीति का मूल्यांकन करना चाहिए.
यही वजह है कि कई सभ्यताओं और शासन काल की राजनीति आज भी संदर्भित किए जाते हैं, जब राजनीति की स्थिति राजनेता तक सिमट कर रह जाता है और उसे वह अपने मतानुसार क्रियान्वित करने की कोशिश करता है. एक बात जरूर है कि मीडिया अपने संदर्भों में इसकी व्याख्यात्मक प्रस्तुति करता है परंतु, वह ऐतिहासिक संदर्भों के अलावा और कुछ नहीं. भारत की राजनीति का कई अर्थों में प्रयोग होता है, क्योंकि यहाँ की राजनीति राष्ट्रीय स्तर से लेकर क्षेत्रीय स्तर और उसके बदलाव की राजनीति से संबंधित है और बदलाव राजनीतिक शक्ति का प्रयोग कर किया जाता है. अब प्रश्न उठता है कि यह राजनीतिक शक्ति उसे मिला कैसे? पार्टी विशेष के रूप में मिला या व्यक्ति विशेष के रूप में. निश्चित रूप से यह शक्ति पार्टी विशेष और व्यक्ति विशेष मिलकर बना है. पर इसके पीछे की जनता को इससे अलग कर दिया जाता है. उसके प्रजातांत्रिक विश्वास को ठेस पहुंचाया जाता है. इस ठेस की शुरुआत सन 1959 में केरल से हुआ. सन 1957 के विधानसभा और लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को केरल में कम सीटें मिलने के साथ ही, विधानसभा गंवानी पड़ी. ईएमएस नम्बुरिपाद के नेतृत्त्व में सरकार बनी. पर यह बात कांग्रेस को खटकने लगा. सरकार के कई फैसले पर ‘स्वतंत्रता संघर्ष’ नामक आंदोलन शुरू कर दिया. नम्बुरिपाद की सरकार ने शांति व्यवस्था बनाने के लिए पुलिस कार्यवाही की. परंतु इस मुद्दे ने लोगों को और भड़का दिया. उस स्थिति में केरल के गवर्नर ने केंद्र को हस्तक्षेप करने को कहा. ऐसे में किसी निर्वाचित सरकार को केवल 2 साल के अंदर 1959 में आर्टिकल 356 का प्रयोग करते हुए बर्खास्त कर दिया गया. इसमें 1959 में कांग्रेस की अध्यक्ष बनी इंदिरा गांधी की भूमिका अहम मानी जाती है. क्योंकि क्षेत्रीय राजनीति में दखल ही इंदिरा गांधी को राष्ट्रीय राजनीति में आगे रखता और हुआ भी. इंदिरा गांधी का कद कांग्रेस में बहुत ऊंचा हो गया और राजनीति की एक अलग धारा बह चली. यह धारा संविधान की धारा से बिल्कुल विपरीत था. जिसका परिणाम आज के राजनीतिक घटना का पर्याय बन चुका है.
अलग-अलग सरकारों ने भारत में कई बार राष्ट्रपति शासन लगाया. कुछ ने देश समाज की स्थिति को लेकर तो कुछ ने, राजनीति को बदलने के लिए किया. तो कुछ ने राजनीति में अपनी पार्टी और उसके स्वामित्व के लिए किया. प्रधानमंत्री के तौर पर इंदिरा गांधी ने कई बार राज्य सरकारों को बर्खास्त किया. जिनमें अधिकतर गैर कांग्रेसी सरकारें थी. इनमें 1967 में बनी बंगाल सरकार और 1976 में तमिलनाडु में करुणानिधि सरकार आदि प्रमुख उदाहरण है.
राजनीति में अदला-बदली का कारण कई बार अपनी साख को बचाना भी है. सन 1971 के चुनाव के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर संसाधनों के दुरुपयोग और चुनाव को गलत तरीके से जीतने का आरोप लगा. इलाहाबाद हाईकोर्ट में सुनवाई हुई. फैसला उनके विपक्ष में था. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में फैसले को चुनौती दी. परंतु उन्हें वहां भी राहत नहीं मिली. दूसरी तरफ राजनीति के एक प्रबल और सशक्त चेहरे के रूप में जयप्रकाश नारायण की रामलीला मैदान में रैली ने राजनीति के नए प्रश्नों को खड़ा कर दिया.
राजनीति में अदला-बदली का कारण कई बार अपनी साख को बचाना भी है. सन 1971 के चुनाव के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर संसाधनों के दुरुपयोग और चुनाव को गलत तरीके से जीतने का आरोप लगा. इलाहाबाद हाईकोर्ट में सुनवाई हुई. फैसला उनके विपक्ष में था. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में फैसले को चुनौती दी. परंतु उन्हें वहां भी राहत नहीं मिली. दूसरी तरफ राजनीति के एक प्रबल और सशक्त चेहरे के रूप में जयप्रकाश नारायण की रामलीला मैदान में रैली ने राजनीति के नए प्रश्नों को खड़ा कर दिया. राजनीति के उठापटक और अदला-बदली की संभावनाओं ने जोर मारना शुरू कर किया. इन्हीं सबके बीच पार्टी में अपनी साख बचाने के लिए इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को राष्ट्रीय आपातकाल घोषित कर दिया. जिसका प्रभाव आमजन से लेकर राजनीति के गलियारों में आज भी विद्यमान है. यही कारण है कि लोकतंत्र के लोकतांत्रिक सरकार को बदलने की प्रक्रिया तब से आज तक अनवरत रूप में चली आ रही है.
(लेखक एम. ए. हिंदी, एम.ए., एम. फिल., पीएच. डी. जनसंचार. राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में कई शोध-पत्र प्रस्तुति एवं प्रकाशन. समकालीन मीडिया के नए संदर्भों के लेखक एवं जानकार हैं)
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बहुत अच्छा लिखा है मित्र आपने।