नदियों से जुड़ाव का सफर वर्ष 1993 में रिस्पना नदी से आरम्भ हुआ तो फिर आजीवन बना रहा. DBS कॉलेज से स्नातक और बाद में DAV परास्नातक, पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान भी रिस्पना पर शोध कार्य जारी रहा. हिमालय की चोटियों से निकलने वाली छोटी-बड़ी जलधाराएँ- धारा के विपरीत बहने की उर्जा ने मुझे देहरादून की नदियों और जलधाराओं के अध्ययन के लिए वर्ष 1996-1997 से ही प्रेरित किया. जलान्दोलन के तहत पूरे उत्तराखंड में पनचक्कियों के संरक्षण, जलधाराओं को प्रदुषण मुक्त रखने- पहाड़ के हर गाँव में सिंचाई के साधन उपलब्ध कराने को लेकर- जलान्दोलन के तहत- पदम् भूषण डॉ. अनिल प्रकाश जोशी जी के नेतृत्व में गंगोत्री से दिल्ली पदयात्रा का समन्वयन किया.
पहाड़ के प्राकृतिक जल संसाधनों और जंगल और जमीन के मुद्दे पर सदैव सक्रिय रहे. शराब विरोधी आन्दोलन की वजह से मुकद्दमे झेले और जेल भी जाना पड़ा. आज भी जनपद चमोली, देहरादून, बागेश्वर, रुद्रप्रयाग में युवाओं के लिए स्वरोजगार के कार्यक्रमों के तहत 23 वर्षों से संघर्षरत हैं. चमोली जिले के पीपलकोटी नामक कस्बे में जन्म हुआ. वनस्पति विज्ञान, समाज शास्त्र और पत्रकारिता की पढाई की और कालांतर में पीपलकोटी में प्रदेश के पहले बायो टूरिज्म पार्क की स्थापना की है. ट्रैकिंग, लेखन, शोध पत्रकारिता, बागवानी और फोटोग्राफी के साथ करीबी रिश्ता है.
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रिस्पना की खोज में… भाग -2
- जे.पी. मैठाणी
झाड़ियों में चलते वक्त परेशानी हो रही है. मैं ट्रैकिंग शूज़ पहन कर गया था. अचानक एक जगह हमको तीव्र ढाल पर उतरना होता है. यहीं पर मैंने पहला रिंगाल की झाड़ी देखी.
ढाल से फिसलते हुए नीचे उतर जाते हैं. सामने देखते हैं. नदी के दायीं ओर एक बड़ा पानी का टैंक बना है जिसमें 5 अलग -अलग जगहों से पानी के पाईपों को जोड़कर पानी भरने की व्यवस्था की गयी है. लेकिन आजकल 3 छोटे जलस्रोत जहाँ से टैंक तक की लाईन जोड़ी गयी है सूखे हुए हैं. लेकिन नदी से जोड़े गये दो बड़े पाईप उस टैंक में पानी भर रहे हैं. ये शायद इस नदी पर बना हुआ पहला वाटर स्टोरेज टैंक है. इसी से निकली हुई पाईप लाईन मॉसी फॉल में शिव मंदिर के आगे से गुजर रही है, ऐसा मुझे लगता है.बुरांस
इस बड़े टैंक के साथ एक-दो और छोटे वाटर स्टोरेज चैम्बर बने हैं. इससे आगे बढ़ते हुए हमने देखा कि इस नदी में छोटी-छोटी जलधारायें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर आकर इसमें मिल रही हैं.
नदी के दोनों ओर बहुत ही घने जंगल है, जहाँ सूरज की किरणें जमीन तक नहीं पहुँच पा रही हैं. पानी यहाँ भी बिल्कुल साफ है. मॉसी फॉल से ऊपर जो ग्रामीण हमें मिले थे उन्होंने बताया था कि; जब आप ऊपर जाओगे तो आपको आगे कुछ स्कूलों के वॉटर पम्प स्टेशन दिखाई देंगे. जहाँ उनके स्टाफ भी रहते हैं. अभी हम आधा किमी0 आगे आ गये हैं. यहाँ मुझे किंगोड़ की पत्तियों जैसा लेकिन सीधी टहनी वाला जिस टहनी पर कांटे नहीं है, एक नया पौधा दिखाई दिया. साथ ही गहरी हरे रंग की चैड़ी लम्बी पत्ती वाले पेड़ बहुतायत में है. इन पर गुच्छों में काले फल लगे हैं.वॉटर
ये बाद में पता चला कि एक प्राइवेट स्कूल के वॉटर पम्प सिस्टम की मोटरों को चलाने के लिए ये बिजली की केबल जंगल में नदी के साथ-साथ डाली गयी है. हम आगे देखते हैं
एक विशाल वॉटर पम्प स्टेशन बना है जिसमें दो दर्जन से अधिक पाईपों का जाल बिछा है. यहाँ रहने वाले मजदूरों से और स्कूल के कर्मचारियों से पता चला कि ये लगभग सौ साल से भी ज्यादा पुराना वॉटर पम्प स्टेशन है जो नदी से स्कूल के लिए पानी की सप्लाई के लिए बनाया गया है.
वॉटर
हमसे थोड़ी दूरी पर नीच जो जलधारा बह रही है. उसमें प्लास्टिक का कचरा मौजूद है. नदी की जलधारा के बायीं ओर कुछ-कुछ दूरी पर सीमेन्ट के लगभग एक मीटर ऊँचे और ढाई फीट चैड़े बाउण्ड्री पिल्लर लगे हैं जिन पर डबल्यू.एस. लिखा है. मैंने अपने साथियों को बताया कि शायद ये वन विभाग या वॉटर शैड वालों के हैं.
कहीं -कहीं पर हम झाड़ियों और चट्टानों को पकड़ते हुए रास्ता तय कर रहे हैं. नदी को दो-तीन बार आर-पार करना पड़ता है. पानी इतना ज्यादा नहीं कि जूते गीले हो जायें. क्योंकि आप पत्थरों में कूदते-फांदते नदी को आर पार कर सकते हैं.वॉटर
अचानक हमें ऐसा लगता है कि
गाड़ी की जैसी आवाज आ रही है. नदी के पानी को जहाँ हम सबने अभिजय के कहने पर छुआ तो पाया कि इस पानी में कुछ चिकनाई सी है. ऐसा लग रहा था जैसे कि पानी में तेल जैसा कुछ हो. आगे हमें अचानक टिन शैड दिखाई देते हैं. जो कि नदी के दायीं ओर बड़े बड़े पुश्तों पर टिकाकर बनाये गये है. इससे पहले जंगल में पतली पाईप लाईन के साथ हमें बिजली की (ह्वेल्स कम्पनी) मोटी केबल दिखाई दी. तो हमने सोचा जल संस्थान वाले जो टैंक बना रहे हैं उनकी मशीनों को चलाने के लिए बिजली की ये लाईन लायी गयी होगी.वॉटर
पूरी घाटी में कहीं भी बिजली के
पोल हमें नहीं दिखाई दिए. ये बाद में पता चला कि एक प्राइवेट स्कूल के वॉटर पम्प सिस्टम की मोटरों को चलाने के लिए ये बिजली की केबल जंगल में नदी के साथ-साथ डाली गयी है. हम आगे देखते हैं एक विशाल वॉटर पम्प स्टेशन बना है जिसमें दो दर्जन से अधिक पाईपों का जाल बिछा है. यहाँ रहने वाले मजदूरों से और स्कूल के कर्मचारियों से पता चला कि ये लगभग सौ साल से भी ज्यादा पुराना वॉटर पम्प स्टेशन है जो नदी से स्कूल के लिए पानी की सप्लाई के लिए बनाया गया है. इसी की मोटरों की आवाज को हमने गाड़ी की आवाज समझ लिया था.वॉटर
इस घनघोर जंगल में ये लोग बरसात में कैसे रहते होंगे यह सोचकर अजीब सा एहसास हो रहा था. इनके टीम लीडर ने बताया कि आगे आपको नदी के दायीं ओर ही चलते जाना है.
एक डेढ़ किमी ऊपर आपको एक और स्कूल का वॉटर पम्प मिलेगा उसी से आगे नदी के दायीं ओर मसूरी के लोगों का शमशान घाट भी है. वहाँ से आगे आप लोगों को बहुत ही खतरनाक रास्ता तय करना होगा. और हो सकता है आपको वापस आना पड़े.वॉटर पम्प को देखने के
बाद हम आगे बढ़ते है. शायद अब तक हम 6-7 किमी0 की चढ़ाई नदी के साथ-साथ चढ़ चुके हैं. अब नदी के बायीं ओर और हमारे दाहिनी ओर कंटीले तारों की बाड़ तथा डबल्यू.एस. लिखे सीमेन्ट के बाउण्ड्री पिल्लर लगातार दिखाई देने लगते हैं.
वॉटर
इस वॉटर टैंक के थोड़ा आगे मैंने देखा पूरब की दिशा से एक छोटी जलधारा आ रही है, मैं और हृदयेश शाही इस जलधारा में जाते हैं तो देखते हैं 60-70 मीटर के बाद आगे पानी नहीं है. यहाँ पर भी सीमेन्ट का एक छोटा चैम्बर बना है जिसके आउटलेट पर लगभग 3 फीट का मोटा प्लास्टिक के पाईप का टुकड़ा लगाया गया है.
उसमें लगभग ढाई तीन इंच पानी होगा. लेकिन वो पानी वापस मुख्य जलधारा में जा रहा है. वॉटर पम्प को देखने के बाद हम आगे बढ़ते है. शायद अब तक हम 6-7 किमी0 की चढ़ाई नदी के साथ-साथ चढ़ चुके हैं. अब नदी के बायीं ओर और हमारे दाहिनी ओर कंटीले तारों की बाड़ तथा डबल्यू.एस. लिखे सीमेन्ट के बाउण्ड्री पिल्लर लगातार दिखाई देने लगते हैं.वॉटर
अब हमें बहुतायत में रिंगाल, काफल, बांज, बुरांस नीचे घाटी में काफी विशाल फर्न (लेंगुड़ा) कुछ जगहों पर किंगोड़, हिसोल की झाड़ियां भी काफी उगी थी. हैरानी की बात यह
थी कि ऊपर मसूरी के कचरे में आए टमाटर नदी की धारा के बीच के खाली स्थानों में अब पानी कम होने की वजह से पौध के रूप में जमे हुए थे.
वॉटर
कंटीले तार की बाड़ कहीं-कहीं नदी के बहाव से पिल्लरों के टूट जाने से नदी में गिर गयी हैं. जिन पर बहुत सारे कपड़े, प्लास्टिक, पाॅलिथिन अटका हुआ है. ऐसा लग रहा था मानो कंटीले तारों पर कपड़े सुखाने डाले गए हों. अब हमें बहुतायत में रिंगाल, काफल, बांज, बुरांस नीचे घाटी में काफी विशाल फर्न (लेंगुड़ा) कुछ जगहों
पर किंगोड़, हिसोल की झाड़ियां भी काफी उगी थी. हैरानी की बात यह थी कि ऊपर मसूरी के कचरे में आए टमाटर नदी की धारा के बीच के खाली स्थानों में अब पानी कम होने की वजह से पौध के रूप में जमे हुए थे. हमारे दाहिनी ओर से एक और जलधारा इसमें मिल रही है. यहाँ हम निर्णय लेते हैं.वॉटर
पीछे जो वॉटर पम्प मिला था उससे थोड़ा आगे एक बड़ी जल धारा का बहाव क्षेत्र हमें दिखा था. जिसमें आजकल बिल्कुल पानी नहीं है. लेकिन हमें यहाँ तक छोड़ने आए व्यक्ति ने बताया कि बरसात में इसमें बहुत पानी रहता है, इसलिए ये पक्की पुलिया बनायी गयी है. इस घाटी में अभी तक धूप का नामो निशान नहीं है. सुबह के लगभग 11 बज चुके हैं. हाथ में घड़ी थी नहीं, मोबाइल में टाइम देखा नहीं. ये तो घर पहुँचकर अनुमान से समय लिख रहा हूँ. यहाँ नदी ने अपने दोनों ओर काफी जमीन को काटा हुआ है. कटाव से पेड़ों की जड़ें दिखाई दे रही है.
वॉटर
अचानक मुझे लगता है नदी के बहाव की चट्टानें बिल्कुल डार्क काले रंग की है जो कि पट्टियों में आड़ी-तिरछी फैली दिखाई दे रही हैं. ऐसा लग रहा था मानों काले रंग का कच्चा कोयला हो. इन चट्टानों के एक-दो टुकड़े हमने इकट्ठे कर लिये. यहाँ घाटी थोड़ी चैड़ी हो गयी है. अब हल्की गर्मी लगने लगी थी. तकरीबन आधा किमी चलने
पर नीचे घाटी से देखते हैं हमारे बायीं ओर सीमेन्ट की बड़ी दीवार और एक टिन शेड सा बना है. हृदयेश और शार्दुल सबसे पहले भाग कर ऊपर चढ़ जाते हैं और चिल्लाते हैं- ये शमशान घाट है ये शमशान घाट है. लेकिन अभिजय सीधे जाने से हिचकिचा रहे हैं. अब मैं भी ऊपर पहुँच गया हूँ. तो विजय प्रताप पुणे में अपने बैंक की नौकरी के बारे में बताते हैं.वॉटर
मैं शार्दुल को वहाँ जाने
से रोकता हूँ और कहता हूँ ऐसे स्थानों पर शांति रखनी चाहिए. नीचे नदी में काफी मात्रा में कपड़े फेंके गये हैं, शायद यहाँ अंतिम संस्कारों को सम्पन्न करने के बाद कपड़े नदी में फेंक दिए जा रहे हों. लेकिन ये गलत है, इन कपड़ों से भी नदी में प्रदूषण हो रहा है.
वॉटर
कहते हैं- मैठाणी सर, ऐसी जगह मुझे बहुत पसंद है जहाँ शांति हो. जब मैं पुणे में नौकरी करता था, प्राइवेट बैंक साल के आखिरी में टारगेट पूरा करने के लिए बहुत अधिक प्रेशर डाल देते हैं तो उनसे मुक्ति पाने के लिए मैं पुणे में भी ऐसी जगहों पर बिना डरे चले जाता था. यहाँ काफी झााड़ियां उगी हुई हैं. मनुष्य के पंचतत्व में विलीन
होने का प्रमाण देती राख मौजूद है लेकिन आसपास लकड़ियां दिखाई नहीं दी. अभिजय कह रहा है हड्डियां दिखाई दे रही है. मैं शार्दुल को वहाँ जाने से रोकता हूँ और कहता हूँ ऐसे स्थानों पर शांति रखनी चाहिए. नीचे नदी में काफी मात्रा में कपड़े फेंके गये हैं, शायद यहाँ अंतिम संस्कारों को सम्पन्न करने के बाद कपड़े नदी में फेंक दिए जा रहे हों. लेकिन ये गलत है, इन कपड़ों से भी नदी में प्रदूषण हो रहा है.वॉटर
पिछले वॉटर पम्प से यहाँ
तक पहुँचने के बीच कुछ मशरूम जिसे गढ़वाली में च्यूं कहते हैं दिखाई दिए. साथ ही घाटी में जंगल बबलर, रेड वेन्टेड बुलबुल, पैराडाईज फ्लाईकैचर, व्हाइट कैब्ड वॉटर रैड स्टार्ट, ओरियन्टल मैग्पाई रॉबिन, ब्लू व्हिसलिंग थ्रश पक्षी दिखाई दिये. अभिजय का कहना है जल्दी चलो, जल्दी चलो देर हो जाएगी. उसे 3 बजे देहरादून किसी बैठक में पहुंचना है. हम आगे बढ़ते हैं, यहाँ घाटी काफी पतली हो गयी है. ऊपर दूर आसमान की तरफ मसूरी के पिछले हिस्से में बने मकानों की दीवार दिख रही है. लगभग आधा किमी. चलने पर हमने देखा नदी फिर दो हिस्सों में बंट गयी है. यहाँ थोड़ी देर रूकते हैं, अभिजय एक वीडियो बना रहे हैं और बारी-बारी से सभी साथियों से नदी की सेहत और अनुभव के बारे में अपना इंटरव्यू दे रहे हैं. यही वीडियो उन्होंने फेसबुक पर लाइव किया.वॉटर
सूचना क्रान्ति के इस दौर में कम से
कम मोबाइल और विभिन्न प्रकार के नेटवर्क कनैक्शन जो ज्यादातर स्पीड की बात बताते हैं. उनको मन में रखते हुए मैं सोच रहा हूँ इस बीहड़ घाटी में हमारे चलने की स्पीड काफी कम है. यहीं पर टीम यह सोच रही है अब दायें जाया जाए या बायें जाया जाए. बायीं तरफ जो घाटी है वो चैड़ी जरूर है लेकिन उसमें कचरा ज्यादा है और पानी का स्तर कम है. जो धारा हमारे दाहिनी ओर है उसमें अब कचरा ना के बराबर है लेकिन पानी अधिक है. थोड़ा पीछे की एक बात बताना भूल गया- अभिजय परेशानी में फंस गये हैं, चट्टानों पर कूदते हुए वो डिसफंक्शन ऑफ वार्डरोब का शिकार हो गये. उनकी पैंट धोखा दे गयी. शार्दुल, हुदयेश और विजय प्रताप मजे ले रहे हैं.वॉटर
सब थके हुए हैं लेकिन हंस रहे हैं.
अब क्या किया जाए. मैंने कहा चिन्ता मत करो मेरे पास कैमरा बैग में एक स्पेयर लोअर है. (आज से पहले मैं कभी भी एक दिन के ट्रैक पर एक्सट्रा लोअर नहीं ले गया था पर ये सोच कर लोअर रख लिया था कि ट्रैक करते हुए अगर गर्मी हुई तो मैं विंड प्रूफ लोअर को चेंज कर लूंगा.) अब वो लोअर अभिजय पहनकर आगे-आगे चल रहे हैं.वॉटर
घाटी बहुत संकरी, लगभग 10-12 फीट से भी कम हो गयी है. सौ मीटर जाने के बाद ऐसा लग रहा है जैसे आगे ये गाड़ या नदी संकरी गुफा से निकल रही हो.
हमारे दाहिनी ओर पहाड़ी का काफी बड़ा हिस्सा यू के आकार में कटा हुआ है. और इसमें यू के आकार की ही पतली घाटी बन गयी है. वो आगे थोड़ा डरावनी सी लग रही थी.
वॉटर
चलिए हम कहाँ थे, संभवतः रिस्पना इन प्रमुख
जलधाराओं के पहले संगम पर यानि अगर हम देखें तो इस जलधारा का यह पहला बड़ा संगम माना जा सकता है. तो उत्तर दिशा की ओर से बहकर आ रही ये जलधारायें यहाँ पर मिल रही हैं. दायीं ओर की जलधारा में अधिक पानी है. हम उसी दिशा में बढ़ चलते हैं. घाटी बहुत संकरी, लगभग 10-12 फीट से भी कम हो गयी है. सौ मीटर जाने के बाद ऐसा लग रहा है जैसे आगे ये गाड़ या नदी संकरी गुफा से निकल रही हो. हमारे दाहिनी ओर पहाड़ी का काफी बड़ा हिस्सा यू के आकार में कटा हुआ है. और इसमें यू के आकार की ही पतली घाटी बन गयी है. वो आगे थोड़ा डरावनी सी लग रही थी.वॉटर
नदी के बीच मे खड़े होने पर मैंने आभास किया कि बरसात में यह नदी तकरीबन 20-25 फीट ऊँची लेकिन संकरी घाटी में तेज बहाव लिए बहती होगी यानि उन दिनों इसका दृश्य बेहद
भयावह और खतरनाक होता होगा. मैंने अपने बायें हाथ की तरफ चट्टान पर इस वर्ष की बरसात के पानी के बहाव के निशान देखे तो मुझसे 5-6 गुना ऊँचाई तक बने थे. जबकि जिस संगम को हम पीछे छोड़ आए थे उस घाटी में बहकर आ रही नदी का मार्ग काफी चैड़ा लेकिन बहुत कचरे से भरा हुआ था. यही कारण रहा कि मैंने अपने साथियों से दायें यानि पूरब और ऊपर की दिशा में चढ़ने का सुझाव रखा.नदी का मार्ग संकरा और भयावह हो गया था. यह दृश्य देहरादून के गुच्चु पानी की तरह ही लग रहा था. चट्टानों की बनावट मिलती जुलती थी. ये चट्टानें कमेड़े या चूने
जैसी लगती हैं. तो सोचा झाड़ियां पकड़कर टीले पर पहुँचकर दूसरी ओर देखें. ठीक टीले पर बांज, बुरांस, अयांर और काफल के पेड़ सीधे आसमान छूने को बढ़े चले जा रहे हों.
वॉटर
अभिजय उस मुख्य धारा में थोड़ी
दूर तक गये. जबकि विजय प्रताप और शार्दुल बायें तरफ की घाटी में थोड़ा आगे की तरफ गये. मैं वहीं उस पहले संगम पर फोटाग्राफी करता रहा. विजय शाही पानी में पड़े पत्थरों से खेलने लगा. जब सारी टीम ने आपस में सहमति बना ली कि चलो दायीं पूरब वाली दिशा में चलते है तो हमारे सामने वो यू आकार की घाटी आ गयी. जिसके बारे में मैंने ऊपर बताया है. नदी का मार्ग संकरा और भयावह हो गया था. यह दृश्य देहरादून के गुच्चु पानी की तरह ही लग रहा था. चट्टानों की बनावट मिलती जुलती थी. ये चट्टानें कमेड़े या चूने जैसी लगती हैं. तो सोचा झाड़ियां पकड़कर टीले पर पहुँचकर दूसरी ओर देखें. ठीक टीले पर बांज, बुरांस, अयांर और काफल के पेड़ सीधे आसमान छूने को बढ़े चले जा रहे हों. अब धूप हमें दिखने लगी थी.वॉटर
गहरी हरी पत्तियों वाली देव रिंगाल की झाड़ियां खूब दिखाई देने लगती है. पांव के नीचे की जमीन में जंगल की पत्तियों की खाद पर कदम पड़ते ही गुदगुदाहट का अनुभव
होता है. एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इस घाटी में कहीं भी मॉसी फॉल के बाद अभी तक हमें कोई रूखापन, बड़ा लैंडस्लाइड, जंगल की आग, अवैध कटान हमें दिखाई नहीं दिये.
वॉटर
पेड़ों के बीच से जो भवन पश्चिमी
दिशा में ऊपर दिखाई दे रहे थे, बाद में पता चला; वो वाईनबर्ग एलन की स्टेट है. टीले में पीछे की तरफ देखते हैं नदी में पानी गायब है. अभिजय जोर से चिल्लाते हैं बस यहीं से पानी है आगे कुछ नहीं है. शाही कहते हैं अबे ये नदी ढूंढ ही ली हमने आखिर.वॉटर
पर जमीन पर किसी भी तरह के रास्ते के कोई निशान नहीं है. मसूरी के पिछले हिस्से की सड़क जो सुवाखोली, धनौल्टी की ओर जाती है उसी को ध्यान में रखते हुए मैं सभी को कहता हूँ- हम दायें ओर ऊपर चलेंगे. शाही अभी आगे चल रहे हैं. गहरी हरी पत्तियों वाली देव रिंगाल की झाड़ियां खूब दिखाई देने लगती है.
पांव के नीचे की जमीन में जंगल की पत्तियों की खाद पर कदम पड़ते ही गुदगुदाहट का अनुभव होता है. एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इस घाटी में कहीं भी मॉसी फॉल के बाद अभी तक हमें कोई रूखापन, बड़ा लैंडस्लाइड, जंगल की आग, अवैध कटान हमें दिखाई नहीं दिये. क्या लोग या घसियारियां यहाँ नहीं आती होंगी.वॉटर
थोड़ा ऊपर चढ़ते ही शार्दुल को एक मरे हुए बंदर की खोपड़ी मिलती है. विजय प्रताप उसे हाथ में लेकर फोटो शूट करवाता है. और मेरा पूरा ध्यान रिंगाल की झाड़ियों पर है.
यहाँ पर रिंगाल के पौधों के साथ फोटो सेशन करने के बाद हम आगे चल रहे है. शाही ने कह दिया आगे कोई रास्ता नहीं है. अब साथियों को भूख भी सताने लगी थी. हालांकि विजय प्रताप ने मॉसी फॉल के पास और इस घाटी में प्राइवेट स्कूल की पानी की सप्लाई के लिए बने वॉटर पम्प के आसपास बिस्किट खिलाये थे. पर अब शायद बिना नाश्ते के काफी टाइम हो गया. तीन दिन पहले हनुमान चैक से खरीदा गया खजूर का पैकेट मेरे बैग में था. वो हमने बांटकर खाना शुरू किया. पानी की एक छोटी बोतल सिर्फ मेरे पास थी. थोड़ा-थोड़ा पानी सभी गटकाते हैं.सौ डेढ सौ मीटर जाने
पर दाहिनी ओर कुछ ताजी लेकिन पूरी तरह सूखी हुई लकड़ियां रखी हैं जिससे यह लगता है. यहाँ लोग जलौनी लकडी लेने आते होंगे. लेकिन जमीन पर किसी तरह की पगडंडी के निशान नहीं हैं. एक दो जगह मुझे घुरड़ (बार्किंग डिअर) का गोबर भी दिखा. जिससे मुझे इस जंगल में उनके होने का प्रमाण मिला.
वॉटर
अब मैं आगे बढ़ गया हूँ और ऊपर जाकर रास्ता ढूंढने की कोशिश कर रहा हूँ. सौ डेढ सौ मीटर जाने पर दाहिनी ओर कुछ ताजी लेकिन पूरी तरह सूखी हुई लकड़ियां रखी हैं जिससे यह लगता है. यहाँ लोग जलौनी लकडी लेने आते होंगे. लेकिन जमीन पर किसी तरह की पगडंडी के निशान नहीं हैं. एक दो जगह मुझे घुरड़
(बार्किंग डिअर) का गोबर भी दिखा. जिससे मुझे इस जंगल में उनके होने का प्रमाण मिला. अब और ऊपर बढ़ने पर चढ़ाई सीधी खड़ी हो गयी है तो मैंने सभी को कहा जिगजैग चलो सीधे चढाई पर नहीं. तकरीबन दो सौ मीटर ऊपर जाने पर देखता हूँ विजय प्रताप सबसे नीचे छूट गया है. उसने गरम टोपी उतार दी है.वॉटर
यहाँ पर पेड़ों की 2-3 ताजी
कटी हुई टहनियां दिखती हैं, यानि हम सही दिशा में जा रहे हैं. क्योंकि यहाँ आसपास से जरूर कोई लकड़ी काटने या घास लेने आता होगा यानी बसकत नजदीक है . ये अब तक इस ट्रेक का सबसे कठिन रास्ता होगा. यहाँ चढाते वक्त नंदा देवी राज जात की नकचोढ़ी धार और रूपकुंड से ऊपर ज्युरागली की याद आ गयी.आगे अभी जारी है अंतिम किश्त ……