रिस्पना की खोज में एक यायावर…

नदियों से जुड़ाव का सफर वर्ष 1993 में रिस्पना नदी से आरम्भ हुआ तो फिर आजीवन बना रहा. DBS  कॉलेज से स्नातक और बाद में DAV परास्नातक, पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान भी रिस्पना पर शोध कार्य जारी रहा. हिमालय की चोटियों से निकलने वाली छोटी-बड़ी जलधाराएँ- धारा के विपरीत बहने की उर्जा ने मुझे देहरादून की नदियों और जलधाराओं के अध्ययन के लिए वर्ष 1996-1997 से ही प्रेरित किया. जलान्दोलन के तहत पूरे उत्तराखंड में पनचक्कियों के संरक्षण, जलधाराओं को प्रदुषण मुक्त रखने- पहाड़ के हर गाँव में सिंचाई के साधन उपलब्ध कराने को लेकर- जलान्दोलन के तहत- पदम् भूषण डॉ. अनिल प्रकाश जोशी जी के नेतृत्व में गंगोत्री से दिल्ली पदयात्रा का समन्वयन किया.
पहाड़ के प्राकृतिक जल संसाधनों और जंगल और जमीन के मुद्दे पर सदैव सक्रिय रहे. शराब विरोधी आन्दोलन की वजह से मुकद्दमे झेले और जेल भी जाना पड़ा. आज भी जनपद चमोली, देहरादून, बागेश्वर, रुद्रप्रयाग में युवाओं के लिए स्वरोजगार के कार्यक्रमों के तहत 23 वर्षों से संघर्षरत हैं. चमोली जिले के पीपलकोटी नामक कस्बे में जन्म हुआ. वनस्पति विज्ञान, समाज शास्त्र और पत्रकारिता की पढाई की और कालांतर में पीपलकोटी में प्रदेश के पहले बायो टूरिज्म पार्क की स्थापना की है. ट्रैकिंग, लेखन, शोध पत्रकारिता, बागवानी और फोटोग्राफी के साथ करीबी रिश्ता है.

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रिस्पना की खोज में… भाग -1

  • जे.पी. मैठाणी

ये जनवरी की बेहद सर्द सुबह है कल रात सोने से पहले मिशन रिस्पना के व्हाट्सएप ग्रुप पर एक मैसेज आता है कि कल सुबह यानी 3 जनवरी 2018 को प्रातः पौने छः बजे मसूरी डाइवर्जन because पर इकट्ठा होना है. मन में बहुत ज्यादा तैयारी नहीं थी. लेकिन मैड के साथियों ने इस बार रिस्पना नदी की प्रमुख सहायक नदी जो मसूरी से आती है को एक्सप्लोर करने के लिए मॉसी फॉल से ऊपर जहाँ तक संभव हो यानी वुडस्टॉक स्कूल के घने बांज, बुरांस, के जंगल के पास तक जाने का निर्णय लिया था. मैं भी इसी उत्साह हो मन में रखते हुए आखिरकार अचानक प्लानिंग कर रात को अपना बैग पैक कर लेता हूँ.

बुरांस

कैमरे की बैटरी, ग्लव्स, पैन, डायरी, एक एक्सट्रा लोअर अपने कैमरा बैग में फिट कर सो जाता हूँ. सोने से पहले सोच रहा हूँ जून 2016 के बाद संभवतः यह एक टफ ट्रैक होगा. क्योंकि because मुझे बताया गया कि रिस्पना की प्रमुख जलधारायें वुडस्टाक स्कूल के सघन बांज जंगलों से पानी समेटते हुए नीचे आती है. अनीता को अलार्म लगा देने की गुजारिश के साथ ना जाने कब सो गया.

बुरांस

सुबह चाय की दस्तक के साथ थोड़ी देर बाद तैयार होकर निकलता हूँ. कैमरा बैग के पीछे नी-कैप, कुछ दवाईयां, because पानी की बोतल लेकर घर से निकला हूँ. कॉलोनी की पीली नियोन लाईट कोहरे की धुंध में हल्की हो गयी है. गढ़ी कैन्ट से राजपुर रोड तक लोग अलग-अलग दिशाओं में जॉगिंग, मॉर्निंग वॉक कर रहे हैं. अचानक एक्टिवा में तेल के मीटर की सुई पर but ध्यान जाता है. ओह! तेल तो कम है, पर मुझे ध्यान था कि; मैं मसूरी तो पहुँच ही जाऊँगा. बार-बार सोच रहा हूँ मिलने का समय 5.45 का दे रखा है, सब लोग पहुँच गए होंगे. कहीं वो लोग सीधे आगे ना चले जाएं. जाखन में पहुँचते ही देखता हूँ. दाहिने हाथ पर खुला पेट्रोल पम्प चालू है.

बुरांस

दो सौ रूपये का पेट्रोल भरवा कर बिल लेता हूँ और मसूरी डाइवर्जन पर 1-2 साल पहले बनी विशालकाय पैसिफिक हिल्स के मार्केट के आगे खड़ा हो गया हूँ. अंधेरा अभी घटाटोप है. because आते-जाते वाहनों की लाईट में सुबह का कोहरा भाप-सा बनकर उड़ता हुआ दिखाई दे रहा है. पांच मिनट रूकने के बाद मैड के अभिजय को फोन करता हूँ, पता चलता है कि वे अभी तक आए ही नहीं. पौने सात बजे मैंने पेट्रोल पम्प पर तेल भरवाया जिसका प्रमाण बिल की पर्ची है.

बुरांस

आजकल ये अच्छा है पेट्रोल पम्प के बिल कम्प्यूटराईज्ड होने की वजह से समय भी दर्ज कर लेता है. 10 मिनट के बाद दो मोटरसाईकिल पर मैड के 4 युवा साथी अभिजय नेगी,because  शार्दुल असवाल, हृदयेश शाही और विजय प्रताप सिंह पहुँचते हैं. वो जोर से चिल्लाकर कहते हैं सामने देखो कॉफी की दुकान खुल गयी है. मैंने उन्हें बताया ये अभी 5 मिनट पहले खुली है. इसका मतलब कॉफी काफी देर में मिलेगी. तो समय बर्बाद न किया जाए.

बुरांस

मैं पूरी तरह ग्लव्स, इनर, because जैकेट, मफलर,  टोपी, हैलमेट पहन के आया हूँ. और एक ये हैं कि मुंह पर रूमाल बांधा है, हाथ में ग्लव्स नहीं, लोअर के नीचे शायद थर्मल भी नहीं. सोच रहा हूँ पुराने दिनों के बारे में जब हम भी ऐसे बिना किसी अच्छी तैयारी के कहीं भी घूमने ट्रैकिंग या मेले त्यौहारों में चल देते थे. अंधेरा धीरे-धीरे छंट रहा है. रास्ते भर सड़क  के किनारे ढाबे, मैगी प्वॉइन्ट्स ठंड में सिकुड़े हुए और बंद हैं.

बुरांस

इन चारों साथियों को देखकर लग रहा है, ये अजीब पागलपन है. मैं पूरी तरह ग्लव्स, इनर,  जैकेट, मफलर,  टोपी, हैलमेट पहन के आया हूँ. और एक ये हैं कि मुंह पर रूमाल बांधा है, because हाथ में ग्लव्स नहीं, लोअर के नीचे शायद थर्मल भी नहीं. सोच रहा हूँ पुराने दिनों के बारे में जब हम भी ऐसे बिना किसी अच्छी तैयारी के कहीं भी घूमने ट्रैकिंग या मेले त्यौहारों में चल देते थे. अंधेरा धीरे-धीरे छंट रहा है. रास्ते भर सड़क  के किनारे ढाबे, मैगी प्वॉइन्ट्स ठंड में सिकुड़े हुए और बंद हैं.

बुरांस

मसूरी की सर्पीली सड़कों से देहरादून अभी साफ नहीं दिखाई दे रहा है. आसमान में चाँद चमक रहा है. पूरब की तरफ से कुछ उजाला घाटी में फैलने को बेताब है. पानी वाला मोड़ से आगे मसूरी झील, चुंगी और चूना खान पर हम दायीं ओर झड़ीपानी वाली सड़क पर निकल जाते है. यहाँ पहुँचने तक अंधेरा छंटने लगा है झड़ीपानी में  because कमल कॉटेज से आगे बढ़ते हैं. रास्ता पतला हो गया है. बार्लोगंज में पहुँचते ही विजय प्रताप जो टीम को लीड कर रहे हैं कहते हैं सामने सीधी चढ़ाई वाली सीमेन्ट रोड पर जाना है. मुझे तो लगा यहाँ एक्टिवा चढ़ ही नहीं सकती. एक-दो तीखे मोड़ों के बाद आखिर बात सच हो गयी. मोटरसाईकिल आसानी से आगे बढ़ चुकी है.

बुरांस

यहाँ से सीधे डेढ़ किमी की because ढलान उतरने के बाद मॉसी फॉल पहुँचा जा सकता है. इस ढलान पर उतरना बहुत मुश्किल सा लग रहा है. क्योंकि देहरादून से यहाँ आने तक शायद घुटने अकड़ गये हैं. रास्ते में आते एक ग्रामीण से मॉसी नदी के पार पूरब में बसे गाँव का नाम पता चला कि वो खेतवाल गाँव है. 

बुरांस

जब एक्टिवा रूक ही गयी तो मैं उतर कर एक्टिवा को तीव्र चढ़ाई पर दौड़ाने लगा. देखा सामने से शार्दुल असवाल मुझे लेने वापस पीछे आ रहा है. उन्हें पहले से शायद  पता था यहाँ because एक्टिवा नहीं चढ़ सकती. वाईनबर्ग एलन स्कूल स्टेट से पहले सेंट जॉर्जेस, जे पी होटल और जास डी रिसॉर्ट (जहाँ मैं और अनीता 2003 में शादी के बाद दो दिन रूके थे) से आगे बढ़ते हुए सड़क के उस पार अचानक देखते हैं शानदार सूर्योदय हो रहा है. यहाँ हम कुछ देर रूकते हैं उजाला हो गया है. पर सड़कों पर चहल-पहल अभी भी कम है.

बुरांस

अब अचानक टीम और पतली सीमेन्ट की सड़क पर जो सड़क कम पगडंडी ज्यादा दिखाई देती है पर मॉसी फॉल जाने के रास्ते में आगे ढाल पर अपनी-अपनी गाड़ियां खड़ी कर देते हैं. because यहाँ से सीधे डेढ़ किमी की ढलान उतरने के बाद मॉसी फॉल पहुँचा जा सकता है. because इस ढलान पर उतरना बहुत मुश्किल सा लग रहा है. क्योंकि देहरादून से यहाँ आने तक शायद घुटने अकड़ गये हैं. रास्ते में आते एक ग्रामीण से मॉसी नदी के पार पूरब में बसे गाँव का नाम पता चला कि वो खेतवाल गाँव है.

बुरांस

खेतवाल गाँव की ये तेज ढलान वाली सीमेन्ट की सड़क पर उतरते ही मन में सोचा इस तीखी ढलान पर पहाड़ी काट-काट कर सरिया और सीमेन्ट के पिल्लरों पर घर टिकाए गये हैं. बार्लोगंज के आस पास का पूरा एरिया बहुत घनी बसाकत वाला है. लेकिन घरों की नेम प्लेट पढ़ने पर अजीब अजीब से नाम और एस्टेट जान पड़ते हैं. इस because सीधी ढाल वाली सड़क पर नीचे जाकर देखता हूँ रिस्पना की सहायक इस नदी जिसको मॉसी कह रहे हैं के दाहिने तट पर कारें खड़ी हैं. इतनी ढाल वाली सड़कें जो मैंने पहली बार देखीं मैं सोचता रहा इन सड़कों पर पूरा सीमेन्ट लगाने पर तो ये सड़कें बरसात और बर्फबारी के दौरान तो स्कींइग स्लोप जैसे बन जाती होंगी. बुजुर्ग और बच्चों के लिए इन सड़कों पर चलना बेहद चुनौतीपूर्ण रहता होगा.

बुरांस

अब सड़क काफी पतली हो गयी है. मेरे दाहिनी ओर से एक पुल खेतवाल गाँव जाने के लिए बना है. और ठीक बांयी ओर मुझे पीले फूल वाली रात की रानी जैसे पत्तों वाली झाड़ियां खूब उगी है. because यहाँ भी लैन्टाना, यूपेटोरयम फैला हुआ है हालांकि गाजर घास बिल्कुल नहीं दिखाई दी. झाड़ियों में रेड वेन्टेड बुलबुल, येलो वेन्टेड बुलबुल और कॉमन मैना, स्पॉटेड डव (घुघुति), इंडियन ग्रे हॉर्नबिल चिड़िया मॉसी फॉल तक पहुँचने पर ही दिखाई दे गयी थी. यानी ये इस बात का प्रमाण था कि इस घाटी में हिमालयी क्षेत्रों के काफी पक्षी वास करते होंगे. ये सब देखते हुए अब हम मॉसी फॉल पहुँच गये हैं. नदी में काफी पानी है जो बिल्कुल साफ दिख रहा है.

बुरांस

हमारा मुंह लाल टिब्बा की ओर है. दाहिनी ओर सामने शिवालय बना हुआ है. उसके बगल में टिन के छत वाली सफेद लम्बी सी कुटिया है. कुटिया के बगल से एक जलधारा आ रही है जिसमें 12 because से 14 इंच पानी होगा. उस पानी से भाप उठ रही है.  इस नदी के बायीं ओर यानी पूरब की दिशा में शिव भक्तों ने या आधुनिक पुजारियों ने शिव मंदिर का निर्माण किया हुआ है.  मंदिर के आगे से पत्थरों से बने हुए लगभगbecause  2-2 फीट के मोटे तीन पिल्लर खड़े हैं जिनके ऊपर से लगभग 5 इंच मोटे पाईपों की बनी पानी की सप्लाई नीचे को जा रही है. इन पाईपों पर 1986 लिखा हुआ है. जिससे यह जान पड़ता है कि इन पाईपों का निर्माण 1986 में हुआ होगा. लेकिन ये पेयजल लाईन बनी कब होगी, इसके बारे में हमें कोई जानकारी नहीं हो पायी.

बुरांस

शिव मंदिर में या बगल की कुटिया में कोई नहीं दिखा. शिव मंदिर में असामान्य रूप से अलग प्रकार के पत्थरों से बना शिवलिंग रखा गया है. और हास्यास्पद तो ये लगा कि; इसके ठीक because ऊपर चट्टानों का सीना फोड़कर बाहर आती साफ पानी की तीव्र जलधारा को तार और सरिया से बांध कर स्टील के सिंक के सहारे प्लास्टिक के पाईप से शिवलिंग पर गिराया जा रहा है. यहाँ भी धार्मिक मंदिरों के नाम पर जमीन कब्जाने और उसे श्रद्धा का लबादा ओढ़ाया जा रहा है. नदी में  उतरकर देखते हैं, रेत बजरी के लिए मुख्य धारा पर बनाये गये सीमेन्ट के चैकडैम के बीच खनन जारी है और बजरी-रोड़ी इकट्ठी की गयी है. यहाँ से भी शायद आसपास के निर्माण कार्यों के लिए रेत बजरी खोदी या निकाली जाती होगी.

बुरांस

मॉसी फॉल के इस दृश्य को देखकर मन में बहुत उदासी हुई धारा के ऊपर की ओर जहाँ से वो बहकर आ रही है. शायद 15-16 फीट का एक झरना होगा, जिसमें दाहिनी ओर का because मुख्य झरना सूखा हुआ था. पानी का स्तर काफी कम है. यहाँ पहले बरसात में आ चुके विजय प्रताप के पुराने फोटो की तुलना में आज का दृश्य बिल्कुल अलग और बेकार सा लगा. लेकिन क्योंकि हम घर से इन नदियों की थाह या जानकारी लेने आए थे और हमको अभी काफी आगे तक जाना था.

बुरांस

अभी धूप का कहीं नामोनिशान नहीं है. यह जगह लगभग 1200 मीटर के आसपास की ऊँचाई पर होगी. लेकिन यहाँ मुझे बांज के पेड़, जलधारा के साथ शैवाल, इक्विसीटम, श्यांरू, because औंस घास, लैन्टाना, किंगोड़, हिंसोल और कुछ ऐसे पेड़-पौधे भी थे जिनके मुझे नाम पता नहीं हैं. हम नदी की जलधारा के दाहिनी तट पर ऊपर को बढ़ रहे हैं. नदी हमारे साथ-साथ बाई ओर से देहरादून की ओर बिना शोर मचाए चली जा because रही है. लगभग 3-4 सौ मीटर जाने के बाद अचानक जंगल में एक पगडंडी सी उभर गयी है. आगे हमारी बायीं ओर देखते हैं हरे रंग से पुता एक बड़ा आलीशान सा लोहे का गेट दिखाई दे रहा है. इसके पीछे बायीं ओर 6-7 फीट चैड़ी एक सड़क ऊपर को निकल गयी है. हमने सोचा ये वन विभाग द्वारा बनाया गया होगा. लेकिन इसके बारे में आपको आगे बतायेंगे.

बुरांस

नदी में रास्ता स्पष्ट नहीं है. एक जगह इस बड़ी जलधारा को पार करते हैं तो देखते हैं सारी नदी में प्लास्टिक, पॉलिथीन, मिनरल वॉटर की बोतलें, थर्माकॉल, पूजा सामग्री नदी में बहकर आयी है because और ये सारा कूड़ा कचरा पुरानी टहनियों, झाड़ियों की जड़ों में अटकी हुई है. यहाँ यह कहना अनुचित नहीं होगा कि ये नदी यहाँ भी मर रही है. जहाँ ऊपर हमने एक्टिवा और मोटरसाईकिल खड़ी की है. वहाँ से उतरते वक्त मुझे बताया गया है जिसका हमारे ग्रुप में किसी को नाम पता नहीं था, इसकी नदी ही मॉसी है. मैंने यह अनुमान लगा लिया था कि इस गदेरे या नदी की पूर्वी दिशा मे छोटी छोटी पहाड़ियां हैं. और एक लम्बा विस्तार घने हरे जंगल का है जो ऊपर टॉप में शायद टी.वी. टावर तक जा रहा है.

बुरांस

इसका आशय यह है कि नदी में जाते वक्त हमको ऊपर चढ़ते समय अपने दायीं ओर लेकिन नदी के बायीं ओर चलना है. यही बात मन में सोचकर हम नदी में घुस गये. यहाँ जहाँ नदी का पानी बेहद साफ है लेकिन नदी ने अपने बरसाती बहाव के समय जलधारा में छोटी-छोटी गहरी खाल यानी तलाइयां बना दी हैं, वहाँ लकड़ी के टुकड़े because और थर्माकोल जो घूम घूम कर काले पड़ गये हैं; भरे हुए हैं. पूजा की मौली के धागे, पैकिंग के प्लास्टिक यहाँ  बहुतायत हैं. अभी हम आपस में बात कर रहे थे और फोटाग्राफी में व्यस्त थे तभी एक ग्रामीण ऊपर से आते हुए दिखाई देते हैं. उसने नदी पार की है, हमने उसे ऊपर की तरफ जाने का रास्ता पूछा. उसने कहा कि- ये रास्ता सीधा जा रहा है, नदी के साथ-साथ ही जाना ज्यादा इधर-उधर मत जाना.

सभी फोटो जे.पी. मैठाणी

ऊपर आगे पानी के टैंक हैं और शमशान घाट भी है. 7-8 किमी0 चलोगे तो मसूरी आ जाएगा. उससे विदा लेकर हम नदी के दायीं ओर से आगे बढ़ने लग गये हैं. घनी घाड़ियों के बाद अचानक फिर because तकरीबन डेढ सौ मीटर तक पगडंडी दिखाई दे रही है जिसके किनारों पर सफेद कटे हुए पत्थर और बीच-बीच में एक निश्चित दूरी पर सीमेन्ट के पाईप दिखाई दे रहे हैं. ऐसा लग रहा है जैसे कोई पुराना ट्रैकिंग रूट हो. अचानक वो पगडंडी गायब हो जाती है. झाड़ियों के बीच से घुसते हुए हम देखते हैं नदी के पार जी0आई0 पाईप लाईन नदी के साथ-साथ चल रही है. मेरे साथ जो साथी हैं उन्होंने अपने मोटरसाईकिल के हैल्मेट भी साथ लिए हुए हैं जिससे उनके हाथ खाली नहीं है.

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