जवाबदेही की अविस्मरणीय यात्रा – अंतिम किस्त
- सुनीता भट्ट पैन्यूली
वक़्त की हवा ही कुछ इस तरह से बह रही है
कि किसी अपरिचित पर हम तब तक विश्वास नहीं करते जब तक कि हम आश्वस्त नहीं हो जायें कि फलां व्यक्ति को हमसे बदले में कुछ नहीं चाहिए वह नि:स्वार्थ हमारी मदद कर रहा है.सत्य
अमूमन ऐसा होता नहीं है कि किसी प्रोफेसर
के घर जाने की नौबत आये, कालेज के सभी कार्य और प्रयोजन कालेज में ही संपन्न कराये जाते हैं. छात्र और छात्राओं को प्रोफेसर के घर से क्या लेना-देना? ख़ैर अत्यंत असमंजस में थी मैं असाइनमेंट जमा करवाने को लेकर.यदि दीदी साथ न होती तो मेरी इतनी हिम्मत
नहीं थी कि सब कुछ ताक पर रखकर अकेले ही चली जाती प्रोफेसर के पास असाइनमेंट जमा करवाने.सत्य
किंतु यहां पर इस परिदृश्य में मेरी
स्थिती अलहदा है स्वयं को मैंने जज़्ब किया है कि मुझे फाईनल परीक्षा देनी है. आखिरी सेमेस्टर है, परीक्षा से पहले असाइनमेंट जमा करवाने ज़रूरी हैं इसके लिए चाहे मुझे असाइनमेंट जमा करवाने हेतु प्रोफेसर के घर ही क्यों न जाना पड़े.सत्य
संशय के बादल हमारे सिर पर टकरा रहे
थे उन प्रोफेसर से फोन पर ही पूछते हुए हम दोनों उनके घर के दरवाजे पर खड़े हो गये. मैंने डोर बैल बजायी, एक अधेड़ लंबे-चौड़े सफेद-कुर्ता पायजामा पहने आदमी ने दरवाज़ा खोला. मैंने डरते-डरते अपना परिचय दिया आने का कारण बताया यह सुनते ही बड़ी ग़र्मजोशी से उन्होंने हमारा स्वागत किया आईये..आईये कहकर अपने ड्राइंग रूम में ले गये. मैं और दीदी हम चले तो गये थे प्रोफेसर अरोड़ा (काल्पनिक नाम) के घर किंतु हम दोनों ही अत्यंत सचेत थे. प्रोफेसर से लेकर उनके घर के चारों तरफ हमारी नज़रें थी. वैसे मेरी अपेक्षा के विरूद्ध वह हमसे कभी देश, विदेश, ज्ञान-विज्ञान की बातें कभी समाज, व्यवहारिकता की बात करते कभी कालेज से संबंधित बात तो कभी अपने अनुभव शेयर करते, धीरे-धीरे दीदी और मुझे उनका चरित्र समझ आने लगा, मेरा भ्रम अपरिचितों के प्रति कभी विश्वास न करने का भरभराकर बहुत ज़ल्दी ही टूट गया जब मैंने उनको किसी को आवाज़ लगाते सुना कमरे में आकर चाय लाने के लिए.सत्य
बेटी के हाथ में चाय की ट्रे
थी साथ में नमकीन और बिस्किट से भरी रका़बियां थीं मन में मैंने सोचा इतनी मेहमान नवाज़ी..? माज़रा क्या है? क्या करूं इस पूरे एपिसोड में मेरी आंखों पर विश्वास और अविश्वास का रंग चढ़ रहा और उतर रहा था. क्या करुं? गिरगिट की तरह रंग बदलने पर मज़बूर हो रही थी मैं अपने समकक्ष विभिन्न परिस्थितियों के आने और जाने पर.
सत्य
कमरे में दो स्त्रियां दाख़िल हुईं उनमें
एक प्रौढ व एक युवती नज़र आ रही थीं. मैंने यह अंदाजा लगाया उनमें एक प्रोफेसर सर की वाइफ और एक शायद उनकी बेटी थीं.पढ़ें- सहारनपुर जाने वाली बसों की हड़ताल सुनकर…
बेटी के हाथ में चाय की ट्रे थी साथ में नमकीन
और बिस्किट से भरी रका़बियां थीं मन में मैंने सोचा इतनी मेहमान नवाज़ी..? माज़रा क्या है? क्या करूं इस पूरे एपिसोड में मेरी आंखों पर विश्वास और अविश्वास का रंग चढ़ रहा और उतर रहा था. क्या करुं? गिरगिट की तरह रंग बदलने पर मज़बूर हो रही थी मैं अपने समकक्ष विभिन्न परिस्थितियों के आने और जाने पर.सत्य
उम्मीद से परे रहा मेरे असाइनमेंट जमा
करने का अनुभव,प्रोफेसर अरोड़ा की पत्नी और बेटी भी बहुत मिलनसार थीं अरोड़ा सर की पत्नी की सदाशयता मुझे और प्रगाढ महसूस हुई जब उन्होंने मुझसे कहा हमारा घर कालेज के पीछे है जब कभी हमारी ज़रूरत हो नि:संकोच हमसे मिलने आ जाना.इतना शरीफ़..नि:स्वार्थ कोई कैसे हो सकता है ?मैं और दीदी घर वापस लौटते हुए सोच रहे थे.पढ़ें- मन में अजीब से ख़्याल उपज रहे थे…
सत्य
आख़िर भ्रम और भय के भंवर के मध्य मेरे
फाइनल परीक्षा के असाइनमेंट जमा हो गये थे. मेरे लिए यह हर्ष और तसल्ली भरी बात थी.सत्य
अप्रैल के बाद मई का उदास व आलस भरा
महीना भी आ गया है और मेरी फाइनल परीक्षा भी. मैं अपने कोर्स की फाइनल परीक्षाओं के लिए दिन और रात एक कर पढ़ाई कर रही हूं. घर के बाहर मई में चलने वाले तूफान की सरसराहट है,दोपहर का भोजन खाकर घर के सभी अन्य लोग झोंके भरी नींद ले रहे हैं. मैं भी जम्हाई लेती हुई कभी उठकर किताब हाथ में लेकर खिड़की के पास खड़ी हो जाती हूं कभी बैठकर पढ़ाई कर रही हूं.इस दौरान ज़्यादा कुछ अनुभव नहीं रहा मेरे पास लिखने के लिए सुकून भरी बात यह थी कि मेरी फाइनल परीक्षायें अबकि बार अबाध व सुचारू रुप से चलीं .सत्य
एक दिन यूं ही चेक किया नेट पर तो
मालूम हुआ राजर्षि टंडन युनिवर्सिटी के सभी परिक्षाओं के परिणाम निकल चुके हैं मुझे जानकर बहुत हैरानी व घबराहट हुई, अपनी मार्कशीट देखने की कोशिश की नेट पर लेकिन वहां नहीं दिखाई दे रही थी सोचा राजर्षि टंडन यूनिवर्सिटी में फोन करती हूं तो वहां आफिस से पता चलता है कि उन्होंने कालेज में मार्क शीट भेज दी है. दूसरे दिन हेड आफ द डिपार्टमेंट मल्होत्रा सर को फोन किया तो उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा यहां तो नहीं पहुंची है आपकी मार्कशीट.
सत्य
सभी पेपर ईश्वर की कृपा से संतोषजनक रूप
से हुए थे अब बस बेसब्री से मुझे इंतज़ार था तो परीक्षा परिणाम का.सत्य
एक महिना बीता दो महिना बीता अब तो
मुझे पूरी उम्मीद थी कि मेरा रिजल्ट एक दो दिन में आ ही जायेगा. नेट पर भी देख रही थी लेकिन वहां अभी तक कोई सूचना नहीं थी, इंतज़ार करते करते अषाढ़ बीत गया फिर सितंबर और फिर अक्टूबर आया अब मुझे उकताहट होने लगी, एक दिन यूं ही चेक किया नेट पर तो मालूम हुआ राजर्षि टंडन युनिवर्सिटी के सभी परिक्षाओं के परिणाम निकल चुके हैं मुझे जानकर बहुत हैरानी व घबराहट हुई, अपनी मार्कशीट देखने की कोशिश की नेट पर लेकिन वहां नहीं दिखाई दे रही थी सोचा राजर्षि टंडन यूनिवर्सिटी में फोन करती हूं तो वहां आफिस से पता चलता है कि उन्होंने कालेज में मार्क शीट भेज दी है. दूसरे दिन हेड आफ द डिपार्टमेंट मल्होत्रा सर को फोन किया तो उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा यहां तो नहीं पहुंची है आपकी मार्कशीट.सत्य
सत्य
मैंने यह सोचकर अपने मन को आश्वस्त
किया कि चलो एक हफ़्ता और इंतज़ार कर लेती हूं तब तक तो आ ही जायेगी मार्कशीट.सत्य
इससे पहले वह फोन पटकता
मैंने पूरे क्रोध में भरकर कहा आप मेरी परीक्षा नियंत्रक संतोष यादव सर से बात कराईये,आज मेरे क्रोध के आगे मानो किसी ने ठहरने का दुस्साहस नहीं किया. संतोष यादव सर से बात हुई वह भी पूरे तैश में आकर बोले मैडम आपको कई दफ़ा बता दिया है कि सभी मार्कशीट वाया कुरियर सहारनपुर के प्रधान डाकघर भेज दी गयी हैं और सहारनपुर के कालेज द्वारा रिसीव भी कर ली गयी हैं यह सुनते ही मैंने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया.
सत्य
नवंबर का पहला हफ़्ता भी बीत गया मन
में कहीं चिंता और आशंका घर कर गयी थी न जाने क्यों ?किसी चीज़ में मेरा मन नहीं लग रहा था.एक हफ़्ते बाद मल्होत्रा सर को फिर फोन किया उन्होंने मुझे फिर बड़ी विनम्रता और शांत भाव से नहीं में जवाब दिया अब चिंता के बादल और घनीभूत होकर मेरे सिर पर मंडराने लगे फिर मैंने राजर्षि टंडन यूनिवर्सिटी के आफिस मे फोन किया उन्होंने मुझे डांटकर कहा मैडम आप क्यों फोन कर-करके परेशान कर रही हैं कहा न मार्कशीट कालेज भेज दी गयी है.अब मुझे समझ नहीं आ रहा था मैं क्या करूं? कहां जाऊं?सत्य
मई की लू के थपेड़े खाकर परीक्षा देने
के उपरांत परिणाम निकलने का इंतज़ार दिसंबर के कुहासे तक पहुंच गया था, मेरा दैनंदिन कार्य हो गया था फोन पर पहले कालेज में मार्कशीट का पता करना फिर युनिवर्सिटी में पता करना, समझ नहीं आ रहा था कहां गड़बड़ हो रही थी?सत्य
एक दिन मेरे सब्र का बांध टूटा और मल्होत्रा
सर को फोन न कर पहले मैंने राजर्षि टंडन यूनिवर्सिटी में फोन किया हमेशा की तरह फोन आफिस में किसी कलर्क ने उठाया वह फिर मुझे झिड़कता उससे पहले ही मैंने कलर्क पर बरसते हुए कहा “ये क्या तमाशा बनाया हुआ है आप लोगों ने? आप क्यों मार्कशीट नहीं भेज रहे हैं और क्यों मेरा वक़्त ज़ाया कर रहे हैं? इससे पहले वह फोन पटकता मैंने पूरे क्रोध में भरकर कहा आप मेरी परीक्षा नियंत्रक संतोष यादव सर से बात कराईये,आज मेरे क्रोध के आगे मानो किसी ने ठहरने का दुस्साहस नहीं किया. संतोष यादव सर से बात हुई वह भी पूरे तैश में आकर बोले मैडम आपको कई दफ़ा बता दिया है कि सभी मार्कशीट वाया कुरियर सहारनपुर के प्रधान डाकघर भेज दी गयी हैं और सहारनपुर के कालेज द्वारा रिसीव भी कर ली गयी हैं यह सुनते ही मैंने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया.सत्य
जैसा कि कोई चारा नहीं था मेरे पास दोबारा कालेज
में मल्होत्रा सर को फोन कर पूरे वाक़ए से अवगत कराया उनका प्रत्युतर में फिर वही विनम्र जवाब यहां कालेज में तो नहीं आई. मल्होत्रा सर की इस बात की प्रशंसा करुंगी कि जबसे मैंने कालेज में प्रवेश लिया तभी से मल्होत्रा सर से कोर्स संबंधी जानकारी में संपूर्ण सहयोग मिला और फोन पर बहुत विनम्र और संवेदनाओं के साथ उन्होंने मेरी बातों को सुना किंतु समाधान उनके पास भी नहीं था.सत्य
पढ़ें- काला अक्षर भैंस बराबर था मेरे लिए…
इसी ज़द्दोज़हद के साथ रुंआसी होकर
एक दिन बड़ी दीदी के घर जाकर सारी बात बताई.दीदी को मेरी परेशानी का सबब मालूम था उन्होंने कहा चिंता मत करो सहारनपुर जाकर प्रधान पोस्ट आफिस में पता करते हैं मैं भी चलूंगी तुम्हारे साथ.दीदी के इन आत्मीय शब्दों ने मुझे क्षणिक स्फूरित किया.सत्य
मिड दिसंबर में कोहरे से भरी सड़क देहरादून
से सहारनपुर जा रही है जिसमें मैं और दीदी बैठकर जा रहे हैं. उदास सर्दीं के मौसम की तरह मेरा मन भी उदास है. मन में हौल है कि मार्कशीट मिलेगी कि नहीं? सर्दी में खुद को शाल से लपेटते-कसते हम प्रधान डाकघर पहुंचते हैं.सत्य
प्रधान डाकघर बहुत बड़ा है मैंने अभी तक
एक कमरे वाला पोस्ट आफिस ही देखा था.आज इतना बड़ा डाकघर देखकर मुझे अत्यंत हैरानी हुई, बहुत बड़े एरिया में फैला हुआ था यह डाकघर. भीतर काउंटरों का छोर ही कहीं नज़र नहीं आ रहा था वह तो शुक्र था ईश्वर का कि प्रत्येक काउंटर पर आधिकारिक डिपार्टमेंट का नाम चस्पा किया गया था.मैं अपने कार्य से संबंधित काउंटर पर गयी राजर्षि टंडन युनिवर्सिटी से जे.बी.जैन कालेज जाने वाली पोस्ट के बारे में पता किया मालूम पड़ा कि राजर्षि टंडन से भेजे जाने वाले प्रत्येक कुरियर को जे.बी.जैन कालेज भेजा जा चूका है और कालेज द्वारा रिसीव भी कर लिया गया है. अब मेरी चौंकने की बारी थी कि मल्होत्रा सर क्यों कह रहे हैं? कि कालेज को मार्कशीट नहीं मिली है.दिमाग में मेरे आया कहीं तो कुछ गड़बड़ है.मल्होत्रा सर अभी
भी बड़े शांतिपूर्ण ढंग से अस्वीकार कर रहे थे कि मार्कशीट यहां नहीं पहुंची है.अब मेरे धैर्य रखने सीमा ख़त्म हो गयी थी. मैंने उनसे कहा कोई बात नहीं मैं यूनिवर्सिटी में भी और कालेज में भी आरटीआई लगाऊंगी पता तो चल ही जायेगा मार्कशीट को आसमान निगल गया या धरती खा गयी कहकर मैंने गुस्से में फोन काट दिया.
सत्य
मैंने तुरंत मल्होत्रा सर को फोन किया
उन्हें सारी स्थिती बयां की कि जिला पोस्ट आफिस ने तस्दीक़ की है कि राजर्षि टंडन यूनिवर्सिटी की हर पोस्ट कालेज द्वारा रिसीव कर ली गयी है किंतु बड़ा आश्चर्यजनक था यह कि मल्होत्रा सर अभी भी बड़े शांतिपूर्ण ढंग से अस्वीकार कर रहे थे कि मार्कशीट यहां नहीं पहुंची है.अब मेरे धैर्य रखने सीमा ख़त्म हो गयी थी. मैंने उनसे कहा कोई बात नहीं मैं यूनिवर्सिटी में भी और कालेज में भी आरटीआई लगाऊंगी पता तो चल ही जायेगा मार्कशीट को आसमान निगल गया या धरती खा गयी कहकर मैंने गुस्से में फोन काट दिया.सत्य
पोस्ट आफिस से निराश होकर हम बाहर
निकल ही रहे थे देहरादून बसड्डे की ओर जाने के लिए तभी मेरे मोबाईल पर मल्होत्रा सर का फोन आया दबी सहमी सी आवाज़ में “सुनो तुम ऐसा करो कालेज आ जाओ मैं देखता ह़ूं”इतना उनका कहना भर था कि मुझे आस बंध गयी कि मार्कशीट यक़ीनन मल्होत्रा सर के पास ही है.सत्य
मैं और दीदी कालेज पहुंचकर आफ़िस गये
वहां मल्होत्रा सर पहले से ही हमारा इंतज़ार कर रहे थे. मुझे मार्कशीट देते हुए उन्होंने बड़े सामान्य ढंग से कहा मार्कशीट यहीं थी.मन में क्रोध तो मुझे इतना आ रहा था कि तुरंत इनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करूं मुझे मानसिक रुप से प्रताड़ित करने के लिए और मेरा समय बर्बाद करने के लिए. तीन चार महीनों से न मैं ढंग से सोयी थी, न ही मैंने खाना खाया था ठीक तरह से इस मार्कशीट की टेंशन में.दीदी ने मुझे समझाया रहने दो तुम्हें मार्कशीट मिल गयी न.! शांति से रहो अब.क्यों स्वयं को और परेशानी में डालती हो?मैंने भी दीदी की बात मान ली और हम घर आ गये.क्या परेशानियां भी सतहविहीन और खोखली होती हैं?
सत्य
वह मल्होत्रा सर (काल्पनिक नाम)
आज भी नौ साल बाद बख़ूबी याद हैं मुझे.विश्लेषण करती हूं तो मुझे आज भी उनका रहस्यमयी चरित्र समझ नहीं आया है. वह बहुत विनम्र थे किंतु मार्कशीट न देने के पीछे क्या उदेश्य हो सकता था उनका? शायद उस समय का अपरिपक्व दिमाग और अनुभवहीन मन नहीं समझ पाया.
इतने महीनों से चलने वाला झमेला इतनी
जल्दी एक ही दिन में निपट जायेगा मुझे यकीं ही नहीं हो रहा था.सत्य
वह मल्होत्रा सर (काल्पनिक नाम)
आज भी नौ साल बाद बख़ूबी याद हैं मुझे.विश्लेषण करती हूं तो मुझे आज भी उनका रहस्यमयी चरित्र समझ नहीं आया है. वह बहुत विनम्र थे किंतु मार्कशीट न देने के पीछे क्या उदेश्य हो सकता था उनका? शायद उस समय का अपरिपक्व दिमाग और अनुभवहीन मन नहीं समझ पाया.सत्य
किंतु मेरी जवाबदेही की अविस्मरणीय यात्रा
के दौरान तमाम परेशानियों, चिंता झेलने का परिणाम मुझे यह मिला कि मैंने PGDHRD (Human Resource Management) में प्रथम श्रेणी में डिप्लोमा लिया और कम से कम मुझ में आज इतनी परिपक़्वता विकसित हो गयी है कि मैं भली भांति आदिम स्वभाव और विषम परिस्थितियों में सहजता से जूझना सीख गयी हूं.(लेखिका साहित्यकार हैं एवं विभिन्न पत्र—पत्रिकाओं में अनेक रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं.)