भारत की जल संस्कृति-7
- डॉ. मोहन चन्द तिवारी
भारतवर्ष प्राचीनकाल से ही एक कृषि प्रधान देश रहा है. कृषि की आवश्यकताओं को देखते हुए ही यहां समानांतर रूप से वृष्टिविज्ञान, मेघविज्ञान और मौसम विज्ञान की मान्यताओं का भी उत्तरोत्तर विकास हुआ. वैदिक काल में इन्हीं मानसूनी वर्षा के सन्दर्भ में अनेक देवताओं को सम्बोधित करते हुए मंत्रों की रचना की गईं. वैदिक देवतंत्र में इंद्र को सर्वाधिक पराक्रमी देव इसलिए माना गया है क्योंकि वह आर्य किसानों की कृषि व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए मेघों से जल बरसाता है और इस जल को रोकने वाले वृत्र नामक दैत्य का वज्र से संहार भी करता है-
“इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं
यानि चकार प्रथमानि वज्री.
अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र
वक्षणा अभिनत्पर्वतानाम्॥”
-ऋग्वेद,1.32.1
ऋग्वेद में बार-बार इन्द्र द्वारा वृत्र का संहार करके जल को मुक्त कराने का उल्लेख मिलता है-
“अपां बिलमपिहितं यदासीद् वृत्रं जघन्वाँ अप तद्ववार.”-ऋ.‚1-32-11
अर्थात् वृत्र ने पर्वतों के मध्य जल के जिन स्रोतों को अवरुद्ध कर रखा था, इन्द्र ने वृत्र का वध करके उन जल के स्रोतों को प्रवाहित कर दिया. वृत्र सोते हुए भी कभी जल प्रवाह को रोकने का प्रयास करता है तब भी इन्द्र वज्राघात से वृत्र का वध करके नदियों में जल प्रवाहित कर देता है-
“नदं न भिन्नममुया शयानं
मनोरुहाणा अति यन्त्यापः.
याश्चिद् वृत्रे महिना पर्यतिष्ठत्ता-
सामहिः पत्सुतः शार्बभूव…”
-ऋ.‚1-32-8
ऋग्वेद के नदीसूक्त में भी ऐसा ही वर्णन आया है कि इन्द्रदेव ने ही सर्वप्रथम नदियों के मार्गों का निर्माण किया और वर्षा को अवरुद्ध करने वाले वृत्र नामक राक्षस का संहार करके नदियों में जल की धारा को प्रवाहित किया-
“इन्द्रो अस्माँ इरदवज्राहुरपाहन्वृत्रं
परिधिं नदीनाम्.” -ऋ.‚ 3.33.6
इंद्र वैदिक आर्य किसानों का सर्वाधिक लोकप्रिय देवता है.ऋग्वेद में इन्द्र की महिमा का गान 250 सूक्तों में हुआ है.इंद्र के पराक्रम का मुख्य कार्य है मेघों में छिपे हुए जल को बरसाना और इस जल को रोकने वाले वृत्र नामक दैत्य का वज्र से संहार करना-
“स धारयत्पृथिवीं पप्रथच्च
वज्रेण हत्वा निरपः ससर्ज.
अहन्नहिमभिनद्रौहिणं
व्यहन्व्यंसं मघवा शचीभिः॥”
-ऋग्वेद,1.103.2
अर्थात् इंद्र ने असुर पीड़ित धरती को धारण करके विस्तृत किया है,वज्र से शत्रुओं को मारकर वर्षा का जल बहाया है,अंतरिक्ष में वर्त्तमान मेघ का वध किया है,रोहिण असुर को विदीर्ण किया है एवं अपने शौर्य से बाहुहीन वृत्र को मार गिराया है.
यहां सायणभाष्य में इंद्र-वृत्र वध के आलंकारिक मिथक के तात्पर्यार्थ को समझाने का ओ प्रयास किया गया है, वह वर्त्तमान मानसून वैज्ञानिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है. सायण का कथन है कि पुराकाल में असुरों से पीड़ित धरती को सबसे पहले धारण योग्य इंद्र ने ही बनाया था, उसमें खेत आदि बनाकर धरती को बाधा रहित करते हुए उसका कृषि की दृष्टि से विस्तार किया-
“सः इन्द्रः “पृथिवीम् असुरैः पीडितां भूमि “धारयत् धृतवान्.
पीडाराहित्येन स्थिताम् अकरोदित्यर्थः.
तदनन्तरं “पप्रथच्च तां भूमिं विस्तीर्णामकरोत्.”
-सायणभाष्य,ऋग्वेद,1.103.2
वैदिक देवता इंद्र ने सबसे बड़ा पराक्रमपूर्ण कार्य यह किया कि उसने अपने शस्त्र से उस दुष्ट राक्षस वृत्र को मार डाला और मेघों में छिपे हुए जल को उस के चंगुल से मुक्त किया. इसी इन्द्रवृत्र युद्ध के प्रतीकात्मक अर्थ की जलवैज्ञानिक व्याख्या करते हुए सायण कहते हैं कि आकाश में ‘अहि’ नामक जो मेघ रहता है, इंद्र उसी ‘अहि’ मेघ को अपने वज्र से मार गिराता है. केवल ‘अहि’ राक्षस ही नहीं एक दूसरा राक्षस ‘रौहिण’ भी जल को रोकने में वृत्र की सहायता करता है,तो इंद्र उस राक्षस का भी विदारण कर देता है. इस प्रकार आर्य किसानों का राष्ट्रीय देवता इंद्र अपने पराक्रमपूर्ण युद्धकृत्यों के द्वारा उस ‘वृत्रासुर’ राक्षस के हाथ पांव तोड़ कर रख देता है और इस बंजर भूमि में नदियों को बहाकर उसमें धन-धान्य संपदा का विस्तार करता है-
“एतदेव स्पष्टीक्रियते.“अहिम्.अन्तरिक्षे वर्तमानं मेघम् अहन् वज्रेण वर्षणार्थमताडयत् . “रौहिणम्. रौहिणो नाम कश्चिदसुरः. तं च “वि “अभिनत् व्यदारयत्. अपि च “मघवा धनवानिन्द्रः“शचीभिः आत्मीयैर्युद्धकर्मभिः “व्यंसं विगतभुजं वृत्रासुरम् “अहन् अवधीत्॥ पप्रथत्.पृथुं करोति प्रथयति.” -सायणभाष्य, ऋ.1.103.2
ऋग्वेद का इंद्र-वृत्र कथानक कोई ऐतिहासिक घटनाक्रम नहीं बल्कि जलवैज्ञानिक धरातल पर सूर्यकिरणों की ऊष्मा से हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने वाली विशुद्ध पर्यावरण वैज्ञानिक प्रक्रिया है. ऋग्वेद के प्रथम मंडल में यह उल्लेख भी आता है कि समुद्र की विशाल जलराशि के स्वामी वरुण भी इंद्र के साथ मिलकर हिमालय पर जल को रोक लेने वाले वृत्र को पराजित कर उसे मैदानों में प्रवाहित करते हैं.
इंद्र अपने इसी शौर्यपूर्ण पराक्रम के कारण ‘वज्रिन्’, ‘वृत्रहन्’ कहलाता है.प्रधान सहायक के रूप में मरुद्गण भी उसके साथ रहते हैं. इसलिए इंद्र को ‘मरुतवान् इंद्र’ की भी संज्ञा दी गई है. इस भयंकर इंद्र-वृत्र युद्ध में वृत्र की माता दनु भी उसे बचाने के लिए वृत्र के ऊपर लेट जाती है किन्तु इंद्र उसके निम्नभाग पर आक्रमण कर उसे भी धराशायी कर देता है-
“नीचावया अभवद्वृत्रपुत्रेन्द्रो
अस्या अव वधर्जभार.
उत्तरा सूरधरः पुत्र आसीद्दानुः
शये सहवत्सा न धेनुः॥”
-ऋ.‚1-32-9
अर्थात् वृत्र की माता वृत्र को बचाने के लिए तिरछी होकर उसके शरीर पर गिर पड़ी.इंद्र ने वृत्र की माता के नीचे के भाग पर वज्र मारा.उस समय माता ऊपर और पुत्र नीचे था.जिस प्रकार गाय अपने बछड़े के साथ सो जाती है उसी प्रकार वृत्र की माता दनु भी सदा के लिए सो गई.
वृत्र प्राचीन धार्मिक मिथकों में एक असुर था जो आकृति में सर्प या अझ़दहा (ड्रैगन) जैसा भी था. संस्कृत में वृत्र का अर्थ ‘ढकने वाला’ होता है. इसका एक अन्य नाम ‘अहि’ भी था जिसका अर्थ ‘साँप’ होता है और जो अवस्ताई भाषा में ‘अज़ि’ और ‘अझ़ि’ के रूपों में मिलता है. वेदों में वृत्र एक ऐसा ड्रैगन है जो नदियों का मार्ग रोककर सूखा पैदा कर देता है और जिसका वध इन्द्र करता है. मुख्य रूप से इंद्र वर्षा का देवता है जो कि अनावृष्टि अथवा अन्धकार रूपी दैत्य से युद्ध करता है तथा अवरुद्ध जल को अथवा प्रकाश को विनिर्मुक्त बना देता है.
इन्द्र और वृत्र के इस प्रतीकात्मक आलंकारिक कथानक की आधुनिक जलविज्ञान अथवा मानसून विज्ञान के धरातल पर यदि व्याख्या की जाए तो ‘वृत्र’ असुर मेघों में अवर्षण तथा ठोस हिम ग्लेशियरों का द्योतक है जो पानी को कैद किए रहता है तथा उन्हें पिघलने नहीं देता है. दूसरी ओर इन्द्र उन मेघों से जल बरसाने तथा हिम ग्लेशियरों से जलस्रोतों को पिघलाने की एक मौसमवैज्ञानिक प्रक्रिया है. जल का प्राकृतिक स्वभाव ही संचरणशील है.सूर्य की रश्मियों की ऊष्मा से तप्त होकर यह वाष्प बनकर मेघ बन जाता है और मानसूनी हवाओं के मौसम में हिमशिलाओं के शीतकालीन वातावरण में जम जाने के कारण स्वयं ठोस और अदृश्य भी हो जाता है. पर हिमालय के बर्फीले शिखरों पर सोए हुए की तरह नजर आने वाला यही जल इन्द्र के वज्राघात और सूर्य रश्मियों की ऊष्मा द्वारा हिमग्लेशियरों से पिघलते हुए नदियों के रूप में भूमि की सतह पर प्रवाहित होने लगता है जैसा कि ऋग्वेद के इस मंत्र से स्पष्ट होता है –
“अतिष्ठन्तीनामनिवेशनां
काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम्.
वृत्रस्य निण्यं विचरन्त्यापो
दीर्घं तम आशयदिन्द्रशत्रुः..”
-ऋ.‚1-32-10
अर्थात् एक स्थान पर न रुकने वाले जल में डूबकर वृत्र का शरीर नाममात्र को भी नहीं दिखाई दे रहा है.इंद्र से बैर करने वाला वृत्र चिरनिद्रा में लीन है और जल उसके ऊपर से होकर बह रहा है.
गौरतलब है कि वरुण और वृत्र दोनों वृ धातु से बने हैं जिसका अर्थ होता है घेर कर रखना या बांध लेना. ग्लेशियरों के जल को वृत्र ने हिमालय पर बर्फ बनाकर बांध रखा है तो वरुण ने समुद्र के रूप में तरल जल को घेरा हुआ है. इस अवरुद्ध जल को संचरणशील बनाने में सूर्य की अहम भूमिका रहती है. वह ‘मित्र’ बन कर अपनी रश्मियों से समुद्र के जल को वाष्पित कर आकाश में मेघ बना देता है और वही जल जब हिमालय में वृत्र बन कर हिमशिलाओं का रूप धारण कर लेता है तो इंद्र अपने वज्राघात और सूर्य रश्मियों की ऊष्मा द्वारा हिमग्लेशियरों के रूप में छिपे हुए जल को पिघलाते हुए नदियों के रूप में भूमि की सतह पर प्रवाहित कर देता है.
इन्द्र-वृत्र युद्ध के सांकेतिक अर्थ को लेकर भाष्यकारों और आधुनिक विद्वानों के बीच काफी मतभेद रहे हैं. यास्ककृत निरुक्त में कहा गया है कि ‘वृत्र’ निरुक्तकारों के अनुसार ‘मेघ’ है किन्तु ऐतिहासिकों के अनुसार त्वष्टा का पुत्र असुर है. वृत्र के इसी ऐतिहासिकों के मत का विकसित रूप महाभारत, (शान्तिपर्व-अध्याय281-282) और भागवत महापुराण में वर्णित वृत्र-वध आख्यान है. ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार वृत्र ‘अहि’ सर्प के समान है जिसने अपने शरीर-विस्तार से जल-प्रवाह को रोक लिया था और इन्द्र के द्वारा विदीर्ण किये जाने पर उसके द्वारा अवरुद्ध जल प्रवाहित हुआ. निरुक्त के मतानुसार वृत्र अन्धकारपूर्ण, आवरण करने वाला है.जल और प्रकाश (विद्युत) का संयोग होने से वर्षा होती है इसी प्राकृतिक घटना को इंद्र-वृत्र युद्ध का मिथकीय रूप दिया गया है.
पुराणों में “इंद्र” के साथ गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के कथानकों और इंद्र लोक में अप्सराओं के जो आलंकारिक मिथक मिलते हैं उनसे वैदिक कालीन इंद्र की देवतापरक छवि को प्रायः विकृत करने का प्रयास किया गया है. ‘अहल्या’ का तात्पर्य है बिना हल जोती हुई बंजर भूमि को इंद्र द्वारा वर्षा के जल से अभिसिंचित कर उपजाऊ बना देना. किन्तु अहिल्या के पौराणिक कथानकों में इंद्र को एक व्यक्ति मानकर उसे चरित्रहीन देवता सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है.
लोकमान्य तिलक के अनुसार इन्द्र सूर्य का प्रतीक है तथा वृत्र हिम का. यह उत्तरी ध्रुव में शीतकाल में हिम जमने और वसंतकालीन सूर्य द्वारा पिघलाने पर नदियों के प्रवाहित होने का प्रतीक है. हिलेब्राण्ट के मत से भी वृत्र ‘हिमानी’ यानी हिम ग्लेशियर का प्रतीक है.परन्तु अधिकांश पश्चिमी विद्वान् भी निरुक्त के पूर्वोक्त मत से सहमत हैं कि इन्द्र वृष्टि लाने वाला तूफान का देवता है. (आचार्य बलदेव उपाध्याय, वैदिक साहित्य और संस्कृति,पृ.498)
पुराणों में “इंद्र” के साथ गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के कथानकों और इंद्र लोक में अप्सराओं के जो आलंकारिक मिथक मिलते हैं उनसे वैदिक कालीन इंद्र की देवतापरक छवि को प्रायः विकृत करने का प्रयास किया गया है. ‘अहल्या’ का तात्पर्य है बिना हल जोती हुई बंजर भूमि को इंद्र द्वारा वर्षा के जल से अभिसिंचित कर उपजाऊ बना देना. किन्तु अहिल्या के पौराणिक कथानकों में इंद्र को एक व्यक्ति मानकर उसे चरित्रहीन देवता सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है. ऐसा केवल इसलिए किया जाता है कि हम आज इंद्र, वृत्र, वरुण आदि देवताओं के वेदकालीन जलवैज्ञानिक और जलवायु वैज्ञानिक मान्यताओं को भुला चुके हैं और पौराणिक कथाओं के आधार पर केवल यह याद रखे हुए हैं कि इंद्र एक घमंडी और लम्पट स्वभाव का देवता है जो वृत्रासुर समेत अनेक असुरों का वध करता है,अहिल्या आदि से जार कर्म करता है और हर समय अय्यासी के लिए अपने साथ इंद्रलोक की अप्सराएं भी साथ रखता है.
इंद्र के सम्बन्ध में प्रचलित ये सब पौराणिक मिथक आकाशीय और जलवैज्ञानिक घटनाओं के आलंकारिक वर्णन हैं और मेघनिर्माण सम्बंधी मानसून वैज्ञानिक और हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने की जलवैज्ञानिक गतिविधियों को सूचित करते हैं. वस्तुतः वेद के अनुसार अप्सरा का अर्थ है ‘किरणें’ अत: “इंद्र” की अप्सरा से तात्पर्य है कि ‘सूर्य’ और उसकी किरणें-
“सूर्ययो मरीचयोअप्सरस:”
(यजुर्वेद,18.39)
इससे स्पष्ट है की अप्सरा का अर्थ किरणें हैं. “इंद्र” का अर्थ भी ‘सूर्य,’ चन्द्रमा, वायु, अग्नि आदि हो सकता है जिन्हें ‘गंधर्व’ संज्ञा दी गई है-
“ऋताषाड गन्धर्व:” (यजुर्वेद 19.38)
“चन्द्रमा गंधर्व:” (यजुर्वेद 18.40)
“वातो गन्धर्व:” (यजुर्वेद 18.41)
इस आधार पर गन्धर्व का शाब्दिक अर्थ होता है प्रकाशवान. अत: अग्नि, सूर्य आदि नाम “इंद्र” के भी पर्यायवाची नाम हैं. क्योंकि ये सभी देव जल के वाष्पीकरण और उसको पिघलाने की शक्ति रखते हैं.
असल में, वैदिककालीन हिमालय पर्यावरण के संरक्षण के प्रति अति संवेदनशील मंत्रद्रष्टा ऋषियों की मान्यता रही है कि जल के प्राकृतिक स्वरूप को रोकना और विशालकाय बांधों की सहायता से जल की बहती धारा को अवरुद्ध करना पर्यावरण विरुद्ध कार्य है जिसे ‘इंद्र-वृत्र युद्ध’ के कथानक द्वारा वैदिक मंत्रों में अत्यंत वैज्ञानिक ढंग से समझाया गया है.
इस प्रकार जलों को रोकने वाले, उसे बांधों आदि की सहायता से कैद करने वाले प्रकृति विरोधी असुरों का वध करने वाले और जल और नदियों के संरक्षक इंद्र देव का वैदिक संहिताओं में वर्षाकारक देवता के रूप से स्तुतिगान किया गया है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)