डॉ. शम्भू प्रसाद नौटियाल
विज्ञान शिक्षक रा.इ.का. भंकोली उत्तरकाशी
(राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी भारत द्वारा उत्कृष्ट विज्ञान शिक्षक सम्मान 2022)
गढ़वाल हिमालय की नदियों में पाई जाने वाली प्रमुख शीतजलीय मछली- असेला या साइजोथोरेक्स (स्नोट्राउट), के प्रजनन और आबादी पर पर बदलते जलवायु और मानवीय हस्तक्षेप के दुष्परिणाम दिख रहे हैं।
इनका शरीर चिकना एवं हल्का चमकीला होता है। इसकी मुख्यतः दो प्रजातियां साइजोथोरेक्स रिचार्डसोनी एवं साइजोथोरेक्स प्लेजियोस्टोमस पर्वतीय क्षेत्रों में बहुतायत मात्रा में पायी जाती है।
शीतजल में प्रजनन
साइजोथोरेक्स रिचार्डसोनी शीतजलीय प्रजाति होने के कारण अधिकांशतः नदी के मध्य भाग में रहती हैं। गर्मी के मौसम में बर्फीली चोटियों (ग्लेशियर) से बर्फ पिघलने से नदियों के जल का तापमान कम हो जाता है। इस मौसम में इस मत्स्य प्रजाति की वृद्धि दर अन्य मौसमों की अपेक्षा अधिक रहता है।
इस मछली का प्रजनन काल वर्ष में दो-बार अप्रैल तथा अगस्त-सितंबर माह में होता है। प्रजनन के समय यह मछली नदी के ऊपरी मुहानों में स्थानीय प्रवास करती हैं, जहां पर जलीय वातावरण प्रजनन के अनुकूल होता है।
मानवीय हस्तक्षेप से प्रजनन पर असर
जलीय पारिस्थितिकी में भी इस प्रजाति की महत्वपूर्ण भूमिका है। साइजोथोरेक्स प्रजाति एक शाकाहारी मछली है जो जल में पाये जाने वाले शैवाल, काई तथा अन्य जलीय पादपों को अपने आहार के रूप में ग्रहण करती हैं।
परंतु वर्तमान समय में मानवीय गतिविधियों के कारण इसके प्राकृतिक प्रजनन क्षेत्रों के स्तर में गिरावट आई है, जिसके कारण इसकी संख्या में कम हो रही है।
बांध, अवैध शिकार, जल प्रदूषण एवं मानव गतिविधियां जैसे नदियों से रेत-बजरी, पत्थर निकलते के कारण से भी इस प्रजाति के प्राकृतिक आवास के स्तर में गिरावट आ रही है और इसके प्रजनन हेतु उचित स्थान में कमी हो रही है।
असेला संवर्धन महत्वपूर्ण
इस महत्वपूर्ण मत्स्य प्रजाति की संख्या को हिमालय के जलीय क्षेत्रों में बढ़ाने के लिए ‘कृत्रिम प्रजनन’ के आधार पर मत्स्य बीज उत्पादित कर नदियों एवं जलाशयों में संचित किया जाना चाहिए और उन सभी मानवीय गतिविधियों पर रोक लगायी जानी चाहिए जिनके कारण इस मछली के संख्या में कमी आ रही है। इससे हम साइजोथोरेक्स का उसके प्राकृतिक आवास में संवर्धन कर सकते हैं।
इससे पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में
मानवीय गतिविधियों से उत्पन्न प्रदूषण के कारण पर्वतीय क्षेत्रों के जल निकायों में मछली की आबादी घट रही है। क्योंकि पहले स्नो ट्राउट की लगभग 10 प्रजातियाँ गढ़वाल की नदियों में पायी जाती थी, लेकिन अब बहुत कम हैं, और कुछ विलुप्त हो गई हैं। ये मौजूद प्रजातियां भी घट रही हैं। जलवायु परिवर्तन, अत्यधिक जल प्रदूषण, आक्रामक प्रजातियों की शुरूआत और वनों की कटाई सहित कई कारक स्थानीय मछली प्रजातियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं और अंततः उनके विलुप्त होने का कारण बन रहे हैं।
पारिस्थितिकी तंत्र में प्रत्येक जीव की भूमिका होती है और यदि एक जीव विलुप्त हो जाता है, तो इससे पूरे पारिस्थितिकी तंत्र पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ये प्रजातियां उथले पानी में अंडे देते हैं, लेकिन अत्यधिक खनन ने नदी के तल को नष्ट हो रहा है साथ ही अत्यधिक रेत खनन से मछली के प्रजनन और भोजन के मैदान को नष्ट हो रहे हैं। मांसाहारी रेनबो ट्राउट जैसी आक्रामक प्रजातियों का भी इनकी आबादी पर प्रभाव पड़ा है क्योंकि वे उनसे प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते हैं। आक्रामक प्रजातियाँ इन मछलियों के अंडे खाती हैं, जिससे उनकी आबादी प्रभावित होती है। ये आक्रामक प्रजातियाँ स्वदेशी प्रजातियों को उसी तरह प्रभावित कर रही हैं जैसे तलपिया जैसी मछली प्रजातियों को दुनिया भर के जल निकायों में लाया गया है और इससे स्वदेशी प्रजातियाँ विलुप्त हो गई हैं।