गांधी जी का राष्ट्रवाद-1
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
(दिल्ली विश्वविद्यालय के गांधी भवन में ‘इंडिया ऑफ माय ड्रीम्स’ पर आयोजित ग्यारह दिन (9जुलाई -19 जुलाई, 2018 ) के समर स्कूल के अंतर्गत गांधी जी के राष्ट्रवाद
और समाजवाद पर दिए गए मेरे व्याख्यान का सारपूर्ण लेख,जो आज भी प्रासंगिक है)गांधी जी के अनुसार दुनिया के जितने भी धर्म हैं उनमें हिन्दूधर्म ही एकमात्र ऐसा राष्ट्रवादी धर्म है,जिसमें कट्टरता का अभाव है और जो सब से अधिक सहिष्णु है.
गांधी जी के अनुसार “हिन्दूधर्म न केवल मनुष्यमात्र की बल्कि प्राणिमात्र की एकता में विश्वास रखता है.” – (यंग इंडिया,20-10-1927)ज्योतिष
गौरतलब है कि 13 जुलाई, 1947 में
‘हरिजन सेवक’ पत्रिका में समाजवादी कौन है? इस विषय पर लिखते हुए गांधी जी ने कहा था-“सारी दुनिया के समाज पर नज़र डालें तो हम देखेंगे कि हर जगह द्वैत ही द्वैत है. एकता और अद्वैत कहीं नाम को भी नहीं दिखाई देता.यह आदमी ऊंचा है,यह आदमी नीचा है.
वह हिन्दू है,वह मुसलमान है, तीसरा ईसाई है, चौथा पारसी है,पांचवा सिक्ख है,छठा यहूदी है. इनमें भी बहुत सी उपजातियां हैं.मेरे अद्वैतवाद में ये सब लोग एक हो जाते हैं; एकता में समा जाते हैं.”“यह विचार कि भारतवर्ष
एक राष्ट्र है,उस मूल पर आधारित है जिसको राजनीति शास्त्र स्वीकार नहीं करता है. भारत वर्ष एक राजनीतिक नाम नही हैं वरन् एक भौगोलिक नाम है जिस प्रकार यूरोप या अफ्रीका.”
ज्योतिष
पर हमारे देश की यह विडम्बना रही है कि आजादी मिलने के बाद भी ब्रिटिश काल की उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी इतिहास चेतना के फलस्वरूप गांधीवादी राष्ट्रचिंतन को देश में
पनपने ही नहीं दिया गया और आज भी हमारे स्कूलों और विश्व विद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों में छात्रों को जो पश्चिमी ‘राष्ट्रवाद’ पढ़ाया जाता है उसके अनुसार यही बताया जाता है कि भारतवासियों में राष्ट्रवादी चेतना का अभाव था और यह अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा का ही परिणाम है कि वे राष्ट्रवाद की भावना से अवगत हो सके. साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने ऐसा भी भ्रामक प्रचार किया कि प्राचीन काल और मध्य काल में भारत अलग-अलग राजवंशों और बादशाहों की रियासतों में बंटा हुआ देश था, इसलिए भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का अभाव रहा.पश्चिमी इतिहासकार जॉन स्ट्रेची ने कहा है कि-ज्योतिष
“भारतवर्ष न कभी राष्ट्र था,और न है,और न उसमें यूरोपीय विचारों के अनुसार किसी प्रकार की भौगोलिक,राजनैतिक,सामाजिक अथवा धार्मिक एकता थी, न कोई भारतीय राष्ट्र
और न कोई भारतीय ही था जिसके विषय में हम बहुत अधिक सुनते हैं.”ज्योतिष
इसी प्रकार पश्चिमी विचारक जॉन
शिले ने भी भारत में राष्ट्र की अवधारणा को ख़ारिज करते हुए लिखा है कि-“यह विचार कि भारतवर्ष एक
राष्ट्र है,उस मूल पर आधारित है जिसको राजनीति शास्त्र स्वीकार नहीं करता है. भारत वर्ष एक राजनीतिक नाम नही हैं वरन् एक भौगोलिक नाम है जिस प्रकार यूरोप या अफ्रीका.”वास्तव में,आधुनिक ‘राष्ट्रवाद’ की परिकल्पना मूलतः एक पश्चिमी विचार है जिसका उद्भव और विकास 15वीं-16वीं शताब्दी में साम्राज्यवाद के विरुद्ध हुए राजनैतिक आन्दोलनों के फलस्वरूप हुआ. अठारहवीं शताब्दी में फ्रांसिसी क्रान्ति को लाने में भी ‘राष्ट्रवाद’ की अहम
भूमिका रही थी. कालान्तर में इंग्लैण्ड‚जर्मनी, फ्रांस,स्पेन आदि विभिन्न देशों में राष्ट्रवादी विचारों के उदय के कारण वहां साम्राज्यवाद की शक्ति क्षीण होती गई तथा राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना होती गई.इस पश्चिमी राष्ट्रवाद को जागृत करने में वंश,जाति‚धर्म,भाषा,संस्कृति तथा भौगोलिक एकता का महत्त्वपूर्ण योगदान था.बाद में पश्चिमी राजनीतिशास्त्र के विचारकों ने इन्हीं तत्त्वों को राष्ट्रवाद के विधायक तत्त्व मानते हुए ‘राष्ट्र’ अथवा ‘राष्ट्रीयता’ की परिभाषाएं देने का प्रयास किया.किन्तु गांधी जी के ‘राष्ट्रवाद’ में इन परिभाषाओं के लिए कोई स्थान नहीं है.ज्योतिष
बीसवीं सदी में भारतीय राष्ट्रवाद को एक वैचारिक स्वतंत्रता आन्दोलन से जोड़ने में महात्मा गांधी जी के ‘राष्ट्रवाद’ की अहम भूमिका रही थी. किन्तु गांधी जी के ‘राष्ट्रवाद’
की परिकल्पना पश्चिमी ‘राष्ट्रवाद’ के मूल्यों पर नहीं बल्कि ‘भारतराष्ट्र’ के प्राचीन मौलिक और शाश्वत मूल्यों पर आधारित है, जहां विभिन्न भाषा-भाषी और विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोग हजारों वर्षों से एक साथ रहते हुए अपने राष्ट्र की सेवा करते आए हैं. प्राचीन काल में वैदिक ऋषियों ने इसी ‘सेक्युलर’ यानी ‘सर्वधर्म- समभाव’ के स्वरूप वाले राष्ट्रवाद का विचार आज से पांच हज़ार साल पहले ‘अथर्ववेद’ के काल में ही दे दिया था-ज्योतिष
“जनं बिभ्रती बहुधा
विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम् .”-अथर्ववेद‚12.1.45अर्थात् – ‘राष्ट्र’ उसे कहते हैं जहां विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले तथा विविध धर्मों को मानने वाले लोग मिलजुल कर एक कुटुम्ब की भांति रहते हैं.
गांधी जी का राष्ट्रवाद एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक जन-जागरण है, जिसने पश्चिम के संसर्ग से उत्पन्न उपनिवेशवाद, उपभोक्तावाद द्वारा गुलाम बनाने वाली मानसिकता वाले
राष्ट्रवाद से संवाद करते हुए स्वदेशी चिंतन से प्रेरित एक ऐसे उदार राष्ट्रवाद का भारतीय संस्करण प्रस्तुत किया जिसके प्रेरणा स्रोत वेद, उपनिषद्, गीता, रामायण, महाभारत आदि के अलावा जैन और बौद्ध धर्मों के नैतिक और मानवतावादी विचार रहे थे.
ज्योतिष
दरअसल,गांधी जी का राष्ट्रवाद उस ‘नेशन’ और ‘नेशनलिज्म’ से उभरा पश्चिमी विचार नहीं है जिसे आजकल राजनीतिशास्त्र के ग्रन्थों के माध्यम से देश के विद्यालयों में पढ़ाया जाता है.गांधी
जी ने ‘हिन्द स्वराज’ नामक अपनी पुस्तक में पाश्चात्य सभ्यता और विचारों की तीखी आलोचना करते हुए कहा है कि भारत तब तक स्वाधीन नहीं हो सकता जब तक पाश्चात्य विचारों और सभ्यता को त्याग कर वह भारतीय मूल्यों को नहीं अपना लेता. भारत को एक राष्ट्र नहीं मानने वाली पश्चिमी मानसिकता का खंडन करते हुए गांधी जी भारतवासियों से कहते हैं-ज्योतिष
“आपको अंग्रेजों ने सिखाया है कि आप एक राष्ट्र नहीं थे और एक राष्ट्र बनने में आपको सैकड़ों वर्ष लगेंगे.”- यह बात बिल्कुल बेबुनियाद है.जब अंग्रेज हिन्दुस्तान में नहीं थे तब हम एक राष्ट्र थे‚
हमारे विचार एक थे‚ हमारा रहन सहन एक था. तभी तो अंग्रेजों ने यहां एक राज्य कायम किया. भेद तो हमारे बीच बाद में उन्होंने पैदा किए.”ज्योतिष
वस्तुतः सदियों के बाद पहली बार हमें गांधी जी ने यह अनुभूति कराई कि मनुष्य के लिए उसकी सांस्कृतिक पहचान और राष्ट्रीय स्वाभिमान भी सम्मान पूर्वक जीने के लिए बहुत जरूरी है और इसी अनुभूति से मनुष्य में स्वतंत्रता का भाव पल्लवित होता है. गांधी जी का राष्ट्रवाद एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक जन-जागरण है, जिसने
पश्चिम के संसर्ग से उत्पन्न उपनिवेशवाद, उपभोक्तावाद द्वारा गुलाम बनाने वाली मानसिकता वाले राष्ट्रवाद से संवाद करते हुए स्वदेशी चिंतन से प्रेरित एक ऐसे उदार राष्ट्रवाद का भारतीय संस्करण प्रस्तुत किया जिसके प्रेरणा स्रोत वेद, उपनिषद्, गीता, रामायण, महाभारत आदि के अलावा जैन और बौद्ध धर्मों के नैतिक और मानवतावादी विचार रहे थे. वास्तव में गांधी जी का राष्ट्रवाद जातिवाद और नस्लवाद से प्रेरित न होकर सत्य,अहिंसा आदि मानव मूल्यों से अनुप्राणित राष्ट्रवाद है जिसकी प्रासंगिकता हर युग में बनी रहती है.ज्योतिष
गांधी चिंतन की इस व्याख्यानमाला के आयोजक और गांधी भवन के डायरेक्टर प्रो.रमेश चन्द्र भारद्वाज ने अपना अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए कहा कि गांधी जी के राष्ट्रवाद की मुख्य आत्मा ‘अद्वैतवाद’
है.उन्होंने पश्चिमी राष्ट्रवाद की गांधी जी के राष्ट्रवाद से तुलना करते हुए कहा कि जहां पश्चिमी राष्ट्रवाद सम्प्रदायवाद,जातिवाद, प्रांतवाद, भाषावाद के धरातल पर समाज में भेद और द्वैतवाद की दीवारें पैदा करता है, वहां गांधी जी का राष्ट्रवाद ‘अद्वैतवाद’ राष्ट्रीय एकात्मकता और सामाजिक समरसता की भावना को प्रोत्साहित करता है.ज्योतिष
आगे भी जारी गांधी जी के ‘राष्ट्रवाद’ पर यह चर्चा
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से
सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)