हिमालयन अरोमा भाग-1
- मंजू काला
बासंती दोपहरियों में हिमालय के
आंगन में विचरण करते हुए मैं अक्सर दुपहरी हवाओं के साथ अठखेलियाँ करते कचनार के पुष्पों को निहारती हूँ! जब मधुऋतु का यह मनहर पुष्प पतझड़ में हिमवंत को सारे पत्ते न्योछावर कर नूतन किसलयों की परवाह किए बगैर वसंतागमन के पूर्व ही खिलखिल हँसने लगता है- तब मै भी सकुन से अपनी चेहरे पर घिर आयी शरारती अलकों को संवार कर चाय की चुस्कियां लेने लगती हूँ!ज्योतिष
हिमवन में एकबारगी इसका खिलखिलाना किसी को नागवार भले लगे, किंतु यह मनभावन पुष्प अपने कर्तव्य को निभाकर मन को प्रफुल्लित कर ही देता है. दूसरी ओर, अन्य पुष्पों को भी खिलने को प्रेरित करता है. इस प्रकार, सबको प्रमुदित कर अपना अनुसरण करने को मानो बाध्य कर देता है. वसंत के इस संदेशवाहक को सबसे पहले हुलसित देखकर किस मानुष का
ह्रदय-कमल नहीं खिल उठता! अपने अलौकिक सौंदर्य से अनिर्वचनीय सुखानुभूति उत्पन्न करने में यह पूर्णतः सक्षम है. तभी तो कवियों ने वसंत का अग्रदूत कहकर इसे सार्थक नाम दिया है. वस्तुतः कवि और काव्य की प्रेरणा है कचनार, प्रकृति देवी का अलंकार है कचनार, ऋतुराज का शृंगार है कचनार, उल्लास की झनकार है कचनार, भौरों की उमंग का गुंजार है कचनार. ऋंगारकालीन कवियों ने वसंत की श्रीशोभा के संवर्धन करने वाले पुष्प-समूहों में सम्मानपूर्वक इसका स्मरण यूँ किया है-ज्योतिष
‘फूलेंगे अनार कचनार नहसुत आम,
फूलेंगे सिरिस औ‘ पनस फूल झूलेंगे.‘
लोक-संस्कृति में भी यह कचनार अनेक लोक-विश्वासों और कथानक-रूढ़ियों को समाविष्ट करता है और लोक-काव्य को नानाविध उपमा-उपमानों से मंडित करता रहता है. रीतिबद्ध काव्य के उद्धरण से-
कोई बटोही वसंत के दिनों में फूले हुए कचनार की कलियाँ तोड़ते हुए माली से कहता है- ‘अरे लोभी माली! कुछ तो ध्यान कर. कचनार (कचनार की कलीः बाला) को क्यों छेड़े जा रहा है? उसे मत छू. इसपर जो ऊपर से नीचे तक खिले हुए फूलों की शोभा लदी है, वह सारी मिट जाएगी.’ यह सुनकर वह माली उत्तर देता है, ‘अरे अनारी! अर्थात रस न जाननेवाले बटोही! अपना उपदेश अपने पास रख. यहाँ तो वसंत छाया हुआ है.ज्योतिष
‘जनि परसहु कचनार, लोभी माली चेत धरु.
मिटिहे सकल बहार, लदी सिखर तौं मूल लौं..
घर राखहु उपदेश, पथिक अनारी रस सहित.
रितु वसंत इहि देस, फूल चुकी कचनार सब..‘
ज्योतिष
क्या अभिजात्य और क्या लोक-संस्कृति! भारतीय लोकमानस में यह अपने रूप-लावण्य तथा अनुपम छटा के कारण रच-बस गया है. फलरूप लोकगीतों में ही नहीं, साहित्य की विविध विधाओं में भी बहुचर्चित है.
कचनार को देववाणी में ‘कांचाल’ और ‘कांचनार’ की संक्षा से विभूषित किया गया है. परिष्कृत कन्नड़ में भी यह ‘कांचनार’ ही है. ग्रामीण कन्नड़- इसे ‘नंदी बटलु’ कहते हैं! तदनुसार यह शिव के वाहन नंदी की बटलु यानी स्थली है. निश्चय ही यह नाम शिवार्चन में इसकी विशेष पूछ के कारण प्रदान किया गया होगा. बंगला में इसे ‘कांचन’ व गुजराती में ‘चंपाकटी’ तथा तेलुगु में ‘देवकांचनम’ जैसे सार्थक नाम दिए गए हैं.ज्योतिष
वनस्पतिशास्त्रियों ने इसे ‘बाउईनिया वरिएगाता’ कहा है. इसका मनहर वृक्ष मध्यम आकार का तथा तना पीली छालयुक्त होता है. पत्ते का अग्रभाग कटा होता है. ऐसा प्रतीत होता है मानो दो अंडाकार पत्ते जुड़े हुए हों.
इसलिए इसे ‘युग्मपत्र’ भी कहते हैं. इसकी सपाट पुष्पकलिका आगे से नुकीली होती है. खिलने पर पुष्पों में गुलाबी, नील, श्वेत और अरुण वर्णों का अपूर्व मिश्रण उद्भासित होता है. उसकी मंद-मंद सुरभि बड़ी भीनी तथा सौम्य प्रतीत होती है. बहुधा देखने में यह बहुवर्णी चित्रित पुषपदल बड़ा ही चित्ताकर्षक लगता है.ज्योतिष
विद्वानों ने रंगभेद के आधार पर इसके प्रधानतः दो भेद किए हैं- रंगीन फूल को ‘कचनार’ तथा श्वेत को ‘कोविदार’. निघंटुकारों के मत से ये दोनों नाम भिन्न जातियों के सूचक हैं.
ज्योतिष
वनस्पतिशास्त्रियों ने भी दोनों के भिन्न
नामकरण किए हैं. तदनुसार धवल फूलों वाले कोविदार को ‘बाउईनिया पुर्पुरेआ’ नाम दिया है. ‘पातंजल महाभाष्य’ में इसे ‘स्वर्गिक वृक्ष’ कहा है.ज्योतिष
बिहार के वनवासी बंधुओं की लोकभाषा में भी ‘कोइलार’ अथवा ‘कोइनार’ नाम से जिस शंकरप्रिय पुष्प की प्रशस्ति है, वह कोविदार का ही अपभ्रंश रूप है. हाँ, पत्तों तथा वृक्षों के रूप-सादृश्य और औषधीय गुणों के कारण
आयुर्वेदीय वाङमय में कोवितार से कचनार को पृथक नहीं किया गया. दोनों की ही पुष्प कलिकाओं से पकौड़ी, शाक तथा ज़ायकेदार रायता जैसे व्यंजन बनाते हैं. दोनों के ही पुष्प मधुर, कफ-पित्त-कृमिनाशक, रक्त विकार और अतिसार के शामक हैं.ज्योतिष
इसके सुरम्य फूलों की मधुर गंध को टेसू भला कहाँ प्राप्त कर सकते! प्रत्येक फूल बीचोबीच पाँच लंबे पुष्प-केसर होते हैं, जिनके चारों ओर लंबी-नुकीली पंखुड़ियाँ होती हैं. ये पंखुड़ियाँ जड़ पर तंग होती हैं. पंखुड़ियों पर
पतली नाड़ी-रेखाएँ होती हैं और जहाँ-तहाँ रंग में गाढ़ापन रहता है. फूल गुच्छों में खिलते हैं, पर दो-तीन से अधिक एक साथ नहीं. पत्ते पर महीन रेखाएँ अंकित होती हैं, जो खुले हुए पंखे की आकृति की होती हैं. कुछ लोग इनको ऊँट के पाँवों के आकार के बताते हैं तो कुछ लोग गाय या बकरी के खुर की तरह.ज्योतिष
‘वाल्मीकीय रामायण’ में उल्लेख है कि
पंपा सरोवर के तीर पर अवस्थित पर्वत-शिखरों पर वसंत ऋतु में कचनार के फूल खिल रहे थे. सह्याद्रि पर्वत पर फूले हुए कचनार के पेड़ वानरों से समाकुल हो गए थे. हनुमान जी ने भी लंका में फूले हुए कचनार के घने पेड़ों को देखा था. तांत्रिक लोग इस वृक्ष में विस्मयकारी गुणों का समाश्रय मानते हैं. इसलिए ‘मंत्रशास्त्र’ में कचनार का वृक्ष ‘तरुराज’ के रूप में वर्णित है.ज्योतिष
प्राचीन काल में राजाओं को कचनार के वृक्ष से विशेष लगाव था. रथ के ध्वजों में कचनार का प्रयोग होता था. आदिकवि के अनुसार भरत का विशेषण ‘कोविदार ध्वज’ भी था. उसके रथ की ध्वजा का ध्वज-स्तंभ कोविदार
का होगा अथवा फहराती हुई पताका पर कोविदार का फूल अंकित होगा. भारत में विलीन की गई रियासतों के रजवाड़ों में यह रिवाज था कि वे विजयादशमी के पावन अवसर पर अपने सामंतों के साथ निकलकर कचनार के पेड़ के पास जाते थे और उसकी एक शाखा ले आते थे. इस चमत्कारी कचनार-शाखा को देखकर उनके शत्रु सिर नहीं उठा सकते थे. विजयी भरत ने कोविदार को ‘शत्रु-रूपी भूमि के ह्रदय को विदीर्ण करनेवाला’ मानकर अपनी विजय पताका में इसका प्रयोग किया था.ज्योतिष
भारतीय नृपतियों का सर्वाधिक प्रिय यह सुंदर फूल रसिक कवियों को भी खूब भाया था. कालिदास ने इन प्यारे रुचिर फूलों की उपमा टेढ़ी चितवन से दी है, जिसके प्रहार से प्रेमियों के ह्रदय पर गहरी चोट पड़ती है. ‘ऋतुसंहार’
के साक्ष्य से शरद-वर्णन में कवि के कथनानुसार, जिसकी शाखाओं की सुंदर फुनगियों को पवन धीमा-धीमा झुला रहा है, जिसपर बहुत से फूल खिले हुए हैं, जिसकी पत्तियाँ बहुत कोमल हैं और जिसमें से बहते हुए मधु की धार को मस्त-मस्त भौरें धीरे-धीरे चूस रहे हैं, ऐसा कोविदार का वृक्ष किसका ह्रदय टुकड़े-टुकड़े नहीं कर देता-ज्योतिष
‘मत्तद्विरेफपरिपीतमधु प्रसेकश्चितं विदारयति कस्य न कोविदारः.‘
इसी शरद ऋतु में श्रीराम ने भी अपने
वनवास के दिनों में पर्वत शिखरों पर खिले हुए कोविदार के फूलों को देखकर प्रसन्नता प्रकट की थी.ज्योतिष
आजकल यह वृक्ष भारत के प्रायः समस्त प्रदेशों में
और विशेषकर हिमालय की उपत्यकाओं में दृष्टिगोचर होता है. आयुर्वेद की दृष्टि से भी यह एक श्रेष्ठ वनौषधि है.ज्योतिष
हिमालयी लोक इस औषधीय वनस्पति को
“क्वैराल” या “गिरिआल” के नाम से जानता है! गिरआल या क्वैराल हिमालयी राज्यों, विशेषकर उत्तराखंड के साथ-साथ भारत के अधिकांश हिस्सों में भी खिलता है! इसका का रंग गुलाबी-सफेद से हल्के बैंगनी तक भिन्न-भिन्न होता है.ज्योतिष
पहाड़ों में मुख्य रूप से सफेद और बैंगनी रंग के क्वैराल के फूल खिले दिखते हैं. पहाड़ों में गरियाल को बसंत का सूचक व क्वैराल के फूल गर्मियों के सूचक माने जाते हैं. मुख्यतः ये मध्य हिमालय और शिवालिक हिमालय के
जगलों में पाये जाते हैं. इसके पेड़ की लम्बाई मध्यम आकार की होती है. तथा इसके पेड़ की छाल का उपयोग आर्युवेद में खूब किया जाता है. रक्त से जुड़ी बहुत सी बीमारियों में कचनार या गुरिआल (क्वैराल) की छाल के पीसे हुए पाउडर का प्रयोग किया जाता है.ज्योतिष
क्वैराल या गिरयाल का प्रयोग पहाड़ों में दो तरीके से देखा गया है. पहला तो इसके रायते के रूप में दूसरा कच्ची कलियों के रूप में. इसके रायते का प्रयोग सामान्य रूप से पेट के रोगियों की दवा के रूप में भी किया जाता था.
कलियां खाने में मीठी होती हैं. इसका रायता खाने के साथ भी बनाया जाता है. गिरआल की कोपलों और फूलों दोनों का ही रायता बनाया जाता है. इसको पहले साफ़ पानी में उबाल लिया जाता है. उबले हुए क्वैराल या गिरयाल को सिलबट्टे में पीसा जाता है और दही के साथ मिलकर रायता बनाया जाता है. हिमाचल के टीहरा क्षेत्र में कचनार की कलियों से “माद्रा” बनाया जाता है! गढ़वाल हिमालय की रसोई में ग्वैराल को उबाल कर स्वादिष्ट स्वाले, रैला, दाल में मिलाकर भूडे़, बड़ियां भी बनाई जाती है!ज्योतिष
रायते के अलावा क्वैराल या गिरयाल का अचार भी
बनाया जाता है. इसके अतिरिक्त इसकी सब्जी भी बहुत स्वादिष्ट होती है. पिछले कुछ वर्षों में गिरआल या क्वैराल का अचार भी अपने औषधीय गुणों के कारण खासा लोकप्रिय हुआ है. पहाड़ों में आने वाले पर्यटक भी इसका अचार न केवल खूब पसंद करते हैं बल्कि अपने साथ भी ले जाते हैं. इसका अचार उसकी कलियों से ही बनता है.ज्योतिष
आयुर्वेद विशेषज्ञों के
अनुसार इसके गुण विभिन्न रोगों में उपयोगी हैं» सूजन-कचनार की जड़ को पानी में घिसकर लेप बनाकर और इसे गर्म करके इसके गर्म-गर्म लेप को सूजन पर लगाने से आराम मिलता है.
ज्योतिष
» मुंह में छाले होना-कचनार की छाल का काढ़ा बनाकर उसमें थोड़ा-सा कत्था मिलाकर छालों पर लगाने से आराम मिलता है.
» बवासीर-कचनार की एक चम्मच छाल को एक कप मट्ठा (छांछ) के साथ दिन में 3 बार सेवन करने से बवासीर में खून गिरना बंद होता है. कचनार की कलियों के पाउडर को मक्खन और शक्कर मिलाकर 11 दिन तक खाते हैं. आंतों में कीड़े हों तो कचनार की छाल का काढ़ा पीते हैं.
ज्योतिष
» प्रमेह-कचनार की हरी व सूखी कलियों का चूर्ण और मिश्री मिलाकर प्रयोग किया जाता है. इसके चूर्ण और मिश्री को समान मात्रा में मिलाकर 1-1चम्मच दिन में तीन बार कुछ हफ्ते तक खाने से प्रमेह रोग में लाभ होता है.
ज्योतिष
» गण्डमाला-कचनार की छाल का काढ़ा बनाकर उसमें सोंठ का चूर्ण मिलाकर आधे कप की मात्रा में दिन में 3 बार पीने से गण्डमाला रोग ठीक होता है.
» भूख न लगना-कचनार की फूल की कलियां घी में भूनकर सुबह-शाम खाने से भूख बढ़ती है.
ज्योतिष
» गैस की तकलीफ-कचनार की छाल का काढ़ा बनाकर, इसके 20 मिलीलीटर काढ़ा में आधा चम्मच पिसी हुई अजवायन मिलाकर प्रयोग करने से लाभ मिलता है. सुबह-शाम भोजन करने बाद इसका सेवन करने से अफरा (पेट फूलना) व गैस की तकलीफ दूर होती है.
» खांसी और दमा-शहद के साथ कचनार की छाल का काढ़ा 2 चम्मच की मात्रा में दिन में 3 बार सेवन करने से खांसी और दमा में आराम मिलता है.
» दांतों का दर्द-कचनार के पेड़ की छाल को आग में जलाकर उसकी राख को बारीक पीसकर मंजन बना लें. इस मंजन से सुबह एवं रात को खाना खाने के बाद मंजन करने से दांतों का दर्द तथा मसूढ़ों से खून का निकलना बंद होता है. कचनार की छाल को जलाकर उसके राख को पीसकर मंजन बना लें. इससे मंजन करने से दांत का दर्द और मसूड़ों से खून का निकलना बंद होता है.
ज्योतिष
» दांतों के रोग- कचनार की छाल को पानी में उबाल लें और उस उबले पानी को छानकर एक शीशी में बंद करके रख लें. यह पानी 50-50 मिलीलीटर की मात्रा में गर्म करके रोजाना 3 बार कुल्ला करें. इससे दांतों का हिलना, दर्द, खून निकलना, मसूढों की सूजन और पायरिया खत्म हो जाता है.
» अफारा (पेट में गैस बनना)– कचनार की जड़ का काढ़ा बनाकर सेवन करने से अफारा दूर होता है.
» जीभ व त्वचा का सुन्न होना- कचनार की छाल का चूर्ण बनाकर 2 से 4 ग्राम की मात्रा में खाने से रोग में लाभ होता है. इसका प्रयोग रोजाना सुबह-शाम करने से त्वचा एवं रस ग्रंथियों की क्रिया ठीक हो जाती है. त्वचा की सुन्नता दूर होती है.
» कब्ज-कचनार के फूलों को चीनी के साथ घोटकर शर्बत की तरह बनाकर सुबह-शाम पीने से कब्ज दूर होती है और मल साफ होता है. कचनार के फूलों का गुलकन्द रात में सोने से पहले 2 चम्मच की मात्रा में कुछ दिनों तक सेवन करने से कब्ज दूर होती है.
ज्योतिष
» दस्त का बार-बार आना- कचनार की छाल का काढ़ा बनाकर दिन में 2 बार पीने से दस्त रोग में ठीक होता है. पेशाब के साथ खून आना-कचनार के फूलों का काढ़ा बनाकर सुबह-शाम पीने से पेशाब में खून का आना बंद होता है. इसके सेवन से रक्त प्रदर एवं रक्तस्राव आदि भी ठीक होता है.
» बवासीर (अर्श)- कचनार की छाल का चूर्ण बना लें और यह चूर्ण 3 ग्राम की मात्रा में एक गिलास छाछ के साथ लें. इसका सेवन प्रतिदिन सुबह-शाम करने से बवासीर एवं खूनी बवासीर में बेहद लाभ मिलता है.कचनार का चूर्ण 5 ग्राम की मात्रा में प्रतिदिन सुबह पानी के साथ खाने से बवासीर ठीक होता है.
» खूनी दस्त- दस्त के साथ खून आने पर कचनार के फूल का काढ़ा सुबह-शाम सेवन करना चाहिए. इसके सेवन से खूनी दस्त (रक्तातिसर) में जल्दी लाभ मिलता है.
» कुबड़ापन- अगर कुबड़ापन का रोग बच्चों में हो तो उसके पीठ के नीचे कचनार का फूल बिछाकर सुलाने से कुबड़ापन दूर होता है. लगभग 1 ग्राम का चौथाई भाग कचनार और गुग्गुल को शहद के साथ मिलाकर सेवन करने से कुबड़ापन दूर होता है. कुबड़ापन के दूर करने के लिए कचनार का काढ़ा बनाकर सेवन करना चाहिए.
» रक्तपित्त-कचनार के फूलों का चूर्ण बनाकर, 1 से 2 ग्राम चूर्ण सुबह-शाम चटाने से रक्त पित्त का रोग ठीक होता है. कचनार का साग खाने से भी रक्त पित्त में आराम मिलता है. यदि मुंह से खून आता हो तो कचनार के पत्तों का रस 6 ग्राम की मात्रा में पीएं. इसके सेवन से मुंह से खून का आना बंद हो जाता है. कचनार के सूखे फूलों का चूर्ण बनाकर लें और यह चूर्ण एक चम्मच की मात्रा में शहद के साथ दिन में 3 बार सेवन करें. इसके सेवन से रक्तपित्त में लाभ होता है. इसके फूलों की सब्जी बनाकर खाने से भी खून का विकार (खून की खराबी) दूर होता है.
» घाव-कचनार की छाल का काढ़ा बनाकर सुबह-शाम पीने से घाव ठीक होता है. इसके काढ़े से घाव को धोना भी चाहिए.
» स्तनों की गांठ (रसूली)-कचनार की छाल को पीसकर चूर्ण बना लें. यह चूर्ण लगभग आधे ग्राम की मात्रा में सौंठ और चावल के पानी (धोवन) के साथ मिलाकर पीने और स्तनों पर लेप करने से गांठ ठीक होती है.
ज्योतिष
» सिर का फोड़ा-कचनार की छाल, वरना की जड़ और सौंठ को मिलाकर काढ़ा बना लें. यह काढ़ा लगभग 20 से 40 ग्राम की मात्रा में सुबह-शाम पीना चाहिए. इसके सेवन से फोड़ा पक जाता है और ठीक हो जाता है. इसके काढ़े को फोड़े पर लगाने से भी लाभ होता है.
» उपंदश (गर्मी का रोग या सिफिलिस)-कचनार की छाल, इन्द्रायण की जड़, बबूल की फली, छोटी कटेरी के जड़ व पत्ते और पुराना गुड़ 125 ग्राम. इन सभी को 2.80 किलोग्राम पानी में मिलाकर मिट्टी के बर्तन में पकाएं और यह पकते-पकते जब थोड़ा सा बचे तो इसे उतारकर छान लें. अब इसे एक बोतल में बंद करके रख लें और सुबह-शाम सेवन करें.
» चेचक (मसूरिका)-कचनार की छाल के काढ़ा बनाकर उसमें सोने की राख डालकर सुबह-शाम रोगी को पिलाने से लाभ होता है.
» गले की गांठ-कचनार की छाल का काढ़ा बनाकर, इसके 20 ग्राम काढ़े में सोंठ मिलाकर सुबह-शाम पीने से गले की गांठ ठीक होती है.
» गला बैठना-कचनार मुंह में रखकर चबाने या चूसने से गला साफ होता है. इसको चबाने से आवाज मधुर (मीठी) होती है और यह गाना गाने वाले व्यक्ति के लिए विशेष रूप से लाभकारी है.
» गलकोष प्रदाह (गलकोष की सूजन)-खैर (कत्था) के फल, दाड़िम पुष्प और कचनार की छाल. इन तीनों को मिलाकर काढ़ा बना लें और इससे सुबह-शाम गरारा करने से गले की सूजन मिटती है. सिनुआर के सूखे पत्ते को धूम्रपान की तरह प्रयोग करने से भी रोग में आराम मिलता है.
» कचनार के फूल थायराइड की सबसे अच्छी दवा हैं.