हिमालयन अरोमा भाग-2
- मंजू काला
हैदराबाद की गलियों में घूमते हुए मैंने कई बार ‘डोने’ बिरयानी का स्वाद चखा है, ‘बिरडोने’ बिरयानी दक्षिण भारत की एक प्रसिद्ध बिरयानी रेसिपी है। यहां डोने बिरयानी में डोने शब्द का इस्तेमाल किया गया है। डोने एक कटोरी के आकार का पात्र होता है जिसे पत्तों से तैयार किया जाता है। यह रेसिपी थोड़ी सिंपल होती है, हैदराबादी बिरयानी की तरह इसमें ज्यादा मसाले का उपयोग नहीं किया जाता है, इस रेसिपी को दक्षिण भारत में खास तरह के चावल से तैयार किया जाता है जिसे सीरागा सांबा चावल कहा जाता है। यह सांबा चावल एक तरह का चावल ही है लेकिन यह आकार में छोटा होता है और इसमें एक खास तरह का फ्लेवर होता है। इसके साथ ही इस रेसिपी में पुदीना के पत्ते के साथ मैरीनेट किए हुआ बकरी का मीट इस्तेमाल किया जाता है। इस तरह से तैयार की गई इस खास बिरयानी को पत्तों से तैयार किए गए दोनों में परोसा जाता है। इसीलिए इसे दोना बिरियानी कहा जाता है।
अब आप सोच रहे होंगे के खुबानी के साथ बिरयानी का क्या ताल्लुक है। है..न, वो यूँ के जब भी ‘डोना बिरयानी’ परोसी जाती है- तभी उसके तुरंत बाद ‘खुबानी का मीठा’, जो हमारे हिमालयी राज्यों का आम व्यंजन है, दक्षिण में बड़े आदर व एतराम के साथ पेश किया जाता है। हैदराबाद में जब बिरयानी फेस्टिवल होता है, तब भी खुबानी के व्यंजन- हैदराबादी नवाबों के दस्तरख्वान में शान से इठलाते है। वैसे एक बात और हैदराबाद में खुबानी का मीठा खाते हुए कुछ भला सा भी याद आया। ट्विंग टुविस्टर क्या याद है किसी को। चलो मैं याद दिला देती हूँ- ‘चंदू के चाचा ने, चंदू की चाची को, चांदनी चौक में, चांदी की चम्मच से, चट-पट चटनी चटाई’। याद आया न। लेकिन जानते हैं, हमारे पहाड़ों में हम पहाड़ी बच्चे इस टंग टिविस्टर को कुछ यूँ कहते थे- ‘चंदू के चाचा ने, चंदू की चाची को, चांदनी चौक में, चांदी की चम्मच से, चुलु की चट-पट चटनी चटाई…’। जी.. हाँ, हिमालयी लोग खुबानी को चुलु ही कहते हैं। पर एक बात मुझे समझ नहीं आती, वो ये, की क्या सच में कोई चांदनी चौक में चुलु की चटनी बेचता होगा, आखिर कहीं से तो यह बात गई होगी।
सोचती हूँ के कोई प्रवासी उत्तराखण्डी चांदनी चौक में जरूर अपने बच्चों का भरण करने के लिए चेलु की चटनी का ठेला लगाता होगा। यूँ भी दिल्ली तो पहाडियों का प्रिय डेस्टिनेशन है, रोजगार के लिए। जहाँ तक चेलु की बात है, तो जब पहाड़ों की ढलानों पर ग्वैर छौरे बांसुरी की मीठी धुन बजाने लगते हैं और पहाडी़ मैना, प्रेमातुर होकर अपने प्रेयस को यह कहकर- ‘तु कख छै, मी आणु छौं’ कहकर पुकारती है, तब ठीक उसी वक्त पहाड़ों में बसंत का मौसम दस्तक दे रहा होता है। युवा होते बसंत के साथ पहाड़ी क्षेत्र स्वादिष्ट वन्य फलों से जीवंत हो उठते हैं। काफल, किंगोड़, करोंदा और हिसार पहाड़ों पर फलने वाले पेड़ों में से कुछ जाने-पहचाने नाम हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में जाते बसंत और आती गर्मी के मौसम में एक ऐसा फल भी होता है, जिसके बारे में आमतौर पर कम ही लोग जानते हैं। इस फल का नाम है- चुलु।
उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के गांवों के लोग चुलु या एप्रीकॉट को अपने घर के बगीचों में उगाते हैं। चुलु का वानस्पतिक नाम प्रूनस अमेरिकाना है। इस फल के पेड़ औसत ऊंचाई के होते हैं, जिस पर मार्च में फूल लगते हैं। वसंत के मौसम में जब पेड़ पर नई कोंपलें फूटती हैं, उससे ठीक पहले पेड़ गुलाबी आभा लिए हुए सफेद फूलों से आच्छादित हो जाते हैं।
यह महज एक संयोग ही है कि चुलु के पेड़ पर उसी वक्त फूल लगते हैं, जब गढ़वाल क्षेत्र में एक स्थानीय बाल उत्सव फुलदेई मनाया जाता है। इस उत्सव में अल सुबह बच्चे फूल चुनने निकलते हैं और वे इन फूलों को हर घर के दरवाजे पर सजाते हैं। बदले में उन बच्चों को घर के लोग कुछ उपहार देते हैं। यह उत्सव आज भी हिन्दू कैलेंडर के पहले महीने चैत्र (अप्रैल) में मनाया जाता है। मई और जून के महीने में जब गर्मी चरम पर होती है, तब चुलु पकने लगते हैं। हालांकि यह पहाड़ों की ऊंचाई पर भी निर्भर करता है। कम ऊंचाई पर लगे पेड़ों पर फल पहले पकना शुरू हो जाते हैं। हरे फल जैसे-जैसे पकते हैं, उनका रंग पहले पीला फिर नारंगी हो जाता है और स्वाद खट्टा से मीठा होने लगता है।
फलों को पेड़ से तोड़ने का काम हाथ से ही किया जाता है। हमारे गांव के बुजुर्ग हमें सूरज के सीधे प्रकाश के संपर्क वाले फलों को खाने से मना करते थे। वे कहते थे कि ऐसे फल स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकते हैं। फलों को अमूमन सुबह के वक्त तोड़ा जाता है, ताकि इसका इस्तेमाल अलग-अलग कामों के लिए किया जा सके। इसकी गूदेदार बाहरी परत को सीधे या फिर नमक के साथ खाया जाता है। कुछ लोग इसे हरी मिर्च और लहसुन के साथ मिलाकर खाना पसंद करते हैं। अधपके फल से चटनी बनाई जाती है। हमारा पहाड़ी रसोईया कहता है कि इस फल की रोटी को वे बर्फ की कचमोली बनाकर भी खाते हैं, हमारे लिए भी गाँव के भले लोग, खुबानी की रोटियाँ खूब लाते हैं।
कोविड के दिनों में चुलु के व्यंजनों पर मैने खूब हाथ साफ किये हैं और कुछ खाने को था क्या? यह भूख के साथ ही रोजमर्रा के भोजन का स्वाद बढ़ाने का काम भी करता है। मौसमी फल होने और अत्यधिक उत्पादन होने के कारण अधिकतर फल एक साथ पक जाते हैं। गढ़वाल क्षेत्र के लोग चुलु के गूदे से बीज को अलग कर देते हैं और इसे धूप या छांव में सुखाकर रख लेते हैं, जिसका इस्तेमाल साल के बाकी महीनों में चटनी या अन्य स्थानीय व्यंजनों का स्वाद बढ़ाने में किया जाता है। ऊंचे हिमालयी क्षेत्रों में पहाड़ी गडरिये इस फल में अखरोट, घी और गुड़ डालकर ‘मीठा’ भी बनाते हैं, यह मीठा वही है जिसका जिक्र मैं हैदराबाद की डोना बिरयानी के साथ परोसे जाने वाले व्यंजन के रूप में कर चूकी हूँ।
आधुनिक कैफे अब इस व्यंजन को ‘पुडिंग’ एप्रिकाट पाई, एप्रिकाट केक, कुकीज के रूप में भी परोसने लगे हैं, जबकि व्यंजन तो वही है, खुबानी का मीठा। बाकी सब तो परिमार्जित रूप है, अब हम पहाड़ी अपने उत्पादन को परिमार्जित नही करे तो इसमें मल्टीनेशनल कंपनियों का क्या कसूर है भला। आधुनिक पंचसितारा होटल भी अपनी वाइन ट्रे में इस फल के माकटेल, काकटेल (पेय) परोस कर, मुनाफा अर्जित करके- अपनी आर्थिकी सुदृढ़ कर रहे हैं, तो भी किसका दोष- खुबानी का काश्तकार… गरीब का, ये सोचने वाली बात है। मेरे पास तो कोई इलाज नहीं है : मैं तो खुबानी के बाबत ही कुछ कह सकती हूँ, सो.. जानिए..।
चुलु विटामिन ‘ए’ और ‘सी’ का प्रमुख स्रोत है। साथ ही इसमें कैल्शियम, आयरन और फॉस्फोरस भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। ब्राजीलियन जर्नल ऑफ मेडिकल एंड बायोलॉजिकल रिसर्च में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, चुलु के बीज में जीवाणुओं के प्रतिरोध की क्षमता मौजूद है।
खुबानी के गूदे की तरह ही खुबानी के बीज भी औषधीय गुणों के भंडार हैं। चुलु के बीज कड़वे और मीठे, दोनों तरह के स्वाद वाले होते हैं। मीठे बीज का स्वाद बादाम की तरह होता है। बीज का आकार पानी की बूंद की तरह होता है। लाल-भूरे बीजों को धूप में सुखाकर तेल निकाला जाता है, जिसका इस्तेमाल पारंपरिक तौर पर बदन और जोड़ों के दर्द के उपचार में किया जाता है। चुलु के बीज का तेल आयुर्वेदिक दवाओं की दुकानों से खरीदा जा सकता है।
रवांई घाटी / टिहरी और उत्तरकाशी के लोग बीज के तेल का इस्तेमाल अधकपारी के दर्द के उपचार के लिए करते हैं। चुलु के बीज का तेल ठंड के मौसम में राहत प्रदान करते हैं। चुलु को सभी प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है। शुरुआती वर्षों में इसकी छंटाई की जरूरत नहीं होती, लेकिन जैसे-जैसे पौधा बढ़ने लगता है, लम्बी टहनियों की छंटाई करने से पौधे का विकास बेहतर तरीके से होता है। एक पौधा चार-पांच साल में फल देने लगता है और एक वयस्क पेड़ में एक मौसम में करीब 70 किलो तक फल लगते हैं।
भारत के अलावा दुनिया के अन्य देशों में भी चुलु उगाया जाता है। टर्की, ग्रीस, स्पेन, इटली, यूएस और फ्रांस चुलु के प्रमुख उत्पादक देश हैं। भारत में यह उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में समुद्र तल से 1,200-2,500 मीटर की ऊंचाई पर उगाया जाता है। चुलु विटामिन ‘ए’ और ‘सी’ का प्रमुख स्रोत है। साथ ही इसमें कैल्शियम, आयरन और फॉस्फोरस भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। ब्राजीलियन जर्नल ऑफ मेडिकल एंड बायोलॉजिकल रिसर्च में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, चुलु के बीज में जीवाणुओं के प्रतिरोध की क्षमता मौजूद है।
चुलु में प्रचुर मात्रा में पोषक तत्वों की मौजूदगी और इसमें समाहित औषधीय गुणों के बावजूद इसकी वानिकी के वाणिज्यीकरण के प्रयास आवश्यक्तानुरूप नहीं किये गए हैं। गोपेश्वर स्थित हर्बल रिसर्च एंड डेवलपमेंट इंस्टिट्यूट के वैज्ञानिकों के अनुसार, चुलु का उत्पादन पिछले कुछ वर्षों में तेजी से घटा है। नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय औषधीय पादप संस्थान भी मानता है कि ‘चुलु की वानिकी न सिर्फ स्थानीय लोगों की आजीविका का साधन बन सकते हैं, बल्कि औषधीय गुणों की वजह से यह वहां के लोगों का स्वास्थ्यवर्धन भी करेगा।’