- मीना पाण्डेय
आज से कुछ 18-20 साल पहले हीरा सिंह राणा जी से अल्मोड़ा में ‘मोहन उप्रेती शोध समिति’ के कार्यक्रम के दौरान पहली बार मिलना हुआ. तब उनकी छवि मेरे किशोर मस्तिष्क में ‘रंगीली बिंदी’ के लोकप्रिय गायक के रूप में रही. उसके बाद दिल्ली आकर कई कार्यक्रमों में लगातार मिलना हुआ. मध्यम कद-काठी पर मटमैला कुर्ता और गहरे रंग के चेहरे को आधा ढ़ापती अर्द्ध-चंद्राकार दाड़ी. चेहरे-मोहरे और वेश भूषा में भी वे लोक के प्रतीक रहे. उनकी कविताओं और गीतों में पहाड़ के परिवेश व संस्कृति के प्रति गहरा लगाव स्पष्ट दिखाई देता है. राणा जी की रचनाओं का वितान बहुत वृहद रहा. वहां श्रृंगार है, जन आंदोलनों को उत्साह से भर देने के गीत हैं, प्रकृति के प्रति अनुराग है और अपनी संस्कृति के प्रति अकाट्य प्रेम भी.
ये दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि हीरा सिंह राणा जी की लोकगायक के रूप में लोकप्रियता के प्रकाश में उनका कवि स्वरुप कहीं उपेक्षित सा रह गया. कुमाऊनी भाषा के एक सशक्त कवि के रूप में उनका आकलन होना अभी शेष है. कुमाऊनी बोली-भाषा के संवर्द्धन और संरक्षण में भी उनका योगदान अमूल्य है.
हीरा सिंह राणा जी का जन्म मानिला (भिकयासैण, अल्मोड़ा) के डढ़ोली गांव में 16 सितंबर सन 1942 को हुआ. वे दसवीं तक पढ़े थे. ज्यादा पढ़-लिखे न होने पर भी अपना रचना कर्म और गायिकी उन्होंने जीवन के लंबे संघर्ष और अनुभव की अग्नि में तपाकर निखारे. उनके प्रमुख काव्य संग्रह में ‘प्योली और बुरांश’, मनख्यों पड्यों मैं’, मानिले डानि’ सम्मिलित हैं. ये दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि हीरा सिंह राणा जी की लोकगायक के रूप में लोकप्रियता के प्रकाश में उनका कवि स्वरुप कहीं उपेक्षित सा रह गया. कुमाऊनी भाषा के एक सशक्त कवि के रूप में उनका आकलन होना अभी शेष है. कुमाऊनी बोली-भाषा के संवर्द्धन और संरक्षण में भी उनका योगदान अमूल्य है. उन्होंने लोक भाषा में लोकसंवेदना को गीतों में पिरोया. इसीलिए दिल्ली में कुमाऊनी-गढ़वाली भाषा अकादमी बनने पर उत्तराखंड समाज द्वारा सर्वसम्मति से उपाध्यक्ष पद हेतु उनके नाम का समर्थन किया गया.
‘रंगिली बिन्दी’ उनके सबसे चर्चित गीतों में एक है. गीत में अविस्मरणीय बोलों के साथ पहाड़ी ठसक में गायक का ‘आय हाय हाय रे’, ‘ओय होय होय रे’ टेक विशेष रूप से अपना ध्यान खींचता है.
एक रचनाकार के रूप में उनका प्रेयसी के प्रति प्रेम जब अपने अनगढ़ और लोक ठसक के साथ प्रस्फुटित होता है तब कवि उसके हाव-भाव, वेशभूषा, नैन-नक्श इत्यादि को अनेक उपमाओं से विभूषित करने लगता है. ‘रंगिली बिन्दी’ उनके सबसे चर्चित गीतों में एक है. गीत में अविस्मरणीय बोलों के साथ पहाड़ी ठसक में गायक का ‘आय हाय हाय रे’, ‘ओय होय होय रे’ टेक विशेष रूप से अपना ध्यान खींचता है.
सरसरी तौर पर देखने पर उनका गीत-कर्म नारी सौंदर्य वर्णन, मनुहार, प्रकृति के प्रति मुग्ध भाव लिए रुमानी दृष्टिगोचर होता है. मगर उन्होंने बेहद संजीदा रचनाएं भी लिखी और गुनगुनाई.
पहाड़ों के संघर्ष और दुर्गम जनजीवन के केंद्र में वहां की परिश्रमी स्त्रियां हैं. उन स्त्रियों के दुख भी पहाड़ से हैं. उन मेहनतकश स्त्रियों की पीड़ा और श्रम को सार्थक शब्द देते हुए राणा जी लिखते हैं-
‘हे नारी नमन त्यहे, जग मौहतारी,
त्वील अपणा आंस पीय उमरमा सारी.’
प्रेम का सबसे सुंदर स्वरूप है देशप्रेम. मातृभूमि के लिए अपने प्रगाढ़ प्रेम को जब कवि शब्दों में उड़ेल देता हैं तो ये गीत अपनी नियति लिखता है-
‘गंगा जमुना बगनि, दादी हमर देश मा.
जनमा भगवान लिनी दादी हमर देश मा.’
एक जगह राज्य आन्दोलन के शहिदों का स्मरण करती उनकी कविता की पंक्तियां हैं-
‘पहाड़ा का वीर च्यलौ तुमु हैं प्रणाम,
हिमाले कि चार ऊंची करि गौछा नाम.’
जीवन की विषमताओं से निराश, टूटे मन में उत्साह का अलख जगाते उनके गीत निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहे हैं-
‘लस्का कमर बांधा,
हिम्मत का साथा,
फिर भोव उजाली हली
का रैली राता.’
पहाड़ के नाम पर हो रही तथाकथित तुच्छ राजनीति और अवसरवादिता के कड़वे सत्य को एक जगह वे जैसे निकाल कर कागज़ पर रख देते हैं-
‘म्यर पहाड़ त्यर पहाड़
रोय दुखों का ड्यर पहाड़.’
आज विकसित तकनीकी व अनेक माध्यमों के साथ हर दिन एक कवि या गायक जन्म लेता है और रातों-रात प्रसिद्धि भी मिल जाती है. मगर हीरा सिंह राणा जैसे लोक कवि और गायक कौतिक, मेले-ठेलों, जन आंदोलनों के माध्यम से लोक मानस में जगह बनाकर यहां तक पहुंचे हैं. यही वजह है कि उनकी आवाज पहाड़ की अपनी आवाज बन गई. हरदा लोक के ऐसे कवि और गायक थे जो बनाए नहीं जाते, अपने परिवेश के साथ बनते, संवरते हैं और लोक के संघर्षों से जिनका अनुभव जगत विकसित होता है. उनके गीतों में पहाड़ की गीली मिट्टी की गंध थी और वहां के दुर्गम जनजीवन की पीड़ा भी.
हीरा सिंह राणा जैसे कलाकार मरते नहीं अपने गीतों के माध्यम से लोक की संवेदना से जुड़कर अमर हो जाते हैं.
(लेखिका सीसीआरटी भारत सरकार द्वारा फैलोशिप प्राप्त व विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित हैं. देश की कई पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी एवं आलेख प्रकाशित. हिंदी त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘सृजन से’ की संपादक तथा भातखंडे विद्यापीठ लखनऊ से कत्थक नृत्य में विशारद हैं)