एक धर्मशास्त्रीय विवेचन
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
इस बार 9 सितंबर,2021 (भादो 24 पैट)
को भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि और हस्त नक्षत्र के पावन अवसर पर हरताली तीज और सामवेदी ब्राह्मणों का उपाकर्म का पर्व मनाया जा रहा है. इस दिन अखंड सौभाग्य व उत्तम वर की कामना से महिलाएं व युवतियां निर्जल निराहार रहकर शिव-पार्वती का पूजन करती हैं.कोलकाता
धर्मशास्त्रीय मान्यता के अनुसार इस दिन हस्त नक्षत्र के अवसर पर कुमाऊं उत्तराखंड के सामवेदी तिवारी ब्राह्मणों द्वारा यज्ञोपवीत धारण तथा रक्षासूत्र बंधन का पर्व ‘हरताली’ मनाया जाता है. सदियों से चली आ रही इस ‘हरताली’ की परम्परागत मान्यता के अनुसार
कुमाऊं में तिवारी, तिवाड़ी, तेवारी, तेवाड़ी, त्रिपाठी, त्रिवेदी आदि उपनामों से प्रचलित सामवेदी ब्राह्मण ‘हस्त’ नक्षत्र में ही ‘हरताली’ तीज पर जनेऊ धारण करते हैं. हरताली के दिन प्रातःकाल यज्ञोपवीत धारण किया जाता है और बहनें अपने भाइयों को रक्षासूत्र बांधती हैं तथा उनके सौभाग्यशाली जीवन एवं दीर्घायुष्य की कामना करती हैं.हरताली
प्राचीन काल से ही परम्परा चली आ रही है कि हमारे गांव जोयूं उत्तराखंड तथा पार्श्ववर्ती क्षेत्र के गौतम गोत्र के तिवारी ब्राह्मण श्रावण पूर्णिमा के बदले भाद्रपद मास की तृतीया ‘हरताली तीज’ के अवसर पर ‘हस्त’ नक्षत्र में यज्ञोपवीत धारण और रक्षाबंधन का पर्व मनाते आते आए हैं. तिवारी समुदाय के लोग श्रावणी पूर्णिमा को छोड़कर
हरतालिका तीज के अवसर पर जनेऊ संस्कार और रक्षाबंधन का त्योहार क्यों मनाते हैं ? इस संबंध में शास्त्रों से जांच पड़ताल की, तो पता चला कि वैदिक काल से चली आ रही परम्परा के अनुसार ऋग्वेदी एवं यजुर्वेदी ब्राह्मण श्रावणी पूर्णिमा को तथा सामवेदी ब्राह्मण भाद्रपद मास के ‘हस्त’ नक्षत्र में हरतालिका तीज के अवसर पर यज्ञोपवीत धारण का धार्मिक अनुष्ठान करते आए हैं जिसे धर्मशास्त्रीय शब्दावली में ‘उपाकर्म’ संस्कार के नाम से भी जाना जाता है.सनातन धर्म की वैदिक
इस सम्बन्ध में सनातन धर्म की वैदिक परम्परा कहती है कि जिस प्रकार चार वेद हैं, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद उसी प्रकार उनके मंत्रों को अलग ब्राह्मण शाखाओं द्वारा कण्ठस्थ करके संरक्षित करने वाले ब्राह्मण वर्ग की भी चार शाखाएं होती हैं. ऋग्वेद शाखा के ब्राह्मण ‘ऋत्विक’, सामवेद के ब्राह्मण ‘उद्गाता’,
यजुर्वेद के ब्राह्मण ‘होता’ और अथर्ववेद के ब्राह्मण ‘ब्रह्मा’ कहलाते हैं. इस प्रकार जो भी ब्राह्मण जिस वेद का अनुयायी होगा उसकी धार्मिक परम्पराएं उसी वेद शाखा के अनुसार शास्त्रोक्त परम्पराएं मानी जाती हैं. जैमिनीय न्यायमाला (2.4.2 ) में भी स्पष्ट कहा गया है कि वेद की स्वशास्त्रोक्त पद्धति के अनुसार ही ब्राह्मण को कर्म करना चाहिये –सनातन धर्म की वैदिक
“मंत्रभेदादेकवेद शाखाभेदो विधीयते.
तस्मात् स्वशाखामंत्रैश्च कर्म कुर्यादतंद्रितः..”
इसलिए कूर्मांचल में जितने भी तिवारी त्रिपाठी
ब्राह्मण हैं वे सब सामवेदीय ब्राह्मण कहलाते हैं और उनकी वैदिक शाखा ‘कौथुमी’ कहलाती हैं. उनके यज्ञोपवीत धारण का पर्व श्रावणी पूर्णिमा न होकर ‘हस्त’ नक्षत्र की ‘हरतालिका’ होती है.सनातन धर्म की वैदिक
सन् 2012 में अधिक मास होने के कारण हरताली मनाने पर कुछ विवाद भी उठा था. उस साल कुछ लोगो ने तो 24 जुलाई को ही हरताली मना ली तो कुछ ने 18 सितम्बर को मनाई
लेकिन धर्मशास्त्रीय व्यवस्था के अनुसार हरताली अपने निर्धारित समय और तिथि पर ही मनाई जाती है. इस संबंध में पं. केवलानंद त्रिपाठी (रामनगर) के अनुसार अधिकमास अशुद्ध नहीं होता बल्कि उसमें धार्मिक अनुष्ठान व पूजा-पाठ और ज्यादा होते है . ‘सामगानामुपाकर्म’ (हरताली) पर देव तर्पण, ऋषि तर्पण व पितर तर्पण आदि होते हैं. अधिकमास केवल विवाह, ब्रतबंध और गृह प्रवेश के लिए वर्जित है. इसलिए कुमाऊं में प्रचलित पं. रामदत्त ज्योतिर्विद द्वारा संस्थापित पंचांग के अनुसार अधिकतर सामवेदी तिवारी ब्राह्मणों ने अधिक मास का विचार किए बिना 21अगस्त के दिन निर्धारित हस्त नक्षत्र पर ही हरताली के पर्व ‘को मनाया.सनातन धर्म की वैदिक
ज्योतिषाचार्य डा. गोपाल दत्त त्रिपाठी के अनुसार भी सामवेदी ब्राह्मणों का उपाकर्म ऋषि तर्पण सामवेद मंत्रों के विधि के अनुसार भाद्रपद शुक्ल तृतीया हस्त नक्षत्र में होने का विधान है.
इस दिन हस्त नक्षत्र होना आवश्यक है और मल मास आदि का कोई विचार नहीं किया जाता. इसलिए भाद्रपद शुक्ल तृतीया हस्त नक्षत्र से युक्त तिथि को ही ‘सामगानामुपाकर्म’ हरताली होना शास्त्रसम्मत माना गया. श्रृंगी ऋषि के वचनानुसार सामवेदियों का उपाकर्म सिंह के सूर्य में भाद्रपद मास में ही होना चाहिए. 1974 में राजा आनंद सिंह की अध्यक्षता में अल्मोड़ा के सामवेदी ब्राह्मणों ने भी इस निर्णय को स्वीकार किया था.सनातन धर्म की वैदिक
‘उपाकर्म’ का धर्मशास्त्रीय महत्त्व
हमारे देश के पर्व और उत्सवों के औचित्य को जानने समझने के लिए भारत की ऋतुविज्ञान की परम्परा के साथ साथ प्राचीन शिक्षा पद्धति का ज्ञान भी बहुत जरूरी है. ‘उपाकर्म’ का अर्थ है शिक्षा का प्रारंभ करना. ‘उपाकरण’ का अर्थ है आरंभ करने के लिए निमंत्रण या निकट लाना.वैदिक काल में यह वेदों के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों का गुरु के पास एकत्रित होने का काल था. इस अध्ययन सत्र का समापन, उत्सर्जन या उत्सर्ग कहलाता था. यह सत्र माघ शुक्ल प्रतिपदा
या पौष पूर्णिमा तक चलता था.श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के शुभ दिन रक्षाबंधन के साथ ही श्रावणी उपाकर्म का पवित्र संयोग बनता है.विशेषकर यह पुण्य दिन ब्राह्मण समुदाय के लिए बहुत महत्त्व रखता है.इसके प्रारम्भ काल के बारे में भी धर्मग्रन्थों में व्यवस्थाएं दी गई हैं. ‘उपाकर्म’ के लिए कौन कौन सी तिथियां श्रेयस्कर हैं उसके लिए पारस्कर गृह्यसूत्र का कथन है कि- “जब वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं, श्रावण मास के श्रवण व चंद्र के मिलन (पूर्णिमा) या हस्त नक्षत्र में श्रावण पंचमी को ‘उपाकर्म’ होता है-सनातन धर्म की वैदिक
“ओषधीनां प्रादुर्भावे
पौर्णमास्यां श्रावणस्य पंचमी हस्तेन वा..”
-पारस्कर.गृ.सूत्र 2.10.1
इसी प्रकार की व्यवस्था आश्वलायन
गृह्यसूत्र 3.4.10 में भी दी गई है और ‘व्रतपर्वविवेक’ में भी हस्त नक्षत्र युक्त पंचमी को ही उपाकर्म के लिए प्रशस्त माना गया है.सनातन धर्म की वैदिक
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- आखिर ‘हस्त’ नक्षत्र को उपाकर्म के लिए इतना महत्त्व क्यों दिया गया है? इसका कारण भी वैज्ञानिक है. ‘हस्त’ नक्षत्र का स्वामी चन्द्रमा तथा देवता सविता है और गायत्री मंत्र के देवता भी सूर्य हैं और उपाकर्म के अवसर पर यज्ञोपवीत को हाथ पर लपेट कर जप किया जाता है. ‘हस्त’ का शाब्दिक अर्थ भी हाथ ही है.यदि श्रावण पूर्णिमा का मुहूर्त्त ग्रहण या संक्रांति अथवा अन्य सूतक, नातक की वजह से दूषित हो गया हो अथवा किसी अनिष्ट के कारण हाथ से निकल गया हो तब आने वाला प्रशस्त नक्षत्र ‘हस्त’ नक्षत्र ही होगा. यही कारण है कि प्राचीन ऋषि परम्परा में गौतम गोत्र के सामवेदी ब्राह्मण किसी कारण अथवा अनिष्ट की वजह से श्रावणी पूर्णिमा को अपना यज्ञोपवीत धारण का उपाकर्म संस्कार नहीं कर पाए होंगे, तो भाद्रपद मास की हरतालिका को ‘हस्त’ नक्षत्र के अवसर पर यह यज्ञोपवीत संस्कार किया जाने लगा.
सनातन धर्म की वैदिक
- प्राचीन काल की शिक्षा व्यवस्था में जब स्नातक अपनी शिक्षा पूरी करने के पश्चात गुरुकुल से विदा लेता था, तो वह आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उसे रक्षासूत्र बांधता था जबकि आचार्य अपने विद्यार्थी को इस कामना के साथ रक्षासूत्र बांधता था कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है, वह उसका अपने भावी जीवन में समुचित रूप में प्रयोग करे ताकि वह अपने ज्ञान के साथ-साथ आचार्य की गरिमा की रक्षा करने में भी समर्थ हो सके. गुरु अपने शिष्य को तथा ब्राह्मण अपने यजमान को रक्षासूत्र बांधते हुए इस मंत्र का उच्चारण करते हुए कहता था –
“येन बद्धो बलि:
तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥”.
सनातन धर्म की वैदिक
अर्थात – जिस रक्षासूत्र से महान
शक्तिशाली दानव नरेश राजा बलि को बांधा गया था, उसी रक्षाबन्धन से मैं तुम्हें बांधता हूं जो तुम्हारी रक्षा करेगा.सनातन धर्म की वैदिक
प्राचीन काल में ‘उपाकर्म’ संस्कार तीन चरणों में सम्पन्न होता था– प्रायश्चित संकल्प, यज्ञोपवीत धारण और स्वाध्याय. सर्वप्रथम ब्रह्मचारी शिष्य गुरु के सान्निध्य में पंचगव्य तथा पवित्र कुशा से स्नान कर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित करने का संकल्प लेता था. जिससे उसके जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता था. स्नान आदि करने के बाद दूसरे चरण में ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता था.
यज्ञोपवीत या जनेऊ धारण आत्म संयम का संस्कार है. जिनका यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका होता है,आज के दिन वे पुराना यज्ञोपवीत उतारकर नया धारण करते हैं और पुराने यज्ञोपवीत का पूजन भी करते हैं . इस संस्कार के द्वारा व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है. इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही यज्ञोपवीत संस्कार से दूसरे जन्म के कारण ‘द्विज’ कहलाता है-सनातन धर्म की वैदिक
“जन्मना जायते शूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते”
अर्थात जन्म से सभी शूद्र उत्पन्न होते हैं संस्कारों से ही मनुष्य ‘द्विज’ कहलाता है.
उपाकर्म का तीसरा चरण स्वाध्याय का है. इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति,अनुमति, छंद और ऋषि को घी की आहुति से होती है.
जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं. इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है. इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती थी. वर्तमान में श्रावणी पूर्णिमा के दिन ही उपाकर्म और उत्सर्ग दोनों विधान कर दिए जाते हैं. भारतीय जीवन दर्शन की दृष्टि से यह उपाकर्म विधान हमें स्वाध्याय और सुसंस्कारों के विकास के लिए प्रेरित करता है. श्रावणी उपाकर्म करने के बाद जब ब्राह्मण घर लौटता था तब बहनें उसके हाथ में रक्षासूत्र बांधती थी. पर रक्षाबंधन त्यौहार भाई-बहन के पर्व के रूप में बहुत बाद में प्रचलन में आया.सनातन धर्म की वैदिक
हरतालिका तीज का माहात्म्य
हरतालिका तीज के दिन भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा की जाती है | शिव पुराण की एक कथानुसार इस पावन व्रत को सबसे पहले राजा हिमवान की पुत्री माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए किया था और उनके तप और आराधना से खुश होकर भगवान शिव ने माता को पत्नी के रूप में स्वीकार किया था. ‘हर’ भगवान शिव का ही एक नाम है और शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए पार्वती ने इस व्रत को रखा था, इसलिए इस पावन व्रत का नाम हरतालिका तीज रखा गया. नारी के सौभाग्य की रक्षा करनेवाले इस व्रत को सौभाग्यवती स्त्रियां अपने अक्षय सौभाग्य और सुख की लालसा हेतु श्रद्धा,
लगन और विश्वास के साथ मनाती हैं. कुवांरी लड़कियां भी अपने मन के अनुरूप पति प्राप्त करने के लिए इस पवित्र पावन व्रत को श्रद्धा और निष्ठा पूर्वक करती है. उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल और बिहार में मनाया जाने वाला यह त्यौहार करवाचौथ से भी कठिन माना जाता है क्योंकि जहां करवाचौथ में चांद देखने के बाद व्रत तोड़ दिया जाता है वहीं इस व्रत में पूरे दिन निर्जल व्रत किया जाता है और अगले दिन पूजन के पश्चात ही व्रत तोड़ा जाता है.सनातन धर्म की वैदिक
‘हरताली’ पर्व के अवसर पर
आप सभी को हरतालिका तीज की हार्दिक शुभकामनाएं.(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के
रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)