पुस्तक समीक्षा
- कृपाल सिंह शीला
प्रकृति प्रेमी हरसिंह मनराल जी का बचपन गाँवों में बीता है. पहाड़ से उनकी यादें जुड़ी हैं. उन्हें अपने गाँव से आज भी उतना ही लगाव, प्रेम है, जितना गाँव में निवासित लोगों के दिलों में है. पहाड़ की जड़ों से जुड़े दिल्ली प्रवासी श्री हरसिंह मनराल जी सहज सरल व मिलनसार प्रवृति के इंसान हैं. उनका सहज सरल व्यवहार आज भी लोगों को उनसे जोड़े रखता है. पहाड़ में बिताये बचपन की यादों को अपनी पुस्तक ‘मेरो पहाड़’ में एक पुराने संस्मरण के रूप में संजोने का अनूठा प्रयास है.
‘मेरो पहाड़’ पुस्तक में लिखे गये संस्मरण में पहाड़ की सुंदरता, प्राकृतिक संसाधन व जलश्रोत, ग्रामीण अंचलों के मेले, यात्रा वृतांत पहाड़ की जीवन शैली का बखूबी सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है. ‘चार मास का बाँस’ संस्मरणात्मक लेख में श्री हरसिंह मनराल जी द्वारा अपने कष्टमय और अभावों भरे प्रारम्भिक जीवन का सहज भाषा में वर्णन किया है. अपने सभी लेखों में मनराल जी द्वारा ठेठ कुमाउनी शब्दों का भी बखूबी प्रयोग किया है. जो उनकी लेखनी में चार-चाँद लगाने के साथ उनकी अपनी दुदबोली/मातृभाषा कुमाउनी के प्रति अगाध लगाव को दर्शाता है. ‘चार मास का बाँस’ में मनराल जी ने अपने जन्म के विषय में लिखा है कि उनका जन्म अपने पैतृक गाँव दरमोली (सल्ट) से सैकड़ों मील दूर घने वन में हुआ. वन (बण) में स्त्री-पुरुष पूरे परिवार के साथ चार महीने मजदूरी हेतु सरकारी बाँस या बाबिल घास (एक प्रकार की मजबूत घास, जिसे रस्सी बनाने में प्रयुक्त किया जाता है) काटने के लिए बणक्वट (वन में बाँस/घास काटने) जाया करते थे. हरसिंह मनराल जी ने अपने गाँव के नजदीक में गर्मी के मौसम (मार्च,अप्रैल,मई) में लगने वाले माछी मेला (डहौव) का बहुत सुंदर, सजीव वर्णन अपनी पुस्तक ‘मेरो पहाड़’ में किया है. यह माछी मेला (डहौव) रामगंगा नदी किनारे रहने वाले लोगों (मच्छेरियों) के लिए कुछ समय (पार्ट टाइम) के लिए रोजगार का साधन हुआ करता था. मनराल जी ने पश्चिम बंगाल के खेतों के किनारे मछली के जल-ताल को भी संदर्भित किया है. उनके द्वारा अपने बंगाली दोस्त से सुना है कि उनके यहाँ माता-पिता अपनी लड़की के विवाह के समय तोहफ़े (दहेज) में मछली के जल-ताल भी दिये जाते हैं. मछली का काल है जाल जिसे बनाना व उसे खेना (जाल फेंकना) दोनों ही अपने आप में किसी कला से कम नहीं है. नदी किनारे बसे ग्रामीण लोगों के लिए मछली मारना “साग की बाड़ी” (सब्जी की क्यारी) जैसा है.
लेखक हरसिंह मनराल जी के द्वारा अपनी पुस्तक में हिंदी शब्दों के साथ-साथ ठेठ कुमाउनी के शब्दों का भी प्रयोग किया है. जो उनके लेखन को सशक्त करने के साथ-साथ उनकी वर्णनात्मक भाषा शैली में भी चार-चाँद लगाने का काम कर रही है.
अपने विविध विषयों में लिखे लेखों में मनराल जी द्वारा कुमाउनी भाषा के पुट का भी बड़ी सजीवता के साथ प्रमुखता से प्रयोग किया है. बहुत सरल शब्दों, वाक्यों में, हर लेख को पाठकों तक सहजता से पहुँचाने का प्रयास प्रशंसनीय, काबिलेतारीफ़ है. उर्दू शब्द का भी प्रयोग उनके लेखों में बखूबी देखा जा सकता है. पहाड़ी अनाजों, कृषि में प्रयुक्त यंत्रों, पशुओं, जीव-जन्तुओं के नाम हिंदी के साथ-साथ कुमाउनी में भी लिखा जाना लेख को पूर्ण व आत्मीय रूप से समझने समझाने में सफल है. कुमाउनी लोकोक्तियों, कहावतों (किस्सों) का भी बखूबी वाक्यानुसार सफल प्रयोग देखा जा सकता है. हरसिंह मनराल जी, का पहाड़ प्रेम उनके द्वारा लिखित किताब ‘मेरो पहाड़’ में सजीवता से साथ स्मृति पटल पर उतर आता है.
अपने यात्रा वृतांत अल्मोड़ा (कौसानी) को लिखित अभिव्यक्ति प्रदान कर रोचकता के साथ पाठकों के मन में उतारने के लिए पुराने फिल्मी गानों की चंद पंक्तियों को सन्दर्भ के रूप में बखूबी इस्तेमाल किया है. लेखक लिखते हैं कि सफर के दौरान हमने संगीत का खूब आनंद लिया. ‘नदिया के पार’ फिल्म के गाने जैसे ऐसी यात्राओं के लिए ही बने हैं—कौन दिशा में लेके चला रे बटोहिया—2, रे ठहर-ठहर, ये सुहानी सी डगर! जरा देखन दे… देखन दे, जरा…
हरसिंह मनराल द्वारा अपने लेख ‘पहाड़ी संसाधन व जलस्रोत’ में उस समय में पहाड़ी लोगों के जीवन, उस समय के कठिन, कष्टदायक जीवन को भी रेखांकित करने का बखूबी प्रयास किया है. उस समय गाँव के लोग अपनी मूलभूत आवश्यकताओं चाय, चीनी, मिट्टी का तेल खरीदने के लिए गाँव से सड़क मार्ग तक पहाड़ी व तंग रास्तों से होते हुए कच्चे आम के कट्टे व मिर्च के बोरे सर पर रखकर भाड़ा ढोते व वापसी में गाँव के राशन दुकानदारों का सामान ढोकर दोतरफा भाड़े के रुपयों से अपनी मूलभूत आवश्यकताऐं पूरी किया करते. (कृषि) खेती की उपज चौलाई व सरसों से भी वर्षभर का नमक व तेल जुटाया करते थे. बोझ की थकान से आते-जाते कई जगह पर बिशण (विश्राम) करना ही पड़ता था. इन सब कार्यों को करने में अक्सर घर की महिलायें ही भागीदारी दिया करती थी, उस समय लगभग सभी के घरों में हाथचक्की (जानर) हुआ करते थे. ज्यादा मात्रा में गेहूँ, मडुवा, पिसाने के लिए लोग पिसाई के लिए पनचक्की (घट/घराट) जाया करते थे. जहाँ पर घट के मालिक (घट का गोसांई) को अनाज पिसाई से पूर्व क्वरभाग या पिसाई के बाद पिसा आटा भाग के रूप में दिया जाता था. पिसाई का भाग दो हाथों के अंजुली से दिया जाता था. लेखक द्वारा इस संदर्भ में प्रसिद्ध कहानीकार शेखर जोशी की कहानी ‘कोशी का घटवार’ का भी उल्लेख किया है. बिशण (विश्राम), सार (सरहद), नौला (जलघर), अघ्यार (अपनी बारी) और भी बहुत सारे कुमाउनी शब्दो का सहज प्रयोग, पुस्तक ‘मेरो पहाड़’ में देखा जा सकता है. हरसिंह मनराल ने ‘वह आम का पेड़’ संस्मरण में लिखा है. गाँव में सब्जी बोने के बाड़े में उनका आम का एक बहुत बड़ा पेड़ था. जिसकी ऊँचाई लगभग दस मंजिला इमारत के बराबर थी. इस पेड़ से गिरने वाले कच्चे-पक्के आम जो कि हमारे घर के आँगन के अलावा अन्य घरों के आँगन में भी गिरा करते थे, गाँव के आमों के पेड़ों का नाम उनके स्वाद अथवा पूर्वजों के नाम से होते थे. यह पेड़ “बुढ़ौडौ” के नाम से प्रसिद्ध रहा. मनराल जी द्वारा अपने पिता की बतायी बात को भी इस लेख में उद्घृत किया है. 1960 के दशक में गाँवों में हैजे जैसी संक्रामक बीमारी फैल गयी थी. उस समय में डाक्टरों व दवाओं की व्यवस्था/साधन उपलब्ध न होने के कारण हर गाँव से चार-पाँच बुजुर्गों को काल ने अपना ग्रास बनाया था. मनराल जी ने अपने संस्मरण में लिखा है इस संक्रामक बीमारी से मेरा घर भी अनछुआ नहीं रहा था. इस संक्रामक बीमारी से बचाव हेतु मेरे पिताजी ने एक सप्ताह तक दिन-रात उसी आम के पेड़ पर एक कम्बल लेकर समय बिताया था. पेड़ पर ही खाना-पानी रस्सियों के सहारे भेजा जाता था. वह आम का पेड़ मेरे पिताजी के लिए बीमारी से समय आश्रयदाता की भूमिका में रहा था, हरसिंह मनराल जी उत्तराखण्ड का कला-लोक पर भी अपनी प्रभावी लेखनी चलायी है. उत्तराखण्ड की कला व संस्कृति पुरात्त्विक खोजों के अनुसार भी बहुत समृद्ध दिखती है. यहाँ के लोक-संगीत में भारत के आदिकाल के इतिहास की झलक दिखती है. उत्तराखंड के अधिकांश कला देवताओं के पूजन व कहानियों से प्रेरित दिखती हैं. जिसमें रामायण से प्रेरित रम्माण, महाभारत से प्रेरित चक्रव्यूह, पाण्डवों से प्रेरत पांडव नृत्य आदि सम्मिलित हैं. उत्तराखंड की ऐतिहासिक संस्कृति को आगे बढ़ाने में यहाँ के बहुत से लोक-गायकों, रंगकर्मियों, कवियों, नर्तकों आदि का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. अपने लेख के माध्यम से उत्तराखंड के सुप्रसिद्ध लोकगायकों, रंगकर्मियों, कवियो को सम्मान देना है. सुप्रसिद्ध रंगकर्मी लोक कलाकार मोहन उप्रेती, सुप्रसिद्ध गीतकार, लोकगायक हीरा सिंह राणा, गोपाल बाबू गोस्वामी, नरेन्द्र सिंह नेगी, चन्द्रसिंह राही, डॉ. माधुरी बड़थ्वाल, श्रीमती बीना तिवारी, प्रीतम भरतवाण (जागर सम्राट) लोकगायिका कबूतरी देवी, बसंती बिष्ट, कुमाउनी भाषा की महादेवी (कुमाऊँ कोकिला) देवकी मेहरा सरीखे बहुत से लोकगायकों, रंगकर्मियों, कवियों को अपनी पुस्तक ‘मेरो पहाड़’ में सहेजने का सराहनीय प्रयास मनराल जी द्वारा किया गया है.
हरसिंह मनराल के द्वारा अपने बचपन की यादों को ‘ग्रामीण अंचलों के मेले’ लेख के माध्यम से हम सब तक साझा किया है. मेले जो कि पहले के समय में मेल मिलाप का परिचायक हुआ करते थे. पहले के समय में आज की तरह यातायात के साधन व मोबाइल नहीं हुआ करते थे. तब यही मेले एक दूसरे की कुशल क्षेम (खबर बात) जानने का माध्यम हुआ करते थे. इन मेलों को कुमाउनी भाषा में कौतिक (कौथिक) के नाम से जाना जाता है. उत्तराखंड के गाँव क्षेत्रों में लगने वाले मेलों को कौतिक (कौथिक) और मेला देखने वालों को ‘कौतिकार’ कहते हैं. अपने इस संस्मरणात्मक लेख के माध्यम से हरसिंह मनराल ने उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र के अल्मोड़ा जिले में लगने वाले पौराणिक, ऐतिहासिक, व्यापारिक सांस्कृतिक मेलों का बहुत सुंदर वर्णन किया है. मनराल जी द्वारा अपने घर से लगभग 4 से 5 किलोमीटर के दायरे में लगने वाले क्षेत्रीय चनुली-सरपटा में लगने वाले “गिरै कौतिक” को भी अपनी यादों में आज भी सहेजकर रखा हैं. इस गिर के मेले का संदर्भ भी मनराल जी द्वारा दिया गया है. इस मेले में स्वयं मनराल जी बचपन और बाद के कई वर्षों तक आते रहे हैं. ‘गिर’ का अर्थ हॉकी से है किन्तु गिर-गिर कर खेले जाने वाले इस खेल को मेले में ‘रगवी’ की तरह खेला जाता था. इस चनुली-सरपटा (भिकियासैंन) अल्मोड़ा के दो गाँवों के युवा खिलाड़ियों के बीच मेले के पास बने एक खाली मैदान में खेला जाता था. जिस गाँव के युवा खिलाड़ियों द्वारा दूसरे के गोल-पोस्ट में बाल डाल दी, उस गाँव की जीत हो जाती. और हारने वाले को अगले वर्ष के मेले में इस खेल को खेलने के लिए गेंद बनानी होती थी, यह खेल दो गाँवों की प्रतिस्पर्धा के कारण कौतिकारों का मुख्य आकर्षण हुआ करता था. अपनी पौराणिक संस्कृति को जोड़े रखने की प्रथा इन मेलों के माध्यम से जीवंत रहती थी.
इस मेले में व्यापारी लोग दूर-दूर से एक दो दिन पहले अपनी दुकान लगाने के लिए जगह घेर जाया करते थे. यह मेला इस क्षेत्र की पहचान थी, जो भव्य रूप में लगा करता था. लोग अपने-अपने गाँवों से पैदल आकर इस मेले की पौराणिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक व्यापारिक होने की सार्थकता को सिद्ध करते थे. आज भी पिछले 35-40 वर्षों से बंद पड़े इस मेले को गिरै कौतिक एवं सांस्कृतिक विकास समिति ग्राम सभा चनुली-सरपटा के माध्यम से विगत (छः) 6 वर्षों से इस मेले को पुनर्जीवित/संरक्षित रखने का क्षेत्रीय जनसहयोग से प्रयास किया जा रहा है. हरसिंह मनराल जी द्वारा अपनी पुस्तक ‘मेरो पहाड़’ में इस ‘गिर का मेला’ का संदर्भ बखूबी लिया गया है. यह उनका क्षेत्रीय/स्थानीय मेला भी रहा है. और सल्ट क्षेत्र इस मेले के आयोजन में मुख्य सहयोगी की भूमिका में रहा है.
लेखक ने अपने जीवन के संघर्षमय पलों को याद किया तो बीते बचपन के जीवन के बहुत से संस्मरण उनके मनोमस्तिष्क में उभर आये. जिन संस्मरणों का सुंदर वर्णन उनकी लेखनी से उतरकर एक पुस्तक का रूप लिये आप सभी सुधीजनों, पाठकों के सम्मुख है. हरसिंह मनराल द्वारा इस पुस्तक में अपने 17 (सत्रह) संस्मरणों को समाहित किया है. संस्मरणात्मक लेखों में पहाड़ के प्रति संवेदना, पहाड़ जैसा कठिन जीवन, पलायन, यहाँ के रीति-रिवाज़, खान-पान, कृषि यंत्र, यहाँ पर उगाये जाने वाले अनाज, यहाँ के सीढ़ीदार खेत, उत्तराखंड की लोक-कथा, पहाड़ी लोगों की जीवनशैली सब उभरकर आयी है. हरसिंह मनराल जी वास्तव में पहाड़ और महानगर के मनराल हैं. अपने लेखों अभागी का भाग, फर्ज और कर्ज, गोठ घर की नारी, मंदिरी (मोटा), सीढ़ीनुमा पुँछदार खेत, वह आम का पेड़, आस्था के गलियारे से, बेटी का ब्याह, अमुआ के डाल तले झड़े-पड़े आम, आदि लेखों में पहाड़ के लोगों के दुःख-दर्दों, यहाँ के लोगों की जीवनशैली, यहाँ के फलदार पेड़ों का सजीव चित्रण अपनी लेखनी के माध्यम से किया है. भारत के अन्य राज्यों की कला-संस्कृति, रीत-रिवाजों, परंपराओं को भी यात्रा वृतांत के माध्यम से पाठकों के सामने लाने का अभूतपूर्व प्रयास है. मनराल जी की लेखन शैली पाठकों को इस पुस्तक को पढ़ने के लिए अपनी ओर बरबस खींच लेती है.
इस पुस्तक “मेरो पहाड़” की समीक्षा लिखना मेरे लिए भी सौभाग्य की बात है. मैं मनराल जी के गाँव क्षेत्र से भली प्रकार परिचित हूँ. व उनके गाँव के करीब 4 से 5 किलोमीटर के दायरे में मेरा गाँव सरपटा (भिकियासैंन) पड़ता है. जहाँ में अभी निवासित हूँ. मनराल जी द्वारा इस पुस्तक का बहुत सुंदर आवरण पृष्ठ जो कि ‘मेरो पहाड़’ का सजीव चित्रण करता है. लेखक के गाँव की तलहटी में निर्बाध रूप से कल-कल बहती पतित पावनी रामगंगा नदी, और ऊपर की ओर विभिन्न किस्म के हरे-भरे पौधों से भरा नानणकोटा गाँव का विशाल पहाड़ (ढैय्या) और आगे नदी किनारे द्यौराड़ी (सल्ट) गाँव का सुंदर दृश्य, पशुओं, चरवाहों, व पथिकों को नदी पार करने का झूला पुल का दृश्य, इस पुस्तक के अन्दर के लेखों को पढ़ने के लिए मन में उत्सुकता जगाते हैं. यह पुस्तक अपने में सजीवता लिए पाठकों को पढ़ने के लिए विवश करती है. इस पुस्तक में समाहित ठेठ कुमाउनी के शब्दों का अनूठा प्रयोग लेखक की सशक्त लेखनी को दर्शाता है. यह पुस्तक सभी बच्चों को पहले के समय में लोगों का अभावों भरा जीवन, सुख-सुविधाओं से दूर पहाड़ के लोगों के कष्टमय जीवन से परिचित कराती हैं. यह पुस्तक पुस्तकालयों में बच्चों के पाठन हेतु उपयोगी होने के साथ-साथ विश्वविद्यालय स्तर पर अध्ययनस्त छात्रों व शोधार्थियों के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी. सभी साहित्यकारों, सुधीजनों, पाठकों के लिए भी यह पुस्तक बहुत उपयोगी जानकारी लिए हुए है. लेखक की भावाभिव्यक्ति, सजीव चित्रण के साथ सहज, सरल अभिव्यक्ति के कला-कौशल को कोटिशः नमन! लेखक अपनी बात को सहजता, सरलता से पाठकों के मन मस्तिष्क तक पहुँचाने में पूर्णतः सफल रहा है.