- अनीता मैठाणी
उसका रंग तांबे जैसा था। बाल भी लगभग तांबे जैसे रंगीन थे। पर वे बाल कम, बरगद के पेड़ से झूलती जटाएं ज्यादा लगते थे। हां, साधु बाबाओं की जटाओं की तरह आपस में लिपटे, डोरी जैसे। सिर के ऊपरी हिस्से पर एक सूती कपड़े की पगड़ी—सी हमेशा बंधी रहती थी। चेहरे से उम्र का कोई अंदाजा नहीं लगा पाता था। झुर्री नहीं थी चेहरे पर, पर सूरज की ताप से तपकर चेहरा इतना जर्द पड़ गया था कि उम्र कोई 60-70 बरस जान पड़ती थी।
उसका हफ्ते में दो दिन हमारे घर के पास से होकर गुजरना मुझे बहुत अच्छा लगता था। उसके आने का नियत समय होता दोपहर से थोड़ी देर बाद और शाम होने से कुछ पहले। कोई कहता वो बहुत दूर से आती है, पर कहां से कोई नहीं जानता।
आंखों की चंचलता और शरीर की चपलता 7-8 बरस के बच्चे की सी थी। पहनावा पठानिया सूट- मैरून या भूरे रंग का। कपड़े का झोला हमेशा कांधे से झूलता हुआ। हाथ में बेंत का एक पतला सोंटा- बकरियों और भेड़ के झुण्ड को हांकने के लिए। उसका हफ्ते में दो दिन हमारे घर के पास से होकर गुजरना मुझे बहुत अच्छा लगता था। उसके आने का नियत समय होता दोपहर से थोड़ी देर बाद और शाम होने से कुछ पहले। कोई कहता वो बहुत दूर से आती है, पर कहां से कोई नहीं जानता।
उसके भेड़-बकरी के रेवड़ में करीबन 65-70 मवेशी होते। मैं कई बार उन्हें गिनने की कोशिश करती, पर हर बार गड़बड़ हो जाती। वो मुंह से हुर्र-हुर्र-हुर्र की आवाज करती थी। उसके मवेशी उसकी एक आवाज पर चल पड़ते और एक आवाज पर रूक जाते। किसी फौज के सिपाही की तरह अनुशासित। नहर से निकली गुल की पटरी पर बैठकर अपने पांव पानी में छोड़ कर वो सुस्ताती और उसके मवेशी आसपास फैल जाते हरी घास के लिए। तब वो कितने कम लगते। वो पटरी पर बैठकर झोले में हाथ डालकर कुछ निकालती जाती और मुंह में डालती जाती। कभी दिख नहीं पाया कि वो खाती क्या थी।
मेरा मन करता- कभी उसके जटा रूपी बालों को छू कर देखूं। उसकी छड़ी लेकर उसकी आवाज में मवेशियों को हांकू, उसके झोले में झांकू, उसके प्लास्टिक के बड़े जूते में पैर डालूं, ना जाने क्या-क्या।
वो किसी से बात नहीं करती थी, हम बच्चों को तो वो खा जाने वाली नज़रों से देखती थी। उसे देखकर कभी डर लगता, कभी हंसी आती। कभी लगता ऐसा वो हमें दूर रखने के लिए करती है। मेरा मन करता- कभी उसके जटा रूपी बालों को छू कर देखूं। उसकी छड़ी लेकर उसकी आवाज में मवेशियों को हांकू, उसके झोले में झांकू, उसके प्लास्टिक के बड़े जूते में पैर डालूं, ना जाने क्या-क्या। कभी मम्मी से कहती उसे चाय पिलाने को, तो वो मना कर देती कहती- नहीं, वो चाय नहीं पीती, तू उसको छेड़ना मत वो मारने दौड़ती है।
वो कहां से आती थी कहां चली जाती थी, कोई नहीं जानता। बस वो आती थी और चली जाती थी। उसका आना साल—दर—साल चलता रहा। फिर एक दिन उसका आना थम गया। वो कौन थी, उसका क्या हुआ पता नहीं।
हां, जब वो जाने को उठती और अआह अआह की आवाज करते हुए रेवड़ को बुला कर अपने काबू में करती, तो उसके मुस्कराते होंठ कानों तक फैल जाते और मुझे उससे प्यार हो जाता। और जब कभी वो पीछे मुड़कर मुझे देखकर आंखे नचाती तो मन करता दौड़ कर उसके गले लग जाऊं। पर वो मवेशियों को खदेड़ते हुए उनके साथ दौड़ पड़ती और मैं वहीं छूट जाती।
वो कहां से आती थी कहां चली जाती थी, कोई नहीं जानता। बस वो आती थी और चली जाती थी। उसका आना साल—दर—साल चलता रहा। फिर एक दिन उसका आना थम गया। वो कौन थी, उसका क्या हुआ पता नहीं। मैं तब बहुत छोटी थी वर्ना सब जानकर रहती। बस याद है, तो ये, वो बकरी वाली।
(लेखिका कवि, साहित्यकार एवं जागर संस्था की सचिव हैं)