मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—28
- प्रकाश उप्रेती
आज बात- ‘घुल्यास’ की. घुल्यास मतलब एक ऐसी लकड़ी जो पहाड़ की जिंदगी में किसी बड़े औजार से कम नहीं थी. लम्बी और आगे से मुड़ी हुई यह लकड़ी खेत से जंगल तक हर काम में आगे रहती थी. बगीचे से आम, माल्टा, और अमरूद की चोरी में इसका साथ हमेशा होता था. इज़्ज़त ऐसी की इसे नीचे नहीं बल्कि हमेशा पेड़ पर टांगकर ही रखा जाता था. ईजा इससे इतने काम लेती थीं कि हमारे पेड़ पर कम से कम चार-पांच अलग-अलग कद-काठी, लकड़ी व वजन के घुल्यास हमेशा टंगे रहते थे.
हम भी सूखी लकड़ी लेने ईजा के साथ-साथ जाते थे. ईजा कहती थीं- “हिट म्यर दघे, मैं कच लकड़ काटूल तू उनों पन बे सूखी लकड़ चाहे ल्याले”. हम भी ईजा के साथ चल देते थे.
घुल्यास के लिए दाड़िम, भिमु, तिमूहुँ, गौंत, गीठी और मिहो की लकड़ी अच्छी मानी जाती थी. इसका कारण इन पेड़ों का मजबूत होना था. घुल्यास के लिए लकड़ी का मजबूत होना अनिवार्य शर्त थी. अगर घुल्यास कच्चा हुआ तो फिर वह टूट जाएगा और कभी तो आप भी टूट सकते हैं. यही घुल्यास की महिमा थी.
उस दौर में कच्ची लकड़ियाँ काटने हम ‘भ्योव’ (जंगल) जाया करते थे. गाँव का साझा भ्योव एक बार घास तो दूसरी बार कच्ची और सूखी लकड़ियों के लिए खुलता था. ईजा सुबह-सुबह ‘बड़याट’ (दरांती से थोड़ा चौड़ा और बड़ा) को ‘पलेंथरु’ (जिस पत्थर पर दरांती को पैना किया जाता है) पर पैना करके भ्योव को निकल जाती थीं. हम भी सूखी लकड़ी लेने ईजा के साथ-साथ जाते थे. ईजा कहती थीं- “हिट म्यर दघे, मैं कच लकड़ काटूल तू उनों पन बे सूखी लकड़ चाहे ल्याले” (मेरे साथ चल, मैं वहाँ कच्ची लकड़ी काटूँगी तुम सूखी लकड़ी तोड़ लेना). हम भी ईजा के साथ चल देते थे.
भ्योव में ईजा को जब भी कोई सूखी-कच्ची, लंबी, सीधी और थोड़ा सा आगे से मुड़ी हुई लकड़ी दिखाई देती तो, ईजा कहती- “देख च्यला ऊ के भल घुल्यासक लकड़ हे रहो, काट ढैय् उकें” (बेटा देख वो कितनी अच्छी घुल्यास के लायक लकड़ी हो रखी है, काट उसे). हम उसे काटने लग जाते थे. अगर वह कांटों और झाड़ियों के बीच में हो तो फिर ईजा ही काटती थीं.
हम जब भी भ्योव लकड़ी तोड़ने जाते थे तो घुल्यास कंधे पर जरूर होता था. चीड़ के पेड़ पर कोई सूखी डाल दिखे तो तुरंत घुल्यास फंसाकर तोड़ते थे. कभी-कभी घुल्यास को सूखी लकड़ी में फंसाकर झूलने लगते थे. ऐसे में कई बार लकड़ी, कभी घुल्यास और ज्यादातर हम नीचे गिर जाते थे. ईजा ने अगर देख लिया तो तुरंत कहती थीं- “आजि झूलीले, थिचि गी भेल” (और झूल ले, लग गई पीछे चोट). गिरने पर चोट तो लगती थी लेकिन कांटे अलग से चुभते थे. दर्द, गिरने से ज्यादा मज़ाक व ईजा की डांट का होता था. कभी घुल्यास तो कभी खुद को कोसने के बाद हम कपड़े साफ करके ईजा के पास कुछ देर चुप्प होकर बैठ जाते थे. पर वह चुप्पी ज्यादा देर की नहीं होती थी. उसके बाद तो गिरने और जहाँ-जहाँ कांटे चुभ रखे थे उसका असल दर्द शुरू होता था.
ईजा पेड़ में ‘घा थुपुड’ (घास के संग्रह का एक तरीका ताकि बाद के दिनों में उसका उपयोग किया जा सके) लगाने जब जाती थीं तो भी घुल्यास साथ में रहता था. थुपुड लगाने के बाद ईजा पेड़ से नीचे घुल्यास को पकड़ कर ही आती थीं. घुल्यास को पेड़ की टहनी में फंसाकर ईजा उसके सहारे नीचे उतर जाती थीं. हम नीचे खड़े होकर ईजा को कहते रहते थे- “ईजा भली हां, टूटल य”( माँ ध्यान से , ये टूटेगा) लेकिन ईजा को घुल्यास पर पूरा भरोसा होता था. आखिर वह उनका बनाया हुआ जो होता था..
घुल्यास की सबसे ज्यादा जरूरत आम, अखरोट, अमरूद, पपीता और माल्टा के दिनों में पड़ती थी. अपने पेड़ से तोड़ना हो या चोरी करके, काम घुल्यास ही आता था. ईजा जब भी हमको घुल्यास लेकर जाते हुए देखती थीं तो तुरंत कहती- “घुल्यास भी में धरछे नि धरने, कति जा मैं छै” (घुल्यास नीचे रखता है कि नहीं, कहाँ जा रहा है). ईजा के डर से तब रुक जाते थे लेकिन दोपहर में जब ईजा सोई हुई होती थीं तो हम घुल्यास लेकर आम तोड़ने चल देते थे. नीचे से आम में घुल्यास फंसाकर तोड़ लाते थे. साथ ही ईजा के जगने से पहले घर पहुंच कर सोने का नाटक भी कर लेते थे.
ईजा कहती थीं- “ऊ काकडें कें घुल्यसल लम्हें दे”, हम फटाफट खींच देते थे. कभी-कभी पूरी बेल भी खिंची चली आती थी. तब ईजा का गुस्सा सातवें आसमान पर होता था और कहती थीं- “एक काम ले भलि नि कोन”.
घुल्यास का एक काम ‘ठांगोर’ ( ऊँची और लम्बी लकड़ी जिस पर सब्जियों की बेल ऊपर को जाती थी) में से लौकी और ‘काकड़’ तोड़ने का भी होता था. ईजा कहती थीं- “ऊ काकडें कें घुल्यसल लम्हें दे” (उस ककड़ी को घुल्यास से खींच दे), हम फटाफट खींच देते थे. कभी-कभी पूरी बेल भी खिंची चली आती थी. तब ईजा का गुस्सा सातवें आसमान पर होता था और कहती थीं- “एक काम ले भलि नि कोन” (एक काम भी ठीक से नहीं करता है).
एक बार ईजा से घुल्यास को लेकर बात हो रही थी तो ईजा ने कहा- “च्यला अब घुल्यासक दिन ले नाहे गई” . यह बात कहते हुए ईजा के शब्दों में घोर निराशा और दुःख था. परन्तु, मैं समझ नहीं पा रहा था कि एक लकड़ी के लिए आखिर इतना दुःख और निराशा का भाव क्यों…
एक तरह से घुल्यास ईजा की व्यवस्था का अहम हिस्सा था. उन्होंने अपनी जरूरतों के हिसाब से चीजों को अपने संसाधनों में से ही जुटा रखा था. एक लकड़ी का इतना प्रयोग ईजा ही कर सकती थीं.
घुल्यास अब भी हमारे पेड़ पर टंगा है. ईजा यदाकदा उसको इस्तेमाल करती हैं. एक बार ईजा से घुल्यास को लेकर बात हो रही थी तो ईजा ने कहा- “च्यला अब घुल्यासक दिन ले नाहे गई” (बेटा अब घुल्यास के दिन भी चले गए). यह बात कहते हुए ईजा के शब्दों में घोर निराशा और दुःख था. परन्तु, मैं समझ नहीं पा रहा था कि एक लकड़ी के लिए आखिर इतना दुःख और निराशा का भाव क्यों….
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं।)