सनातन हिन्दू धर्म की आत्मा है गीता : महात्मा गांधी

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

हिन्दू-धर्म का अध्ययन करने की इच्छा रखने वाले प्रत्येक हिन्दू के लिए यह गीता एकमात्र सुलभ ग्रंथ है और यदि अन्य सभी धर्मशास्त्र जलकर भस्म हो जाये तब भी इस अमर ग्रंथ के because सात सौ श्लोक यह बताने के लिए पर्याप्त होंगे कि हिन्दू-धर्म क्या है? और उसे जीवन में किस प्रकार उतारा जाए? मैं सनातनी होने का दावा करता हूँ; क्योंकि चालीस वर्षो से उस ग्रंथ के उपदेशों को जीवन में अक्षरशः उतारने का मैं प्रयत्न करता आया हूँ. – महात्मा गांधी

आधुनिक युग में भारतीय पुनर्जागरण की वैचारिक परंपरा को सुदृढ आधार देने के लिए एव आध्यात्मिक भारत के पुनर्निर्माण के लिए जो जन आंदोलन चले उन्हें प्रोत्साहित करने में गीता के चिंतन की अहम भूमिका रही थी. गीता के निष्काम कर्मयोग से प्रेरणा लेते हुए ही आधुनिक युग के विचारकों, समाज सुधारकों और स्वन्त्रता आंदोलन के because सेनानियों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दासतापूर्ण मानसिकता के कारण मूर्छित राष्ट्रीय चेतना को भारतीय राष्ट्रवाद की भावना से जोड़ने का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया था.गांधी जी हों या आचार्य विनोबा भावे अथवा लोकमान्य तिलक सभी ने गीता का संदेश देकर देशवासियों को यह अहसास कराया कि स्वन्त्रता का विचार मानव सभ्यता के लिए कितना जरूरी है और उससे भी ज्यादा जरूरी है अपने स्वराज की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना.

अमावस्या

स्वन्त्रता संग्राम के संघर्ष के दौरान लोकमान्य बालगंगाधर तिलक रचित ‘गीता- रहस्य’ नामक ग्रन्थ आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद की चेतना से अनुप्राणित एक ऐसी ही रचना है जिसके ‘स्वराज्य’ की अवधारणा गीता के दर्शन से ही प्रभावित रही थी.

गीता के निष्काम कर्मयोग because और अनासक्ति भाव से प्रेरित होकर महात्मा गांधी ने अहिंसा और सत्याग्रह के शस्त्र से भारतीय स्वतन्त्रता का युद्ध लड़ा और इस युद्ध में गांधी जी ने वैचारिक मनोबल प्राप्त करने के लिए भगवद्गीता के अठारह अध्यायों पर जो भाष्य लिखा वह ‘अनासक्ति योग’ के नाम से प्रसिद्ध है. उन्होंने ‘गीता के श्लोकों की इतने सरल शब्दों में अर्थ किया ताकि आम आदमी भी उसके मातृवत्सल भाव को समझ सके और उसकी शरण में जा सके. गांधी जी के अनुसार मानव जीवन ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय है और गीता इनसे संबंधित सभी समस्याओं का समाधान है. स्वाध्याय पूर्वक गीता का किया गया अध्ययन जीवन के गूढ़ रहस्य को उजागर करता है. गांधी जी ने गीता को शास्त्रों का दोहन माना.

अमावस्या

गांधी जी का विश्वास था कि जो मनुष्य गीता का भक्त होता है,उसे कभी निराशा नहीं घेरती, वह हमेशा आनंद में रहता है. इसे गीता माता का ही आशीर्वाद मानना चाहिए कि भारत की because धरती ने एक ऐसा महान मानव पैदा किया जिसने न केवल भारत की राजनीति का नक्शा बदल दिया अपितु विश्व को सत्य अहिंसा,शांति और प्रेम की उस अजेय शक्ति के दर्शन भी कराए जिसके लिए भगवान् महावीर या गौतम बुद्ध का स्मरण किया जाता है.

अमावस्या

गाँधी जी का धर्म समूची मानव-जाति के लिए कल्याणकारी है. उनके लिए सत्य से बढ़कर कोई धर्म और अहिंसा से बढ़कर कोई कर्त्तव्य नहीं होता. इस लेख के माध्यम से भगवद्गीता because विषयक ‘गीता माता’, ‘अनासक्ति योग’ आदि गांधी वाङ्मय से संग्रहीत चुनिंदा दस सूक्तियों से जन सामान्य को अवगत कराया गया है, ताकि लोग जान सकें कि गीता महज एक धार्मिक ग्रंथ नहीं बल्कि समाज और सभ्यता को मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सोचने और समझने की अन्तर्दृष्टि भी प्रदान करती है.

अमावस्या

गांधी चिंतन के दस चिरंतन सत्य

1. “गीता शास्त्रों का दोहन है. मैंने कहीं पढ़ा था कि सारे उपनिषदों का निचोड़ उसके सात सौ श्लोंकों में आ जाता है. इसलिए मैने निश्चय किया कि कुछ न हो सके तो भी गीता का ज्ञान प्राप्त कर लूं. because आज गीता मेरे लिए केवल बाइबिल नहीं है, केवल कुरान नहीं है,मेरे लिए वह माता हो गई है. मुझे जन्म देनेवाली माता तो चली गई, पर संकट के समय गीता-माता के पास जाना मैं सीख गया हूँ. मैने देखा है,जो कोई इस माता की शरण जाता है, उसे ज्ञानामृत से वह तृप्त करती है.” (‘गीता माता’, प्रस्तावना)

अमावस्या

2. “मनुष्य गीता में से अपने लिए आश्वासन प्राप्त करना चाहे तो उसे उसमें से वह पूरा -पूरा मिल जाता है. जो मनुष्य गीता का भक्त होता है, उसके लिए निराशा की कोई जगह नहीं है, वह हमेशा आनंद में रहता है. पर इसके लिए बुद्धिवाद नहीं, बल्कि अव्यभिचारिणी भक्ति चाहिए.अब तक मैंने एक भी ऐसे because आदमी को नहीं जाना, जिसने गीता का अव्यभिचारिणी भक्ति से सेवन किया हो और जिसे गीता से आश्वासन न मिला हो. तुम विद्यार्थी लोग कहीं परीक्षा में फेल हो जाते हो तो निराशा के सागर में डूब जाते हो. गीता निराशा होने वालों को पुरुषार्थ सिखाती है,आलस्य और व्यभिचार का त्याग बताती है. एक वस्तु का ध्यान करना,दूसरी चीजें बोलना और तीसरे को सुनना इसको व्यभिचार कहते हैं. (‘गीता माता’,पृष्ठ 243)

अमावस्या

3. “हम भी सोए हैं, अंतर्यामी तो सदा जागृत हैं. वह बैठा राह देखता है कि हममें कब जिज्ञासा उत्पन्न हो; पर हमें सवाल ही पूछना नहीं आता सवाल पूछने की मन में इच्छा भी नहीं उठती. इस कारण हम गीता-सरीखी पुस्तक का नित्य ध्यान धरते हैं, सवाल पूछना सीखना चाहते हैं और जब-जब मुसीबत में पड़ते हैं तब-तब अपनी मुसीबत दूर करने के लिए गीता की शरण में जाते हैं, और उससे आश्वासन लेते हैं. इसी दृष्टि से गीता पढ़नी है. वह हमारी सदगुरुरूप है, because मातारूप है और हमें विश्वास रखना चाहिए कि उसकी गोद में सिर रखकर हम सही-सलामत पार हो जाएंगे. गीता के द्वारा अपनी सारी धार्मिक गुत्थियां सुलझा लेंगें. इस भांति नित्य गीता का मनन करनेवालों को उसमें से नित्य नए अर्थ मिलेंगे. ऐसी एक भी धर्म की उलझन नहीं है कि जिसे गीता न सुलझा सकती हो.” (‘गीता माता’, पृष्ठ 243)

अमावस्या

4. “वह दिन याद आता है जब मि.बेकर मुझे वेलिंग्टन कन्वेन्शन में ईसाई बनाने को ले गये. वे हमेशा मेरे साथ चर्चा करते थे. मैं उन्हें कहता कि आप मुझमें श्रद्धा जाग्रत कीजिए. जो भी अच्छा असर आप मुझ पर डालना चाहते हों, वह डालने देने के लिए मैं तैयार हूँ. इसलिए उन्होंने कहा कि वेलिंग्टन कन्वेन्शन में चलो. वहां समर्थ लोग आयंगे.आप उनसे मिलेंगे तो आपको विश्वास हुए बिना रहेगा ही नहीं. सारे डिब्बे में गोरे बैठे थे और मैं अकेला ऊपर के बंक because पर दबा हुआ बैठा था. वे लोग कहने लगे, ‘‘देखिये, हिक्स नदी आई, भव्य प्रदेश है. देखिये, सूर्योदय के दर्शन तो कीजिये!’’ मगर मैं उतरता ही न था. मैं तो 11वे अध्याय का पाठ कर रहा था. बेकर ने मुझसे पूछा, ‘‘क्या पढ़ रहे है?’’ मैंने कहा, ‘‘भगवद्गीता.’’ उन्हें लगा होगा कि कैसा मूर्ख है कि बाइबिल नहीं पढ़ता! मगर क्या करते? उन्हें मुझ पर जबरदस्ती तो करनी न थी. कन्वेन्शन में मेरे लिए विशेष प्रार्थना भी हुई. मगर मैं कोरा-का-कोरा ही लौटा.” ( ‘महादेवभाईनी डायरी,’ पहला भाग, 19 जून, 1932, पृष्ठ 227)

अमावस्या

5. “हिन्दू-धर्म का अध्ययन करने की इच्छा रखने वाले प्रत्येक हिन्दू के लिए यह एकमात्र सुलभ ग्रंथ है और यदि अन्य सभी धर्मशास्त्र जलकर भस्म हो जाये तब भी इस अमर ग्रंथ के सात सौ श्लोक यह बताने के लिए पर्याप्त होंगे कि हिन्दू-धर्म क्या है और उसे जीवन में किस प्रकार उतारा जाए. मैं सनातनी होने का दावा करता हूँ; क्योंकि चालीस वर्षो से उस ग्रंथ के उपदेशों को जीवन में अक्षरशः उतारने का मैं प्रयत्न करता आया हूँ. गीता के मुख्य सिद्धान्त के विपरीत जो कुछ भी हो, उसे मैं हिन्दू-धर्म का विरोधी मानकर अस्वीकार करता हूँ. गीता में किसी भी धर्म या धर्म-गुरु के प्रति द्वेष नहीं. मुझे यह कहते बड़ा because आनंद होता है कि मैंने गीता के प्रति जितना पूज्य भाव रखा है, उतने ही पूज्य भाव से मैंने बाइविल, कुरान, जंदअवस्ता और संसार के अन्य धर्म-ग्रंथ पढ़े हैं. इस वाचन ने गीता के प्रति मेरी श्रद्धा को दृढ़ बनाया है. उससे मेरी दृष्टि और उससे मेरा हिन्दू धर्म विशाल हुआ है. जैसे कि जरथुस्त्र, ईसा और मुहम्मद के जीवन-चरित्र को मैंने समझा है, वैसे ही गीता के बहुत से वचनों पर मैंने प्रकाश डाला है. इससे इन सनातनी मित्रों ने मुझे जो ताना दिया है, वह मेरे लिए तो आश्वासन का कारण बन गया है. मैं अपने को हिन्दू कहने में गौरव मानता हूँ; क्योंकि मेरे मन में यह शब्द इतना विशाल है कि पृथ्वी के चारों कोनों के पैगंबरों के प्रति यह केवल सहिष्णुता ही नहीं रखता, वरन उन्हें आत्मसात कर लेता है.” (‘महादेवभाईनी डायरी’,भाग 2, पृष्ठ 435)

अमावस्या

6. ‘‘गीता का संदेश क्या है? मालूम होता है कि यह झगड़ा हमेशा ही चलता रहेगा. यह बात और है कि हम गीता में किस संदेश को देखना चाहते हैं और उसमें से कौन-सा संदेश निकालना चाहते हैं और यह दूसरी ही बात है कि उसको सीधे ही पढ़ने पर क्या छाप पड़ती है. जिसके दिल में यह बात जम गई है कि because अहिंसा-तत्व ही जीवन-संदेश है, उसके लिए तो यह प्रश्न गौण है. वह तो यही कहेगा कि गीता में से अहिंसा निकलती हो तो मुझे वह ग्राह्य है. इतने भव्य ग्रंथ में से अहिंसा जैसा भव्य धार्मिक सिद्धान्त ही निकालना चाहिए; किन्तु यदि न निकलता हो तो गीता को भी रहने दीजिए. उसको आदर से पूजेंगे; लेकिन उसे प्रमाण ग्रंथ नहीं मानेंगे.” ( ‘गीता माता’ , पृ. 251)

अमावस्या

7. “सत्य विध्यात्मक है, अहिंसा निषेधात्मक है. सत्य वस्तु का साक्षी है, अहिंसा वस्तु होने पर भी उसका निषेध करती है. सत्य है,असत्य नहीं है. हिंसा है,अहिंसा नहीं हैं. फिर भी अहिंसा ही होनी चाहिए. यही परम धर्म है. सत्य स्वयंसिद्ध है. अहिंसा उसका संपूर्ण फल है. सत्य में वह छिपी हुई ही है; किंतु वह सत्य की तरह व्यक्त नहीं है. इस लिए उसको मान्य किये बिना मनुष्य भले ही शास्त्र की शोध करे, उसका सत्य आखिर उसे अहिंसा ही सिखावेगा. because सत्य का अर्थ तपश्चर्या तो है ही. सत्य का साक्षात्कार करने वाले तपस्वी ने चारों ओर फैली हुई हिंसा में से अहिंसा देवी को संसार के सामने प्रकट करके कहा- हिंसा मिथ्या है, माया है,अहिंसा ही सत्य वस्तु है. अहिंसा के बिना सत्य का साक्षात्कार असंभावित है. ब्रह्मचर्य,अस्तेय, अपरिग्रह भी अहिंसा के अर्थ में है. ये अहिंसा को सिद्ध करने वाले हैं. अहिंसा के अर्थ में है. उसके बिना मनुष्य पशु है. सत्यार्थी अपनी शोध के लिए प्रयत्न करते हुए यह सब बड़ी जल्दी समझ लेगा और फिर उसे शास्त्र का अर्थ करने में कोई मुसीबत पेश नहीं आवेगी.” (‘गीता माता, पृ. 251)

अमावस्या

8. “गीता की भक्ति बाह्याचारिता नहीं है, अंधश्रद्धा नहीं है. गीता में बताये उपचार का बाह्य चेष्‍टा या क्रिया के साथ कम-से-कम संबंध है, माला, तिलक अर्ध्यादि साधन भले ही भक्त बरते, पर वे भक्ति के लक्षण नहीं हैं. जो किसी का द्वेष नहीं करता,जो करुणा का भंडार है और ममता-रहित है, जो निरहंकार है, जिस सुख-दु:ख, शीत-उष्‍ण समान है, जो क्षमाशील है, जो सदा संतोषी है, जिनके निश्‍चय कभी बदलते नहीं, जिसने मन और बुद्धि ईश्वर को अर्पण कर दिये हैं, because जिससे लोग उद्वेग नहीं पाते, जो लोगों का भय नहीं रखता, जो हर्ष-शोक-भयादि से मुक्‍त है, जो पवित्र है, जो कार्यदक्ष होने पर भी तटस्‍थ है, जो शुभाशुभ का त्‍याग करने- वाला है, जो शत्रु-मित्र पर समभाव रखने-वाला है, जिसे मान-अपमान समान है, जिसे स्‍तुति से खुशी नहीं होती और निंदा से ग्‍लानि नहीं होती, जो मौनधारी है, जिसे एकांत प्रिय है, जो स्थिरबुद्धि है, वह भक्त है. यह भक्ति आसक्‍त स्‍त्री-पुरुषों में संभव नहीं है.” (‘अनासक्तियोग’,प्रस्तावना)

अमावस्या

9. “साधारणत: तो यह माना जाता है कि धर्म और अर्थ विरोधी वस्‍तु हैं, ʻʻव्‍यापार इत्‍यादि लौकिक व्‍यवहार में धर्म नहीं बचाया जा सकता, धर्म को जगह नहीं हो सकती, धर्म का उपयोग केवल मोक्ष के लिए किया जा सकता है. धर्म की जगह धर्म शोभा देता है और अर्थ की जगह अर्थ.̕̕” बहुतों से ऐसा कहते हम सुनते हैं. गीताकार ने इस भ्रम को दूर किया है. उसने मोक्षऔर व्‍यवहार के बीच ऐसा भेद नहीं रखा है, वरन व्‍यवहार में धर्म को उतारा है. because जो धर्म व्‍यवहार में न लाया जा सके, वह धर्म नहीं है, मेरी समझ से यह बात गीता में है. मतलब, गीता के मतानुसार जो कर्म ऐसे हैं कि आसक्ति के बिना हो ही न सकें, वे सभी त्याज्‍य हैं.ऐसा सुवर्ण नियम मनुष्‍य को अनेक धर्म-संकटों से बचाता है. इस मत के अनुसार खून, झूठ, व्‍यभिचार इत्‍यादि कर्म अपने- आप त्‍याज्‍य हो जाते हैं. मानव-जीवन सरल बन जाता है और सरलता में से शांति उत्‍पन्‍न होती है.” (‘अनासक्तियोग’ प्रस्तावना)

अमावस्या

10. “गीता सूत्रग्रंथ नहीं है. गीता एक महान धर्म-काव्य है. उसमें जितना गहरे उतरिये, उतने ही उसमें से नये और सुन्दर अर्थ लीजिये. गीता जन-समाज के लिए है, because उसमें एक ही बात को अनेक प्रकार से कहा है. अत: गीता में आये हुए महाशब्दों का अर्थ युग-युग में बदलता और विस्तृत होता रहेगा. गीता का मूल मंत्र कभी नहीं बदल सकता. वह मंत्र जिस रीति से सिद्ध किया जा सके, उस रीति से जिज्ञासु चाहे जो अर्थ कर सकता है. गीता विधि-निषेध बतलाने वाली भी नहीं है. एक के लिए जो विहित होता है, वही दूसरे के लिए निषिद्ध हो सकता है. एक काल या एक देश में जो विहित होता है, वह दूसरे काल में, दूसरे देश में निषिद्ध हो सकता है.निषिद्ध केवल फलासक्ति है, विहित है अनासक्ति.” (‘अनासक्तियोग’, प्रस्तावना)

अमावस्या

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्रपत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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