गांधी का सामाजिक चिन्तन (शोध आलेख)
नीलम पांडेय नील, देहरादून, उत्तराखंड
“गांधी, खादी और आजादी गोरों की बरबादी थी,
अहिंसा, अदृश्य, अमूक, हक हकूक की लाठी थी”
एक महान नेतृत्व के लिऐ सदैव उच्च आदर्शों की आवश्यकता होती है, इसके बिना एक अच्छे समाज की कल्पना कभी नही की जा सकती है. समाज को सही पथ पर ले जाने के लिऐ एक सही नेतृत्व का होना अत्यंत आवश्यक है. जहाँ आदर्श नही हैं, वहाँ लक्ष्य भी नही हैं. गांधी जी ने इन्ही आर्दशों तथा अनुशासनों को अपनाकर, समाज में अपनी सहज, सजीव अभिव्यक्तियाँ दी और समाज के हर एक वर्ग ने उन अपनत्व भरी अभिव्यक्तियों में कहीं ना कहीं स्वयं को महसूस किया तथा उस समय, देशकाल परिस्थियों में उसकी महती आवश्कता को देखते हुऐ असंख्य लोग उनके विचारों के साथ जुड़ते चले गये थे. गांधी जी जानते थे, कि समाज में, सामाजिक चेतना का बीज मंत्र एक साथ, एकमेव चिंतन कर चलने में ही है, जिसमें समाज के हर एक वर्ग की आवश्यकता होती है.
उन्होंने अलग-अलग रंगों के मोतियों को एक ही धागे में पिरोने की कोशिश की, ताकि हर रंग, हर एक के जीवन में अपना स्थान और महत्व बना सके, जिसमें कहीं, किसी को अधिक महत्व मिलने और किसी को कम महत्व मिलने जैसी बात ना होकर सबके समान, सामाजिक महत्व के साथ चलने की बात होगी . सच्चे मन से सन्मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को समाज के हर एक व्यक्ति से प्रेम होने लगता है और वह समाज हित के लिऐ जो भी बन पड़ता है, अपनी सार्मथ्य और इच्छा शक्ति के बलबुते करते भी हैं. उसी प्रेम से किऐ गये कार्यो के फलस्वरुप उस समय, जनमानस का एक बड़ा भाग गांधी जी के साथ-साथ चलने लगा, क्योकि लोग समझ गये कि यदि समाज को उसमें व्याप्त तमाम विसंगतियों से बाहर निकलना है, तो नयी विचारधारा के प्रवाह को आत्मसात करना होगा.
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गांधी जी अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति और अनुशासन के बल पर लोगों के मन में स्थान बनाते हुऐ चलते रहे और समाज को मुख्यधारा से जोड़ने के लिऐ विभिन्न प्रयासों में चिन्तनशील रहे. प्रेम के इस सहज भाव से किये गये समाज कार्यो के प्रयासों तथा उनके द्वारा दिये सिद्वांतो को जनमानस ने साकारात्मक रुप से लिया और समाज के चिंतन में स्वयं की भागीदारी भी सुनिश्चित की. भारत की आजादी में सभी के सम्मिलित प्रयास थे, इसके अलावा भारत को आजादी मिलने के और भी कई कारण रहे होगें, किन्तु यह भी सत्य है कि गांधी जी के अपने प्रयासों से भारत के जनमानस को अंग्रेजो के खिलाफ एक सूत्र में पिरो दिया था और लोगों के मन में राष्ट्र के लिऐ आजादी की भावना को कायम करने में महत्वपूर्ण भुमिका निभायी थी.
महात्मा गांधी ने समस्त सृष्टि के विकास के मार्ग को अपने विचारों में तथा व्यवहार में शामिल किया. उनके कार्य, दर्शन व व्यवहार भेदभाव रहित थे, जिसके अंतर्गत प्रकृति, जीवन तथा मानव समाज का एकीकृत विकास होता रहा और वह चेतना जगत का सहज नैतिक भाष्य रहा है जो मौलिक भारत के अस्तित्व को बनाऐ रखने का प्रयास भी था. मौलिक भारत वेद वेदान्त का रचनाकार भारत था और ज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी किन्तु समाज में धीरे धीरे उत्पन्न विसंगतियों ने उसके मौलिक अस्तित्व को बहुत नुकसान पहुँचाना शुरू कर दिया था. गांधी जी चाहते थे कि भारत की मौलिकता पर कोई आंच ना आये अतः सामाजिक चिन्तन उनके हर नये कार्य की बुनियादी सोच होती थी. उनके अधिकतर दुख और वेदना व्यक्तिगत ना होकर समाज तथा जनमानस से जुड़ी हुयी होती थी.
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महात्मा गांधी के कार्य ,समाज, धर्म तथा दर्शन से संस्कारित थे. उन्होंने अपने कार्यों और व्यवहार से सामान्य जनमानस पर एक अच्छी छवि बना ली थी और समय उपरान्त यह छवि एक मजबूत पकड़ के साथ भारत की जनमानस को प्रभावित करने लगी थी. अहिंसा की इस लड़ाई में गांधी जी ने सभी को एकसूत्र में बाँधकर अंग्रेजी साम्राज्य को उखाड़ फेंकने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने समाज का तथा उसमें उपस्थित कुरितियों का चिन्तन किया तथा जनमानस को इस बात के लिऐ जागरूक किया कि भारत की किस कमजोरी के कारण ब्रिट्रिश नागरिकों को भारत में धीरे धीरे घुसपैठ करने का मौका मिला. सच्चाई तो यह है कि महात्मा जी मानव चेतना के जनचेतक, सजग वाहक थे, और प्रहरी थे.
हालाँकि उनके दर्शन तथा आर्दशवाद समय उपरान्त शत्रुओं से निपटने के लिऐ अथवा विपरित विचारधाराओं को प्रभावित करने के लिऐ बहुत पर्याप्त नही हुए या यूँ कहें कि हममें से अधिकतर लोगों को उन विचारधाराओं के लिए खुद को तैयार करना भी नही आया. किन्तु यदि इन विचारधाराओं की मजबूत जड़ों को देखा जाए तो उनके दर्शन तथा सिद्वान्त एक आर्दश समाज की मजबूत नीवँ रखने के लिऐ हमेशा प्रांसगिक रहेंगे. एक आर्दश समाज की परिकल्पना में अधिकाशंतः एक संवेदनशील मानव की सोच परिलक्षित होती है और गांधी का चिन्तन समाज के संवेदनशील व्यक्ति का चिन्तन था. हो सकता है कि एक दिन आज के इस तथाकथित भौतिक वाद से ही ऊब कर, भविष्य का युवा एक ऐसे ही समाज की परिकल्पना को साकार करेगा जो सामाजिक चिन्तन का पर्याय होगा और गाँधी जी की सोच के साथ, एक आर्दश भारत की बुनियाद का नेतृत्व भी करेगा.
आज की इस मारकाट प्रतियोगिता में ऐसी सम्भावना आसमान से तारे तोड़ लाने जैसी प्रतीत हो रही है फिर भी कुछ लोग उनके मार्ग पर चलने हेतु प्रयासरत हैं यही छोटी – छोटी कोशिशें महात्मा गांधी जी को हर युग में जीवित रखेंगी और तब हर युग में महात्मा के ये सिद्वान्त प्रांसगिक और उपयोगी होते रहेंगें. भारत की आजादी की लड़ाई में खासियत यह रही कि महात्मा गांधी के लिऐ यह लड़ाई केवल राजनितिक उद्देश्य पूर्ति का साधन तथा अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई लड़ना ही नही था, बल्कि इसके माघ्यम से सामाजिक चेतना की आजादी का बिगुल बजा था. भारत गुलाम क्यों बनता चला गया? क्योंकि जाति भेद, अस्पृश्यता, सामाजिक अन्याय, महिलाओं को दोयम दर्जे की नजर से देखना तथा श्रम एवं श्रमिक को सम्मान की नजर से न देखना, आदि जैसे बहुत से भीतरघात कारण रहे थे, जिसका फायदा ब्रिट्रिश नागरिकों ने इन विसंगतियों में सुधार के नाम पर अपनी सत्ता काबिज करके उठाया था.
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गांधी जी द्वारा समाज उत्थान के लिऐ कई रचनात्मक कार्यक्रम आजादी की लड़ाई के साथ ही चलाऐ गए. एक सामाजिक चेतना के रूप में गांधी जी द्वारा आम जनता के लिऐ उस समय के अनुसार उनकी राजनितिक ज्ञान के विकास हेतु कौशल विकसित किया गया ताकि वे आजादी हेतु अपने योगदान को भलिभांति जान सकें तथा भविष्य में आने वाली पीढ़ी के साथ आजादी से पहले के भारत को सांझा कर सकें और अपने इस योगदान पर गर्व अनुभव कर सकें. सामाजिक चेतना कौशल विकास के
अंतर्गत भारत की उस समय की अधिकांश अशिक्षित तथा बहुत गरीब जनता, अग्रेंजी सेना की शाम,दाम, दंड भेद की घुसपैठ नीति को पहचान सकी. तब जाकर एक कुशल नेतृत्व के अंतर्गत भारत की आजादी में, भारत की जनता का अहम योगदान रहा. हर गली, कूचे, हर शहर और हर गावँ से प्रतिभाग करते लोग एक कुशल नेतृत्व के बिना संभव नही थे. सुबह -सबेरे, महिलाओं तथा पुरूषों के प्रार्थना गीत गाते स्वर, गांधी जी के नेतृत्व का ही हिस्सा थे. इतने बड़े जनमानस को‘ किसी एक मुददे के लिऐ राजी कर लेना बहुत बड़ी चुनौती रही होगी, जबकि उनमें से कई लोग उसी ब्रिट्रिश नौकरशाही में मुलाजिम के तौर पर कार्य कर रहे थे. यह एक सामाजिक चेतना ही थी, जिसने हर एक को समाज के मुद्दो पर एकमत होकर सोचने के लिऐ विवश कर दिया.ज्योतिष
आजादी के साथ किस तरह से महात्मा ने समाज को उसकी मूल, मौलिकता के साथ जोड़ने का प्रयास किया उसका एक उदाहरण कुछ इस प्रकार मिलता है कि हिस्दुस्तान को 15 अगस्त 1947 को आजादी मिली थी. लेकिन देश में राष्टभक्तों ने 17 साल पहले ही स्वतंत्रता दिवस की खुशियों को मना लिया था . जनवरी 1930 के पहले सप्ताह में
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसके तहत महिने के आखिरी रविवार को पूर्ण स्वराज के सर्मथन में देशव्यापी आंदोलन करने का संकल्प लिया गया था, ताकि देश के प्रत्येक नागरिकों में राष्ट्र के प्रति प्रेम और आदर की भावना का संचार हो और ब्रिटिश सरकार आजादी की मांग को सोचने के लिऐ मजबूर हो जाय. यंग इंडिया में लिखे अपने एक लेख पर महात्मा गांधी ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि आजादी की यह घोषणा देश के सभी हिस्सों, गावों तथा शहरों में एक साथ की जाय तथा सभी जगहों पर एक खास समय में बैठक का आयोजन किया जाऐ.ज्योतिष
तत्पश्चात गांधी जी ने यह भी सलाह दी कि ये बैठकों को सभी के द्वारा पारम्परिक ढोल-नगाड़े के साथ प्रचारित की जाऐ तथा कार्यक्रम की शुरुआत राष्ट्रीय झंडे को फहरा कर हो
और दिन का शेष समय रचनात्मक कार्यो को करके बिताया जाए, ये रचनात्मक कार्य जैसे चरखा कातना, अछूतों की सेवा करना, हिंदु मुसलमानों का मिलन आदि के रूप में हों तथा उन्होने कहा, ये सभी काम एक साथ भी हो सकते हैं. इस प्रकार गांधी जी ने सभी को जोड़कर यह सन्देश देने को प्रयास किया कि यह आन्दोलन कुछ चन्द लोगों के लिऐ नही है अपितु पुरे हिन्दुस्तान के लिए और उसके सर्वांगीण विकास के लिऐ है. इस प्रकार से लोग अपनी मेहनत के फल के खुद ही अधिकारी हों और अगर कोई सरकार उनको इस हक से वंचित कर उनका दमन करती है तो उनको अधिकार है कि वे इसका विरोध करें और उस सत्ता को खत्म कर दें.ज्योतिष
अपनी आत्मकथा में एक जगह पर उन्होने गिरमिट प्रथा का उल्लेख किया है इस प्रथा के अंतर्गत गिरमिटियां, वे मजदूर थे, जो पाचँ बरस अथवा इससे कम की मजदूरी के इकरारनामे पर हिन्दुस्तान के बाहर मजदूरी करने जाते थे, ऐसे गिरमिटियों पर कर लगाया जाता था जो बाद में हटा दिया गया था किन्तु कुछ लापरवाही के
कारण यह प्रथा बंद नही हुयी थी या यूँ कह लें कि इस पर उस स्तर का घ्यान नही दिया गया था हाँलाकि उनके अनुसार पंडित मालवीय ने यह प्रश्न सभा में उठाया था जिसके उपरान्त ही लार्ड होर्डिग ने वचन दिया कि ‘समय आने पर’ इस प्रथा को हटा दिया जाऐगा. बाद में गांधी जी तथा अन्य बहुत से लोगों के प्रयास से इस प्रथा के समूल बंद होने की घोषणा हुयी.ज्योतिष
ग्राम स्वच्छता के साथ व्यक्तिगत स्वच्छता की शिक्षा को महात्मा जी ने सर्वोपरि रखा उन्होने समाज के सभी वर्ग, खासकर ग्रामीण वर्ग को अस्वच्छता के कारण होने वाली बिमारियों से बचाने के लिऐ सफाई को मुख्य रूप से अपनाने पर जोर दिया. चम्पारण तथा अन्य ग्राम क्षेत्रों में भ्रमण के दौरान उन्होंने देखा लोग गाँव,घर,आंगन तथा स्वयं की व्यक्तिगत सफाई के लिऐ बड़े ही लापरवाह हैं तथा विभिन्न प्रकार की सामान्य स्वच्छताजनित बिमारियों से ग्रसित हैं और सबसे बड़ी बात यह
है कि उन्हें स्वयं अस्वच्छता तथा इससे होने वाली बिमारियों के विषय में कोई जागरुकता भी नही थी. अतः इस काम के लिए उन्होने डाक्टर्स तथा स्वयं सेवकों की मदद ली ताकि जनसंचार एवं जागरूकता के माघ्यय से स्वास्थ्य, शिक्षा तथा स्वच्छता के प्राथमिक स्तर के लक्ष्य को प्राप्त कर सकें. उनकी मेहनत रंग भी लायी ओर लोगों में स्वचछता के प्रति जागरुकता बड़ी. उनकी इसी प्रकार की चिन्तन धारा से असहयोग और सत्याग्रह का जन्म हुआ. सामाजिक स्तर पर सुधार हेतु उन्होने असंख्य प्रयास किए जिनमें किसानों के उत्पाद के प्राथमिक मूल्य तथा उनके लगान के मुद्दो पर जागरुकता तथा श्रम के लिए बिना भेदभाव समयानुसार मजदूरी के साथ-साथ उन्होंने अस्पृश्यता निवारण हेतु आजादी की मुहिम में अपने साथ लगी, आजादी की टीम को भी उसी काम पर लगा दिया ताकि आजादी के साथ इस समाज सेवा की मुहिम पर भी कार्य हो सके. इसके लिऐ सन 1932 में ‘हरिजन सेवक संघ’ की स्थापना की और देश के अधिकतर राजनेताओं को इसमें जोड़ा गया. सामाजिक समता तथा अस्पृश्यता निवारण के कार्यो के पीछे एक अनोखा दर्शन छुपा था, वह दर्शन प्रायश्चित का था ताकि पुरखों द्वारा अस्पृश्यता को मानने का जो पाप लोंगों द्वारा किया गया था, इस मुहिम के द्वारा एक प्रकार के पाप से मुक्त होने की कोशिश भी थी. इसी के साथ ‘भंगी मुक्ति कार्यक्रम, ‘अस्पृश्यों का मन्दिर प्रवेश अभियान’, जैसे कई ऐसे अन्य सामाजिक मुददे रहे हैं. उन्होने समाज के उत्थान में आत्मिक उत्थान को मजबूत नींव माना जिसमें सत्य, अहिंसा एवं संयम जैसे मूल्यों को सर्वोपरि स्थान दिया गया. असल में गांधी जी प्रयोग आधारित बदलाव पर विश्वास करते थे.ज्योतिष
गांधी जी के अनुसार जो काम व्यक्ति के व्यवहार और आदतों में शामिल नही है, उस कार्य पर वह व्यक्ति दूसरों को शिक्षित नही कर सकता है. स्वयं प्रयोग करने से मिले अनुभव के बाद व्यक्ति जो शिक्षा देगा ऐसी शिक्षा उसके व्यवहार में भी परिलक्षित होगी और एक सही मार्गदर्शन के लिऐ सामने वाले को वास्तविक रुप से प्रेरित भी करेगी. उनका यह एक विशेष गुण था कि उन्होने हर एक प्रयोग सर्वप्रथम खुद के लिऐ लागू किऐ तत्पश्चात दूसरों को शिक्षित किया.
साधारण शब्दों में कहा जाऐ तो सामान्य अर्थ यह है कि वे जानते थे कि एक राष्ट्र के रूप में देश तभी सफल हो सकता है जब जनता को अपने बुनियादी मुद्वों पर गहरी समझ हो, तथा उसको सफल बनाने के लिऐ उसकी सोच अपने सहज भाव में समाज के कार्यो के साथ रेखांकित हो . केवल आवेशात्मक रवैये से प्रेरित बातों और हिंसा के बल पर पर आजादी और लोकतंत्र के उददेश्य को पाना संभव नही रहा था तब जबकि हमारे गुलाम देश के पास खुद की सैन्य शक्ति का नितांत अभाव था.ज्योतिष
हालाँकि आज भी साम्प्रदायिकता, धर्मवाद, जातिवाद तथा क्षेत्रवाद और भीड़वाद ऐसे शत्रु हैं जिनकी गहरी और तार्किक समझ का आमलोगों में अभाव है जिसके कारण ये सभी शत्रु भीतर ही भीतर समाज को खोखला करते जा रहे हैं. आज ऐसे एक नही, कई गांधी की जरूरत है, जो लोगों में सामाजिक समता तथा शिक्षा को बढ़ावा देकर समन्वित विकास हेतु भारत की नवीन परिकल्पना को साकार रूप दे सकें. अगर कहूँ कि “खुदा तो नही थे, हिन्दुस्तान की बरकत थे गांधी, तभी तो
जनमानस में बापू भी कहलाऐ थे, गांधी”. यही सब बातें हैं और वैसी सी जरुरतें आज भी कि एक दिन गांधी को लौटना होगा, हमारे सामाजिक मुद्दो में उसके चिन्तन और दोहन के लिऐ, एक दिन गांधी जरुर लौटकर आऐंगे, बर्शते कि हम एक नये समाज के साथ वास्तव में चाहें, गांधी का लौटना, और हम यह कभी नही समझ पाऐंगे कि आखिर किसी के लौटने में, वह वास्तविक रूप से हमारे विचारों, हमारी धारणाओं तथा संस्कारों में कितना तक लौट पाता है और कितना किसी सभ्यता में वह बहुत पीछे छुट जाता है. जैसे छूट रहा है, हमारा लोक जीवन और उसमें रची बसी हमारी संस्कृति की मौलिक झलक, ऐसे ही नयी सभ्यता में पुनरावृति तो होती ही है पर फिर भी कहीं छूट ही जाती है कुछ अनकही सी स्मृतियां, कुछ अनकही सी बातें.ज्योतिष
हाँ पर यह सच है कि सभ्यता खुद को दोहराती है, तब यही संभावना रहेगी कि हर युग में गांधी जी आऐं और अपने कुशल नेतृत्व से समेट लंे बिखरे और बिसराऐ हुऐ सच्चाई के रास्ते जहाँ कोई लालच ना हो, कोई राजनैतिक पार्टीवाद ना हो, अगर यदि लालच हो तो, सामाजिक सहिष्णुता का हो, भाईचारे का हो और विशुद्व प्रगति का भाव हो क्योंकि हर युग, हर काल में गांधी का जिंदा रहना जरूरी है. गांधी जी एक समाजिक चेतना के संत थे, जिन्होंने अपनी फकीरी के मौलिक
अंदाज से सामाजिक संसाधनों का सही नेतृत्व कर अंग्रेजी सेना के दिग्गजों को भारत छोड़ने को मजबूर कर दिया था तथा समस्त जनमानस को सामाजिक चेतना का भागीदार भी बनाया. हमें याद रखना होगा कि एक मौलिक चेतना का वाहक संत सिर्फ देह से खत्म हो सकता है किन्तु अपने आर्दशों, सिद्धान्तों, और सादगी से अनंत तक सामान्यजन की चेतना बिन्दु का अटूट हिस्सा बना रहता है. आज भी सामाजिक चुनौतियों से निपटने के लिऐ अनुशासन, सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह जैसे आन्दोलनों को ढाल बनाने की जरुरत है और साथ में नैतिक शिक्षा के रुप में पाठयक्रमों में नैतिक मूल्यों पर जागरुकता की जरुरत भी है. आने वाली पीढ़ी में यम, नियम पालन की धारणा बची रहेगी तो मौलिकता बची रहेगी, सत्य बचा रहेगा, अहिंसा बची रहेगी और मानव की स्वस्थ प्रजाति बची रहेगी. आज समय के सापेक्ष बापू पर कुछ पंक्तियाँ अन्र्तमन से स्वतः निकल रही हैं.ज्योतिष
बापू! जो भूल गये हैं
कि वो समय अलग था,
विषय अलग था,
जिसकी होती है सत्ता,
वही होता है, तुरुप का पत्ता,
सच कहूँ तो, तब गुलाम आदमी में,
गुलाम भारत था.
फूल, पौंधे, पत्ते तक सहमें होंगे
उनकी अंग्रेजी ताकत में
अपनी हिन्दी डरी – डरी सी होगी.
जब कई वीर शहादत कर गये,
कुछ बगावत कर गये, सब याद है.
माना कि सबने मिलकर गोरों को खदेड़ा
कुछ ने प्रभात फेरी सजायी,
कुछ ने बंदूकें उठायी,
अपने-अपने नारे थे, अपनी तरकीबें भी.
कुछ में जोश, कुछ होश में
कुछ में सीनाजोरी थी,
हांलाकि आगे बढ़ने की
अदभुत वीरों की टोली थी.
पर आसान नही हुआ होगा बापू,
जिसकी सत्ता उसका खंडन
फिर जो तुमने राह सुझायी होगी,
बिगड़ी बात बनायी होगी.
गर हिंसा का ही सब खेल होता
माना कि आज भी, वो मुल्क अपना ही होता
तब भी क्या हो जाता बापू,
आतंकवाद का वो बीज भारत में भी उगता
अच्छा हुआ जो जंगली घास
सीमा से बाहर हटायी.
तुम अडिग,एक विचार, एक सिद्वांत बने
सत्य अहिंसा के अनुयायी,
दुश्मन ने भी तब की अगुवाई,
बांधे सामान चल पड़े थे, वे समुदायी.
बापू खोज रहे हैं, वे आज भी तुमको
जिनकी पीढ़ियाँ तुम पर इठलायी
और जिन्होने अहिंसा पर चोट लगाई
अब उनके अनुज करते हैं, जग हंसाई
मूर्तियां सुन नही सकती हैं
कह नही सकती, बोल नही सकती
इसलिऐ उन्होंने शब्द हिंसा अपनायी
बापू जो रक्त पिया करते हैं,
वह भी अहिंसा से डरा करते हैं.
ज्योतिष
आज भी समाज के चिन्तन पर जब बात होती है, बापू की चर्चा भी जरुर होती है. भारत के प्रधानमंत्री आदरणीय मोदी जी ने 2 अक्टूबर 2014 को स्वच्छ भारत मिशन बापू को ध्यान में रखकर के ही शुरू करवाया है, क्योंकि बापू ने बड़ी सिद्दत से यह चाहा था कि एक दिन भारत के सभी नागरिक देश को साफ-सुथरा बनाने में एकजुट हो जाऐं. यह रचनात्मक सोच थी, जो आज भी जनजीवन के लिऐ प्रासंगिक है, जिसका उददेश्य जनजीवन को एकसाथ एक आन्दोलन के
रुप में एकत्रित होकर कुछ समय स्वच्छता को देने के लिऐ बनाया गया है ताकि स्वच्छता हमारी आदतों का हिस्सा बन सके. मानव चिन्तन और समय, बापू को सदैव हमारे बीच में अमर बनाऐ रखेगा. हम और हमारी आने वाली पीढ़ी अपने मनन और चिन्तन के साथ समाज के नये सोपानों में हमारे सकारात्मक समाजिक, नैतिक मूल्यों द्वारा हिन्दुस्तान का परचम लहराऐगी. जय हिन्द, जय भारत .