संयोग नहीं है स्वाधीनता, उसे सुयोग बनाएं!

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स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त, 2024) पर विशेष

प्रो. गिरीश्वर मिश्र 

यह संयोग मात्र नहीं है कि भारत में लोकतंत्र न केवल सुरक्षित है बल्कि प्रगति पथ पर अग्रसर हो रहा है. यह तथ्य आज की तारीख में विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि पड़ोसी देश एक-एक कर लोकतंत्र से विमुख हो रहे हैं. वहाँ अराजकता के चलते घोर राजनीतिक अस्थिरता का माहौल व्याप रहा है. अफ़ग़ानिस्तान, म्यांमार, मालदीव और पाकिस्तान आदि में लोकतंत्र मुल्तबी है. कई आकलनों में श्रीलंका और बांग्लादेश को भारत की तुलना में कभी अच्छा घोषित किया गया था पर अब वहाँ के हालात नाज़ुक हो रहे हैं. बांग्ला देश की ताज़ा घटनाएँ बता रही हैं वहाँ किस तरह चुनी हुई सरकार और प्रधानमंत्री को बर्खास्त कर दिया गया. इन सभी देशों में लोकतंत्र को बड़ा आघात लग रहा है और जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो रहा है.

आज अंतरराष्ट्रीय परिवेश में हर तरफ़ उथल-पुथल मची है. समुद्र पार इंग्लैंड, अमेरिका और फ़्रांस में भी असंतोष की भावनाएँ उबाल खा रही हैं. चारों ओर परिवर्तन की लहर चल रही है. रूस-यूक्रेन का युद्ध और इसराइल–फ़िलस्तीनी युद्ध थमने का नाम नहीं ले रहा है. इस दृष्टि से यह गौरव की बात है कि सारी विविधताओं और अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों के बीच भारत न केवल लोकतंत्र को संभालने में सफल रहा है बल्कि सुदृढ़ हुआ है और एक समर्थ अर्थ व्यवस्था के साथ विकसित देश बनने की तैयारी कर रहा है.

यदि आपात काल के दुर्भाग्यपूर्ण दौर को छोड़ दें तो स्वतंत्रता मिलने के बाद जनतांत्रिक ढंग से चुनी सरकारें ही भारत में सत्ता में रही हैं वे चाहे अकेली पार्टी की हों या मिली-जुली. जनता ने सबका स्वागत किया है और लोकतांत्रिक संस्थाओं को मज़बूत किया है. यह लोकतंत्र की गहरी और मज़बूत जड़ों का ही सुफल है कि यहाँ लोकतंत्र का बिरवा फल-फूल रहा है. इसके पीछे अनेक समर्पित राजनेताओं, किसानों, मज़दूरों और विद्यार्थियों की निष्ठा है जिन्होंने ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान नि:स्वार्थ रूप से लोकतंत्र की भावना को अपने खून-पसीने से सींचा था और अनेक युवा क्रांतिवीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी. वे भिन्न-भिन्न धर्मों, जातियों, क्षेत्रों  और भाषाओं का प्रतिनिधित्व करते थे पर सब एक भारत देश के साथ अपना तादात्मीकरण करते थे. स्वाधीनता दिवस के अवसर पर उन सभी का स्मरण करते हुए नमन !

पूरे देश के प्रतिनिधियों ने बाबा साहेब अम्बेडकर और अनेक लोगों के सहयोग से निर्मित संविधान को स्वीकार किया और उसके तहत विधि-विधानों का पालन करते हुए इस विविधता भरे विशाल समाज को एकजुट रखने के लिए यत्नशील रहे. इस बात को देश के नेतृत्व ने समझा और देश के सभी क्षेत्रों को आगे बढ़ने का मौक़ा दिया. आपसी समझदारी और भरोसे के साथ देश की यात्रा चलती रही. आज देश एक ओर अंतरिक्ष विज्ञान जैसे ज्ञान-विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में आगे बढ रहा है और स्वावलबन की ओर अग्रसर हो रहा है. साथ ही लोकतंत्र की प्रक्रियाओं में आम आदमी की भागीदारी सुनिश्चित करने के साथ अनेक जनहितकारी कार्यों को अंजाम दिया गया है. समाज के हाशिए पर स्थित लोगों तक सुविधाओं को पहुँचाने का कार्य सफलतापूर्वक पूरा किया गया. इस सबके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि सब कुछ ठीक है.

भारत की स्वाधीनता के साथ कड़वी यादें भी जुड़ी हैं. अंग्रेजों द्वारा देश के विभाजन और उससे उपजे दंगे-फ़साद और जान-माल की अपरिमित हानि की एक भयानक त्रासदी मानव इतिहास में विरल है. इससे ग़ुजर कर अखंड भारतीय समाज को दो देशों में बंटने के बाद बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा जिसके घाव अभी भी हरे हैं.उसी बीच सत्ता-हस्तांतरण हुआ और भारतीय नेताओं ने देश का राज-पाट सँभाला. इस निर्णायक क्षण पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अनुपस्थित थे. वे बंगाल में दंगा पीड़ितों के घाव सहला रहे थे और उन्हें यह काम उत्सव में रहने की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण लगा.

सन 1947 के पंद्रह अगस्त को भारत को अंग्रेजों से आज़ादी मिली और यहाँ तक पहुँचने के पहले कई नेताओं को शासन चलाने का अभ्यास मिला था. नौकरशाही, क़ानून-व्यवस्था, शिक्षा-व्यवस्था और लोकतांत्रिक रीति-नीति का अच्छा बुरा जो ढाँचा अंग्रेजों ने औपनिवेशिक भारत के लिए बनाया था वह रेडीमेड तैयार था. उसे ही स्वतंत्र भारत के लिए आधार बनाया गया. अंग्रेज़ी चाल ढाल वाला साहबी ठाट, शौक़ और रुतबे की छवि मन में बसी हुई थी. इसका परिणाम यह हुआ कि जनता और लोकतंत्र का विचार कम और राजसी प्रतीकों और ताम-झाम को बनाए रखने का काम तेज़ी पर रहा. इन सबमें उलझ कर स्वराज, स्वाधीनता का स्व का विचार और जनता की सेवा का विचार पृष्ठभूमि में खोता चला गया. बाद के समय में बहुत से नेताओं का सरकार में शामिल होने का मक़सद धन-उगाही हो गया. यह कमाई का एक सम्माननीय ज़रिया बन गया. यह कड़वी सच्चाई है कि जन-सेवा से जिन्होंने राजनीति में प्रवेश लिया वे शीघ्र ही उसे भूल गए और आँख मूँद कर सिर्फ़ धन-सम्पदा कमाने में जुट गए. राजनीति एक व्यवसाय या धंधा बनता गया जिससे बहुत कुछ अर्जित किया जा सकता था.

आम चुनावों में सैकड़ों करोड़ की ज़ब्ती होती है और जो पकड़ में नहीं आता उसकी तो बात ही नहीं. चूँकि अपराध सिद्ध करना लगभग असम्भव सा क़ानूनी खेल है सभी नेता ज़मानत ले कर राजनीति करते रहते हैं. जब तक अपराध प्रमाणित न हो तब तक आदमी निरपराध रहता है परंतु दंडित होने के बाद भी राजनीति में ऐसे महापुरुष असर डालते ही रहते हैं.

आज मौजूद अधिकांश नेताओं की सम्पदा जिस तरह तीव्र गति से बढी है वह अकल्पनीय है. सभी आय के साधन से अधिक सम्पत्ति का घोषित मामले हैं चाहे वह पकड़ा गया हो या नहीं. इन नेताओं का अभिजात या सम्भ्रांत क़िस्म का एक अपना वर्ग बनता  गया. रहन-सहन, खान-पान, साज-सज्जा और वेश-भूषा सभी में वे जनता से परे एक अलग ‘क्लास’ को व्यक्त करने लगे. यह दुर्भाग्य ही रहा कि ऊँची बातें और ओछा आचरण नेताओं की निशानी बनती गई. चूँकि उनके लिए कुछ भी असम्भव नहीं रहा वे अत्याचार और व्यभिचार में भी बेखटके लिप्त होने लगे. राजनीति का व्यापारीकरण होता गया. वोट पाने, समर्थन जुटाने और अपनी बात चलाने के लिए कैश या काइंड में लेन-देन आम बात हो गई. बिना किसी वैचारिक आधार के विरोधी पार्टियों के साथ क्षणभंगुर मेल-मिलाप समझ से परे हो चुका है.

आम चुनावों में सैकड़ों करोड़ की ज़ब्ती होती है और जो पकड़ में नहीं आता उसकी तो बात ही नहीं. चूँकि अपराध सिद्ध करना लगभग असम्भव सा क़ानूनी खेल है सभी नेता ज़मानत ले कर राजनीति करते रहते हैं. जब तक अपराध प्रमाणित न हो तब तक आदमी निरपराध रहता है परंतु दंडित होने के बाद भी राजनीति में ऐसे महापुरुष असर डालते ही रहते हैं. एक क़िस्म के दायित्वहीन नेताओं की भीड़ जमा होती जा रही हैं जिन्हें देश, समाज, और संस्कृति किसी की भी चिंता नहीं है. वे सिर्फ़ अपने, अपने परिवार, अपने परिजन और अपनी पार्टी का ही भला देखते हैं. धन-बल, बाहु-बल और जाति-बल के चलते लोक सभा को कुछ परिवार अपनी उपस्थिति से सुशोभित कर रहे हैं. इन माननीयों के योगदान और समाज सेवा के बारे में सबको मालूम है. विचारधारा, मत, नीति और आदर्श अब दिखावे के बच रहे हैं जो जनता को भुलावे में डालने के काम आते हैं.

राजनीति की ज़मीनी हक़ीक़त इतनी दलदली होती जा रही है कि कोई भी कभी भी उसमें धँस सकता है. भ्रष्टाचार अब एक स्वाभाविक आचरण होता जा रहा है और हर आदमी उसे जीने के लिए बाध्य हो रहा है. रूपये-पैसे की भूख सबको है वह चाहे जैसे मिले और इस भूख से तृप्ति नहीं होती. इसलिए इसका चक्र चलता रहता है. सांसद गण से अपेक्षा है जाति, धर्म और क्षेत्र से ऊपर उठ कर देश के लिए ज़िम्मेदारी उठाएँ.

पिछले कुछ दिनों ऐसा बहुत कुछ हुआ जो देश के लिए शर्मनाक है. नमूने के तौर पर कुछ का ज़िक्र किया जाना चाहिए. बिहार में एक सप्ताह के भीतर भीतर कई सौ करोड़ से बने छोटे-बड़े कुछ पुराने पर ज़्यादातर नवनिर्मित कुल दस अदद पुल ध्वस्त हो कर जलमग्न हो गए. रेल की कई दुर्घटनाएँ हुईं जिनमें जान-माल की बड़ी क्षति हुई.  दिल्ली में कोचिंग सेंटर में जलभराव से विद्यार्थियों की मृत्यु हो गई. लाखों छात्र नीट और नेट की परीक्षा की गड़बड़ियों से राष्ट्रीय स्तर पर त्रस्त हुए.

स्वाधीनता दिवस के अवसर को सुयोग बनाने की ज़रूरत है ताकि देश आगे बढ़ सके. देश सुरक्षित और समृद्ध होगा तो सभी का भविष्य सुधरेगा. आज देश-योग साधने से हम आगे बढ़ेंगे. भविष्य हमारा है पर तभी जब हम अपने श्रम और ईमानदार सहयोग से काम करें.

हाथरस में एक आध्यात्मिक गुरु के पास पहुँची भीड़ कुछ इस तरह अनियंत्रित हुई की सौ से अधिक लोगों को मुक्तिदायी गुरुचरणरज लेने में अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ा. पहाड़ों पर पहले जंगल की आग ने बहुत बड़ा हरित क्षेत्र स्वाहा किया और अब तीव्र वर्षा सड़क और घर सबको तहस-नहस कर रही है. इन सब पर सरकार जनता को स्थायी आध्यात्मिक ज्ञान पिलाती रहती  है : इन सब मामलों में उचित कारवाई हो रही है, रपट का इंतज़ार है, न्याय ज़रूर होगा, और किसी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा . आख़िर काम क़ायदे से ही होना चाहिये. जनता की स्मृति कमजोर होती है और नई-नई समस्याएँ हाज़िर होती रहती हैं. इसलिए पुरानी घटनाओं का असर क्रमशः  कम होता जाता है.

चूँकि अब संसद की कारवाई समेत सब कुछ टीवी फ़ौरन से पेश्तर सजीव ढंग से हाज़िर हो जाता है सभी को इसका प्रत्यक्ष होता है कि कौन क्या बोल रहा है? कैसे बोल रहा है और यह समझना आसान हो जाता है कि वह ऐसा क्यों बोल रहा है . पिछले दिनों हुए भारत के आम चुनाव के परिणाम दर्शाते हैं कि जन सरोकार से स्पर्शहीन मीडिया के माध्यम से रचा आभासी कथानक लोगों को ज़्यादा रास नहीं आता. आम लोग भी समझदार हो रहे हैं और लोकतंत्र का आशय समझने लगे हैं. आज आवश्यकता है अपने छोटे घरौंदों की सीमाओं को पहचानें. स्वाधीनता दिवस के अवसर को सुयोग बनाने की ज़रूरत है ताकि देश आगे बढ़ सके. देश सुरक्षित और समृद्ध होगा तो सभी का भविष्य सुधरेगा. आज देश-योग साधने से हम आगे बढ़ेंगे. भविष्य हमारा है पर तभी जब हम अपने श्रम और ईमानदार सहयोग से काम करें.

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