अपेक्षा/उपेक्षा

  • निमिषा सिंघल

अपेक्षाएं पांव फैलाती हैं…
जमाती हैं अधिकार,
दुखों की जननी का हैं एक अनोखा…. संसार।

जब नहीं प्राप्त कर पाती सम्मान,
बढ़ जाता है क्रोध…
आरम्पार,
दुख कहकर नहीं आता..
बस आ जाता है पांव पसार।

उलझी हुई रस्सी सी अपेक्षाएं खुद में उलझ..
सिरा गुमा देती हैं।

भरी नहीं इच्छाओं की गगरी….
तो मुंह को आने लगता है दम।

भरने लगी  गगरी…
उपेक्षाओं के पत्थरों से,
जल्दी ही भर  भी गईं..
पर रिक्तता बाकी रही…।

मन का भी हाल  कुछ ऐसा ही है
स्नेह की नम मिट्टी..  पूर्णता बनाए रखती हैं,
उपेक्षाएं रिक्त स्थान छोड़ जाती हैं।

(लेखिका मूलत: आगरा उत्तर प्रदेश से हैं तथा कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित एवं ‘सर्वश्रेष्ठ सदस्य एवं सर्वश्रेष्ठ कवि सम्मान’ सावन.इन (अक्टूबर-2019, जनवरी-2020) जैसे कई सम्‍मानों से सम्‍मानित हैं)

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