पलाश के पत्तों पर भोजन करना स्वर्ण पात्र में भोजन करने से भी उत्तम है!
मंजू दिल से… भाग-4
- मंजू काला
हमारे देश में सामाजिक अथवा धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न होने के पश्चात इष्ट-मित्रों, रिश्तेदारों को भोजन के लिये आमन्त्रित करना एवं प्रसाद का वितरण हमारी भोजन पद्धति का एक अंग है.
यद्यपि यह व्यवस्था आज भी बदस्तूर जारी है तथापि इसका स्वरूप जरूर बदल गया है. हम पर पश्चिमी सभ्यता का ऐसा मुलम्मा चढ़ा हुआ है कि हम उसका गुणगान करते नहीं थकते हैं. अपनी पुरानी सांस्कृतिक विरासत को भूलते जा रहे हैं और परिणाम हम सबकी आँखों के सामने है. हमारा प्यारा हिंदुस्तान आज प्रदूषण की समस्या से जूझ रहा है!प्यारे
वास्तविकता यह है कि इन सभी के
लिये प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से हम स्वयं ही जिम्मेदार है क्योंकि, प्रकृति ने पृथ्वी को स्वस्थ एवं स्वच्छ रखने के अनेकों साधन प्रदान किये हैं, मगर हम ही उन्हें इस्तेमाल न करके कृत्रिम साधनों पर निर्भर रहते हैं. यदि आज हम सब जागृत न हुए तो वह दिन दूर नहीं कि प्रत्येक को साथ में आक्सीजन सिलेण्डर लेकर चलना पड़ेगा और हमारी पृथ्वी एक कूड़े के ढेर में बदल जायेगी! इन सबसे बचाव का एक तरीका है, आधुनिकता से पुरातन परम्परा की ओर दृष्टिपात करना और उसकी खूबियों को जानकर उसका अनुसरण करना!प्यारे
कहते हैं कि ‘जैसा खाए अन्न वैसा रहे मन’ सच ही है कि स्वच्छ भोजन करके ही हमारा शरीर स्वस्थ रह सकता है और स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है. यदि गौर करें तो पूर्व में भोजन व्यवस्था अत्यन्त सरल सुस्वादु एवं स्वास्थवर्धक हुआ करती थी. भोजन बनाने की सम्पूर्ण प्रक्रिया में स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता था, जिसके लिए सदैव प्राकृतिक पदार्थों का उपयोग किया जाता था. भोजन में किसी भी रसायन का प्रयोग वर्जित था. भोजन को सम्मान देने हेतु ग्रहण करने से पूर्व प्रार्थना का विधान हुआ करता था. भोजन को एक यौगिक क्रिया अर्थात् शरीर में योग करने वाली प्रक्रिया माना जाता था लोग इतना ही भोजन ग्रहण करते थे जो उनके शरीर के लिये आवश्यक होता था और उसे पचाने के लिये भरपूर परिश्रम करते थे.
प्यारे
इसके वितरीत आज के समय भोजन बनाने वालों का मुख्य उद्देश्य भोजन दिखने में आकर्षक बनाना होता है एवं स्वादेन्द्रियों को संतुष्ट करने वाला होता है, आज के समय में भोजन योग
न होकर भोग के रूप में ग्रहण किया जाता है, भले ही इसके लिए रसायनों का प्रयोग करना पड़े, यह जानते हुए कि यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित होता है. परोसने हेतु व्यंजनों की संख्या इतनी अधिक होती है कि भोजन लेने वाला अपनी एक ही प्लेट में खट्टा, मीठा, ठण्डा, गर्म एवं तैलीय भोजन लेकर अपने स्वास्थय के साथ अनजाने में ही खिलवाड़ कर लेता है. साथ ही भोजन की अनावश्यक बर्बादी भी होती है और भोजन पचाने के लिए जिम का सहारा लेना पड़ता है.प्यारे
अब बारी आती है भोजन परोसने की कला, तो प्राचीनकाल में भोजन पत्तों पर परोसा जाता था जो कि स्वास्थ्य की दृष्टि से शरीर के लिए लाभदायक होते थे. बड़े पत्ते पर सम्पूर्ण भोजन
अलग-अलग परोसा जाता था और छोटे पत्तों को जोड़कर एक बड़ी गोल आकृति बनायी जाती थी जिसे पत्तल कहा जाता था. सभी आमन्त्रित अतिथियों को पत्तल में भोजन परोसा जाता था, चाहे गरीब हो या अमीर सभी एक पंगत में बैठकर भोजन ग्रहण करते थे और परोसने वाले सभी के पास जाकर “और ले लीजिये” का आग्रह करते हुये भोजन परोसते थे, जिसमें असीम आत्मीयता का भाव छिपा होता था.प्यारे
पत्तल पर भोजन परोसने की
परम्परा बहुत ही पुरानी है. आश्चर्य की बात है कि लगभग 2000 से अधिक वनस्पतियां पत्तल के रूप में प्रयोग की जाती हैं, जिनसे होने वाले लाभ को चिकित्सकों ने भी स्वीकारा है. पत्तलों की श्रृंखला में सर्वाधिक प्रयोग किये जाने वाला पत्ता केले का होता है जो बड़ा होने के साथ-साथ भोजन की पौष्टिकता को बढ़ा देता है. केले के पत्ते पर जमा वैक्स कोटिंग गर्म भोजन के सम्पर्क में आते ही पिघलकर उसके पोषण को बढ़ा देता है.
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मेजबान को पता रहता था कि किस
मेहमान ने भोजन किया और किसने नहीं, जबकि आज ऐसा कहीं भी देखने को नहीं मिलता है. कितना भी बड़ी आयोजन हो गिद्ध भोज में अनेकों व्यंजनों के बावजूद (बुफे सिस्टम) में किसने खाया या कौन बिना खाये ही चला गया कोई पूछने वाला कोई नहीं है. आज हम मात्र दिखावे की जिन्दगी जी रहे हैं.प्यारे
पत्तल पर भोजन परोसने की परम्परा बहुत ही पुरानी है. आश्चर्य की बात है कि लगभग 2000 से अधिक वनस्पतियां पत्तल के रूप में प्रयोग की जाती हैं, जिनसे होने वाले
लाभ को चिकित्सकों ने भी स्वीकारा है. पत्तलों की श्रृंखला में सर्वाधिक प्रयोग किये जाने वाला पत्ता केले का होता है जो बड़ा होने के साथ-साथ भोजन की पौष्टिकता को बढ़ा देता है. केले के पत्ते पर जमा वैक्स कोटिंग गर्म भोजन के सम्पर्क में आते ही पिघलकर उसके पोषण को बढ़ा देता है. इसमें मौजूद पालीफिनाल एक प्राकृतिक एन्टी आक्सीडेन्ट हैं जो सीधे भोजन करने वाले के स्वास्थ को लाभ पहुँचाता है.प्यारे
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केले के पत्ते पर नियमित भोजन
करने से शरीर में एन्टीबैक्टीरिया समाप्त होकर शरीर को स्वस्थ बनाता है. इस पर भोजन करना त्वचा के लिए भी लाभदायक है एवं इसकी प्राकृतिक सुगन्ध भोजन को और भी स्वादिष्ट बना देती है. इसका प्रयोग दक्षिण भारत में सर्वाधिक होता है. परन्तु इसकी लोकप्रियता को देखते हुए कुछ बड़े-होटल एवं रिसॉर्ट में भी फैशन के तौर पर इसका प्रयोग शुरू हो गया है.पलाश के पत्तों पर भोजन करना स्वर्ण पात्र में भोजन करने से भी उत्तम है. पलाश के पत्तों में बहुमूल्य पोषक तत्व होते हैं जो गर्म भोजन से मिलकर
शरीर को मजबूत बनाते हैं. रक्त की अशुद्धि के कारण होने वाली बीमारियों में पलाश के पत्तों से तैयार पत्तल पर भोजन करना उपयोगी माना जाता है. पाचन सम्बन्धी रोगों के लिए भी इस पर भोजन करना लाभदायक माना जाता है.
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कहा जाता है कि पलाश के पत्तों पर भोजन करना स्वर्ण पात्र में भोजन करने से भी उत्तम है. पलाश के पत्तों में बहुमूल्य पोषक तत्व होते हैं जो गर्म भोजन से मिलकर
शरीर को मजबूत बनाते हैं. रक्त की अशुद्धि के कारण होने वाली बीमारियों में पलाश के पत्तों से तैयार पत्तल पर भोजन करना उपयोगी माना जाता है. पाचन सम्बन्धी रोगों के लिए भी इस पर भोजन करना लाभदायक माना जाता है. सफेद फूलों वाले पलाश के पत्तों का तैयार पत्तल बवासीर जैसी गम्भीर रोग में लाभदायक है. यह शरीर में प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में मदद करता है.करंज की पत्तियों से बने पत्तल पर नियमित भोजन करने से जोड़ों के दर्द में आराम मिलता है. इसी प्रकार अमलतास के पत्तों पर भोजन करने से लकवा जैसी गम्भीर बीमारियों से लाभ मिलता है.
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पत्तल पर भोजन स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभदायक तो है ही, साथ ही पर्यावरण को स्वच्छ रखने में सहायक है. पत्तल सिर्फ एक ही बार प्रयोग होने के कारण यह पवित्र एवं स्वच्छ माने
जाते हैं, साथ ही प्रयोग करने के पश्चात इन्हें मिट्टी में दबा देने से ये खाद में परिवर्तित होकर मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं. जिससे पर्यावरण को दूषित होने से बचाया जा सकता है. इनके प्रयोगों से जल की बर्बादी रोकी जा सकती है, जिससे जल संरक्षण को बढ़ावा मिलेगा. आज हमारा देश वृक्षों की कमी की समस्या से ग्रसित है तो पत्तलों की उपयोगिता को देखते हुए अधिक वृक्ष लगाये जायेंगे जो कि पर्यावरण को शुद्ध कर वायुमण्डल में शुद्ध ऑक्सीजन प्रदान करेंगे. इसका सबसे बड़ा लाभ है कि पत्तल उद्योग से जुड़े रोजगार में वृद्धि होगी और यह उद्योग अधिक से अधिक लोगों की जीविका का साधन बन सकता है.प्यारे
सामान्यतः समारोह में
थरमॉकोल एवं प्लास्टिक के बर्तनों का प्रयोग भी बहुतायत में किया जाता है, जोकि थाली, कटोरी, चम्मच, गिलास आदि के रूप में प्रयुक्त होते हैं यह सभी गर्म भोजन के सम्पर्क में आकर कैंसर जैसी गम्भीर बीमारी को जन्म देते हैं. इसके प्रयोग के पश्चात ये गंदगी का एक बहुत बड़ा कारण तो बनते ही हैं, साथ ही मानव स्वास्थय एवं समाज दोनों के लिए हानिकारक होते हैं.
प्यारे
आज की भोजन व्यवस्था में आदि से अन्त तक हानिकारक वस्तुओं का प्रयोग प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में किया जाता है जो कि भोजन को विषाक्त बनाने का कार्य करते हैं.
भोजन बनाने एवं परोसने की प्रक्रिया में प्रयोग किये जाने वाले बर्तन डिटर्जेन्ट से धोये जाते हैं जिससे वे स्वच्छ दिखने तो लगते हैं मगर वास्तव में उनमें साबुन का कुछ अंश शेष रह जाता है जो भोजन की गुणवत्ता को कम कर देता है. बर्तनों को साफ करने में अतिशय मात्रा में पानी प्रयुक्त होता है वहीं दूषित रूप में नालियों के माध्यम से नदियों को प्रदूषित करता है जिससे जल प्रदूषण में वृद्धि होती है.प्यारे
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सामान्यतः समारोह में थरमॉकोल
एवं प्लास्टिक के बर्तनों का प्रयोग भी बहुतायत में किया जाता है, जोकि थाली, कटोरी, चम्मच, गिलास आदि के रूप में प्रयुक्त होते हैं यह सभी गर्म भोजन के सम्पर्क में आकर कैंसर जैसी गम्भीर बीमारी को जन्म देते हैं. इसके प्रयोग के पश्चात ये गंदगी का एक बहुत बड़ा कारण तो बनते ही हैं, साथ ही मानव स्वास्थय एवं समाज दोनों के लिए हानिकारक होते हैं. यह पात्र न तो सड़ते हैं न गलते हैं और वर्षों तक यूं ही जमीन में पड़े-पड़े कूड़े का कारण बन जाते हैं, यदि इन्हें जलाने का प्रयास किया जाएं तो इसमें से अत्यन्त जहरीला धुंआ निकलता है जो पर्यावरण को प्रदूषित करता है जो जन-सामान्य के लिए भी हानिकारक है.प्यारे
यद्यपि सरकार ने इस दिशा में अनेक
सकारात्मक कदम उठाए हैं और प्लास्टिक एवं थरमॉकोल के पात्रों एवं कैरीबैग पर रोक लगा दी है. कोका कोला, इन्फोसिस जैसी बड़ी कम्पनियों ने प्लास्टिक को रीयूज, री-साइकलिंग एवं री-ड्यूज के तरीकों को अपनाकर प्लास्टिक प्रदूषण से बचने की राह निकाली है.इन सभी का सार यह है कि प्राकृतिक
पत्तों एवं अन्य मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग कर स्वयं का ही नहीं बल्कि पूरे समाज का हित किया जा सकता है. अतः हम सभी प्रतिज्ञा लें कि हर वह वस्तु जो पर्यावरण को दृषित करे, उसे त्यागकर पर्यावरण के लिए उपयोगी एवं स्वास्थवर्धक वस्तुओं का प्रयोग करें.प्यारे
(मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण,
पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं. नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है.)