डॉक्टर कुसुम जोशी का पहला लघुकथा संग्रह है ‘उसके हिस्से का चांद’। इस संग्रह की लघुकथाएं बेहद सधी हुई हैं, जो कि लेखन की परिपक्वता, गहन अध्ययन और अनुभव की बारीकी से उपजी हैं। हर लघुकथा खत्म होने के लंबे अंतराल तक ज़ेहन में अपना प्रभाव छोड़ती हैं और हर कहानी का शीर्षक बेहद प्रभावशाली तरीके से उसका प्रतिनिधित्व करता है। इन लघु कथाओं को पढ़ते वक्त ऐसा महसूस होता है कि इनके पाठ और पुर्नपाठ की न सिर्फ आवश्यकता है बल्कि, इनको लेकर गहन विमर्श और शोध की भी जरूरत है। ये लघुकथाएं विषय विविधता, सोच की गहराई और अपने शिल्प व संवाद से न सिर्फ पाठकों को संतुष्ट करती हैं, बल्कि प्रभावित करते हुए समाधान भी दे जाती हैं।
संवेदनात्मक स्तर पर ये लघु कथाएं जितने भीतर तक उद्वेलित करती हैं, उतना ही वैचारिक सवाल भी खड़ा करती हैं। नैतिकता का पाठ पढ़ाती हैं, तो विचारधारा का ढकोसलनापन भी उजागर करती हैं। इन लघु कथाओं का शीर्षक ही अपने आप में संदेश है, जिसमें असल कहानी छिपी हुई है, जो पढ़ने के बाद उसके मर्म की सटीक व्याख्या करती है। कहानी के खत्म होने के बाद जैसे ही आपकी नज़र शीर्षक पर फिर से जाती है, आप ख़ुद से ही संवाद करने लगते हैं। एक लघुकथा ‘भटकाव’ है जो वामपंथ के खोखले चरित्र को उजागर करती है। उन वैचारिक गुरुओं पर तीखा प्रहार करती है, जिनकी करनी और कथनी में भेद है। जिनके ख़ुद के बच्चे विदेशों से उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे होते हैं, स्वयं के लिए सुरक्षित और सुनहरा भविष्य एवं करियर का सपना देख रहे होते हैं, जबकि वे अपने छात्रों को बरगलाने में जुटे रहते हैं। इसी तरह से ‘ईमान’ कहानी बताती है कि भ्रष्टाचार किसी से पैसा लेना ही नहीं, बल्कि किसी काम के एवज में तोहफा लेना या फिर शराब की बोतल लेना भी है। जिस भ्रष्टाचार को हर कोई इग्नोर करता है और किसी कार्य के एवज में उपहार लेने को अपना कर्तव्य समझता है।
इन लघुकथाओं को पढ़ने के बाद आप स्वयं ही कुछ देर सोच के स्तर पर पहुंच जाते हैं। जल्दी अगली कहानी पलटने की बजाय पिछली पर ही ठहरे रहते हैं और अंत: वैयक्तिक संचार चल रहा होता है। आप कहानियों और उनके शीर्षकों को लेकर मनन और चिंतक में प्रवेश कर जाते हैं। एक कहानी ‘पलायन’ है जिसमें बंशी दा अपनी पत्नी चम्पा को लिखते हैं ‘मेरा चुपचाप चले आना मेरा पलायन मत समझना, मैं कायर नहीं हूं जिस दिन तुम्हारे लायक हो जाऊंगा खुद ही चला आऊंगा।’
पहाड़ों से पलायन की असल वजह बेरोजगारी और संसाधनों का अभाव ही तो है। बंशी दा किसानी जीवन को ही अपना रोज़गार मानते हैं और मस्त रहते हैं। पर पत्नी को पति का बेरोजगार होना अखरने लगता है और पत्नी के कठोर शब्दों के व्यंग्य बाण बंशी दा को एक भोर मुंबई के लिए रवाना कर देते हैं। ये लघु कथाएं यथार्थ से उपजी हैं और इनकी धरातल सतही नहीं, बल्कि मजबूत सामाजिक, राजनीतिक और भौगोलिक परिवेश को बयां करती हैं। क्या यह सच नहीं है कि पहाड़ों में अब किसानी रोज़गार नहीं रहा। धैली तक सुअर और बंदरों का आगमन वर्षों पहले ही हो चुका है। दो वक्त की रोटी के लिए ही तो पहाड़ की जवानी, पहाड़ सा दिल रखकर शहरों में सिमटी हुई है। ये लघु कथाएं आंचलिक शब्दों से सजी हुई हैं। संवेदनाओं की गहराई में उतरकर गढ़ी हुई हैं। सात-आठ लाइन की एक लघु कथा है ‘इति प्रेम कथा’, जो प्रेम को नए संदर्भों में बताती है।
‘उजाले की ओर’, ‘चाय पार्टी’, ‘बदलने का सच’….’निर्णय’, ‘अंधकार’, ‘ज़मीर’ जैसे शीर्षकों की 85 कहानियों को समेटे यह लघुकथा संग्रह ऐसा है कि एक बार हाथ में उठाने के बाद आप कई कहानियों को एक-साथ पढ़ते चलते हैं और ठहर कर सोचते भी हैं।
किताब का नाम: उसके हिस्से का चांद
लेखिका: डॉक्टर कुसुम जोशी
मूल्य: 300 रुपये
प्रकाशन: वनिका पब्लिकेशन