मुद्दा मीडिया का
- डॉ. रुद्रेश नारायण मिश्र
समाज के विरोध में या असामाजिक तत्त्वों में संलिप्त रहना अपराध है, पर जब यही अपराध, खादी और खाकी से अगर मिल जाए तो कई सवाल सामाजिकता को लेकर उठने शुरू हो जाते हैं. जिसका समयानुसार चिंतन भी होता है परंतु कितना कारगर, इस पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है, क्योंकि भूमिका सिर्फ अपराधी की नहीं बल्कि खादी और खाकी की भी हो जाती है. जो आर्थिक और मनोवैज्ञानिक कारणों की वजह से इस तरह की परिस्थितियों को जन्म देते हैं. भारत में अपराध, खादी और खाकी का संबंध आज का नहीं है. जाहिर है, इसकी छवि को बनाने के लिए कई बार राजनीतिक और सामाजिक सुधारों के नाम पर लोगों के बीच भ्रम की स्थिति फैलाई जाती है. जिससे राजनीति के अपराधीकरण को बढ़ावा मिलता है. कई बार अपराधिक गतिविधियों में खादी और खाकी अपने लिए अवसर तलाशने लगते हैं. एक पक्ष में तो दूसरा विपक्ष में, परंतु सामाजिक संभावनाओं की गहराई में वह नहीं समझ पाते हैं और आने वाले समय के लिए गड्ढा खोद देते हैं. यहीं से खादी और खाकी का अपराध से संबंध जुड़ जाता है. चाहे अपराध को प्रश्रय देने से हो या फिर उसे मिटाने से. इसमें राजनीतिक समीकरण बहुत कार्य करता है. एक राजनीतिक अपराधी दूसरे के राजनीतिक काल में टिक नहीं सकता. बावजूद इसके सवालों के घेरे तब शुरू होते हैं जब बड़े बड़े अपराधी हेरोइस्टिक अवतार में या तो गिरफ्तार होते हैं या फिर भाग खड़े होते हैं.
देखा जाए तो, भारतीय परिप्रेक्ष्य में आपराधिक राजनीति ने खाकी को कठपुतली बना कर रख दिया है और इसलिए अपराध और उसके बाद की राजनीति नए सिरे से जन्म लेती हैं, जो राजनीति नहीं बल्कि समाज के मुंह पर तमाचा है. अपराधी बाहुबली के नाम पर खेल, खेल जाते हैं और राजनीति में सेंध लगा देते हैं. क्योंकि खादी का सीधा संबंध राजनेता से माना जाता है. अगर आपने खादी नहीं पहनी तो आप नेता नहीं.
सिविल सोसाइटी समूह एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की माने तो 2014 लोकसभा चुनाव में चौतीस प्रतिशत उम्मीदवार बलात्कार, हत्या और अन्य आपराधिक मामलों में संलग्न थे. ऐसे में इन उम्मीदवारों की जीत सीधे-सीधे अपराध को बढ़ावा देता है और अपने आपराधिक मामलों में खाकी को मजबूर बनाता है. ऐसा मजबूर बनाता है कि उन्हें कई बार अपराधिक पूंजीपतियों के सामने भी झुकना पड़ता है. तभी तो विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे लोगों को खादी और खाकी के संदर्भ में देखा और परखा जाना चाहिए. अब ऐसे में, अपराध लोकतंत्र पर कई बार भारी पड़ता नजर आता है. देखा जाए तो, भारतीय परिप्रेक्ष्य में आपराधिक राजनीति ने खाकी को कठपुतली बना कर रख दिया है और इसलिए अपराध और उसके बाद की राजनीति नए सिरे से जन्म लेती हैं, जो राजनीति नहीं बल्कि समाज के मुंह पर तमाचा है. अपराधी बाहुबली के नाम पर खेल, खेल जाते हैं और राजनीति में सेंध लगा देते हैं. क्योंकि खादी का सीधा संबंध राजनेता से माना जाता है. अगर आपने खादी नहीं पहनी तो आप नेता नहीं. भारत में कोट-पैंट या शर्ट-पैंट की राजनीति नहीं है बल्कि खादी की है. यही वजह है कि जब अपराधी राजनीति में सेंध लगाता है तब वह जमकर खादी का इस्तेमाल करता है. इस दौरान कई पुलिस अधिकारी के आत्महत्या या हत्या की खबर भी आती है क्योंकि कुछ खादी के साथ मिल जाते हैं तो कुछ टूट जाते हैं. दूसरी तरफ ऐसे अपराधी हैं जो खादी और खाकी से मिलकर बड़े घोटालों को अंजाम देते हैं और फिर देश छोड़कर भाग खड़े होते हैं. ऐसे में राजनीतिक नेता पर सवाल उठते हैं क्योंकि यह वही खादी होते हैं, जो सत्ता में आने से पहले भ्रष्टाचार मिटाने की बात करते हैं. भारतीय संदर्भो में अपराधी और खाकी का ऐतिहासिक गठजोड़ है. जिसने समय के साथ सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण को भी बदला है. साथ ही, कानून में बदलाव की प्रक्रिया को बनाने के लिए प्रेरित किया है, परंतु इस गठजोड़ से यह संभव नहीं होते दिख रहा है.
25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 का समय आपातकाल का रहा. इस समय जनता के अधिकार निलंबित करने के साथ, उन पर अत्याचार किया गया. यह अत्याचार खादी ने खाकी के साथ मिलकर किया. इक्कीस महीने के इस काले वक्त को अपराधिक राजनीति के तौर पर देखा जाना अतिश्योक्ति नहीं होगी. जिसमें ना ही प्रेस स्वतंत्र था, ना ही समाज और ना ही व्यक्ति. अपराधी, खादी से इस प्रकार गठजोड़ करता है कि खाकी उसे घर तक छोड़ कर आती है. जिससे उनका हौसला और बढ़ जाता है. तीन दिसंबर 1984 की रात, ‘भोपाल गैस त्रासदी’ ऐसे ही आपराधिक गठजोड़ को दिखाता है. एक तरफ हजारों लोगों की जान चली गई तो वहीं दूसरी तरफ इसके मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन को मामूली जुर्माना लगाकर छोड़ दिया गया. उसके बाद गैस पीड़ित अपने मुआवज़ा के लिए राज्य और केंद्र सरकारों से लड़ते रहे और उनकी पीढ़ी अपंगता से लड़ते पैदा होते रहें. पर, अपराधी का अपराध साबित होने पर भी तत्कालीन राज्य और केंद्र सरकारों ने अपने कर्तव्यों का निर्वहन जनता के प्रति नहीं किया.
अपराध, खाकी और खादी के संदर्भ में राजीव गांधी के सरकार में रक्षा सचिव रहे शरद कुमार भटनागर और पुरे बोफोर्स कांड को देखना चाहिए जब शरद कुमार भटनागर ने जानबूझकर दस्तावेजों को छुपाने का कार्य किया. इस पूरे मामले को 1992 से 1997 के दौरान सीबीआई एक आपराधिक साजिश मानती हैं. इसी तरह के चारा घोटाले के आरोपी लालू प्रसाद यादव के साथ खड़े होने वाले तत्कालीन डीआईजी (सीबीआई) रंजीत सिन्हा की खादी से गठजोड़ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. समय के साथ इस तरह के गठजोड़ ने कभी ‘सत्यम घोटाला’ तो कभी ‘मनी लॉन्ड्रिंग’ तो कभी ‘भारतीय कोयला आवंटन घोटाला’, ‘२जी स्पेक्ट्रम घोटाला’ और ‘कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला’ को जन्म दिया. जिसमें सीधे-सीधे राजनेता और उनसे संबंधित लोगों का हाथ था. कुछ मामलों में आज भी अदालती कार्रवाई चल ही रही है.
कब तक एक सामान्य सोच रखने वाला व्यक्ति अपराध मुक्त खादी और खाकी को देखेगा? क्योंकि संघर्ष और क्रांति तो यही है ना कि समाज आगे बढ़े और खादी और खाकी अपने कर्तव्यों के माध्यम से समाज को प्रेरित करे, पर समाज में अपराधिक खादी और खाकी जबतक कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ते रहेंगे, सभी प्रश्न धरे के धरे रह जाएंगे.
निश्चित रूप में जब अपराध या आपराधिक प्रवृत्ति का व्यक्ति सीधे तौर पर राजनीति में प्रवेश करेगा तो वांटेड खादी पहनकर सीधे सीधे जनता से वोट मांगेगा और जब चुनाव जीतेगा तो क्या होगा? तब अपराधिक राजनीति ही उसका ध्येय रह जाएगा. कई चेहरे अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी, राजा भैया, रमाकांत यादव और पप्पू यादव जैसे लोगों पर न जानें कितने ही आपराधिक मामले चल रहे हैं, परंतु यह सभी बाहुबली, नेता के रूप में खुद को देसी रॉबिन हुड साबित करने लगते हैं. कई बार गवाह तो कई बार खादी और खाकी का साथ इनको बचाती ही नहीं बल्कि नेता की गद्दी तक पहुंचा देती हैं. पर सभी चेहरे एक जैसे नहीं होते हैं. उनमें से एक नाम गैंगस्टर विकास दुबे का भी है. कई अपराधिक मामलों के पश्चात कभी कोई गिरफ्तारी नहीं. कई खबरें खादी और खाकी से गठजोड़ की और इसी दौरान उसका एनकाउंटर. यह कई सवालों जो जन्म देता है. खादी से लेकर खाकी के कामों पर प्रश्नचिन्ह लगाता है. बावजूद इसके सच्चाई की कड़ी सामने नहीं आती है. आती तो शायद कई बड़े गैंगस्टर आज राजनीति गलियारे के बड़े चेहरे नहीं होते. उनके आवभगत में खादी और खाकी अपने बाहें फैलाये नहीं होता. यह स्थिति कई प्रश्न को खड़ा करता है कि आखिर यह गठजोड़ कब तक चलता रहेगा? कब तक राजनीति का अपराधीकरण होता रहेगा? कब तक एक सामान्य सोच रखने वाला व्यक्ति अपराध मुक्त खादी और खाकी को देखेगा? क्योंकि संघर्ष और क्रांति तो यही है ना कि समाज आगे बढ़े और खादी और खाकी अपने कर्तव्यों के माध्यम से समाज को प्रेरित करे, पर समाज में अपराधिक खादी और खाकी जबतक कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ते रहेंगे, सभी प्रश्न धरे के धरे रह जाएंगे.
(लेखक एम. ए. हिंदी, एम.ए., एम. फिल., पीएच. डी. जनसंचार. राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में कई शोध-पत्र प्रस्तुति एवं प्रकाशन. समकालीन मीडिया के नए संदर्भों के लेखक एवं जानकार हैं)
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