चंद्रशेखर तिवारी
रिसर्च एसोसिएट, दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र, देहरादून
‘शिखर धुरा ठंडो पाणी मैंसर उपज्यो / गंगा टालू बड़ बोट लौलि उपजी’ यानी उच्च शिखर में ठंडी जगह पर मैसर (महेश्वर) का जन्म हुआ और गंगा तट पर वट वृक्ष की छाया में लौलि (गौरा पार्वती) पैदा हुईं. पूर्वी कुमाऊँ व पश्मिी नेपाल के इलाकों में जब लोक उत्सव सातूं-आठूं की धूम मची रहती है तब स्थानीय लोग इस गीत को बड़े ही उल्लास के साथ गाते हैं.
सातूं-आठूं जो गमरा-मैसर अथवा गमरा उत्सव के नाम से भी जाना जाता है, दरअसल नेपाल और भारत की साझी संस्कृति का प्रतीक पर्व है. हिमालयी परम्परा में रचा-बसा यह पर्व सीमावर्ती काली नदी के आर-पार बसे गाँवों में समान रुप से मनाया जाता है. संस्कृति के जानकार लोगों के अनुसार सातूं-आठूं का मूल उद्गम क्षेत्र पश्चिमी नेपाल है, जहाँ दार्चुला, बैतड़ी, डडेल धुरा व डोटी अंचल में यह पर्व सदियों से मनाया जाता रहा है.
भारत से लगे सीमावर्ती गाँवों के मध्य रोजी व बेटी के सम्बन्ध होने से अन्य रीति-रिवाजों की तरह इस पर्व का भी पदार्पण कुमाऊँ की ओर हुआ. वर्तमान में कुमाऊँ में यह पर्व मुख्य रुप से पिथौरागढ़ जनपद के सोर, गंगोलीहाट, बेरीनाग इलाके, बागेश्वर जनपद के दुग, कमस्यार, नाकुरी तथा चम्पावत जनपद के मडलक व गुमदेश इलाकों में अटूट श्रद्धा व आस्था के साथ मनाया जाता है.
पहाड़ों में वर्षाकालीन खेती का काम जब समाप्ति की ओर होता है उन्हीं दिनों सातूं-आठूं का पर्व भी आता है. भादों माह की बिरुड़ पंचमी से प्रारम्भ होकर यह पर्व दस-बारह दिनों तक मनाया जाता है. सप्तमी और अष्टमी की तिथि को मुख्य आयोजन होता है. मुख्यत: यह महिलाओं का ही पर्व है. पंचमी, सप्तमी व अष्टमी के दिन विवाहित महिलाएं अखंड सौभाग्य व परिवार की सुख-समृद्धि के लिए व्रत रखती हैं. पंचमी के दिन गौरा-महेश्वर के निमित्त एक पात्र में पंच धान्य यथा- गेहूं, मास, चना, लोबिया, मटर आदि को सफेद कपड़े की पोटली में दूब सहित रखकर तांबे के पात्र में भिगोया जाता है. बाद में ये धान्य अंकुरित हो जाते हैं, जिन्हें बिरूड़ कहा जाता है. सप्तमी के दिन धान के सूखे पौंधों व कुछ अन्य घास प्रजाति के पौंधों से गौरा की आकृति बनायी जाती है. वस्त्राभूषणों से सज्जित गौरा को गाँव के सामूहिक स्थान पर रखकर पूजा जाता है. सुहागिन महिलाएं हाथ व गले में लाल-पीले रंग का धागा डोर तथा डुबड़ा धारण करती हैं. अष्टमी के दिन गौरा की तरह महेश्वर की भी आकृति बनायी जाती है और उन्हें भी वस्त्रों आदि से सजाया जाता है. शाम को सार्वजनिक स्थान पर गाँव की महिलाएं परंपरागत परिधानों में सजधज कर एकत्रित होती हैं. गौरा-महेश्वर की आकृतियों को डलिया में स्थापित करने के बाद बिरूड़, धतूरे, व स्थानीय फल-फूलों से उनकी पूजा की जाती है. इसके बाद डलिया में स्थापित इन प्रतिमाओं को गोल घेरे के बीच रखकर महिलाएं लोक गीत गाती हैं.
‘उपजी गवरा हिमाचली देशा
ल्याओ चेलियो कुकुड़ी का फूला
ल्याओ चेलियो माकुड़ी का फूला
सप्तमी-अष्टमी को बड छ परब
देराणी-जिठानी को बड छ बरत
ल्याओ चेलियो धतुरी का फूला’
बाद में शुभ मुहूर्त में गौरा-महेश्वर की आकृतियों का विसर्जन धारों और नौलों में किया जाता है. गाँव के सार्वजनिक स्थान पर स्त्री-पुरुष सामूहिक रुप से एकत्रित होकर लोक गीतों को गाकर उल्लास व्यक्त करते हैं. दस-बारह दिन तक चलने वाले इस लोक उत्सव में समूचा ग्रामीण समाज आनंद व उल्लास के साथ नाच-गीतों में निमग्न रहता है. गाँव भर में खूब चहल-पहल रहती है. अन्तिम दिन गौरा और महेश्वर की प्रतिमा को गाँव व आसपास के मन्दिर में रख दिया जाता है. इस दौरान गाँव के लोग ‘‘तेरी सेवा पुरि भै केदार’’ कहकर उन्हें विदाई देते हैं. फौल फटकने के उपरान्त ग्रामीण जनों की आँखें नम हो उठती हैं और अगले बरस के पर्व का इन्तजार करने लगते हैं. सातूं-आठूं पर्व के दौरान ग्रामीण रात-रात भर सामूहिक तौर पर ठुल खेल (चांचरी) का आयोजन करते हैं. गीत-नृत्य के माध्यम से मानवीय उद्गारों व सामाजिक भावनाओं का सुन्दरतम तरीके से प्रस्तुतिकरण करते हैं.
‘सिलगड़ी का पाला चला, गिन खेलुना गड़ो
तू होए हिंसालु तोपा, मैं उड़न्या चड़ो.’
इस उत्सव की सबसे बड़ी विशेषता इसमें गाई जाने वाली गौरा-महेश्वर की गाथा है जिसमें महादेव शिव व गौरा पार्वती के विवाह व उनके पुत्र गणेश के जन्म तक तमाम प्रंसगों का उल्लेख मिलता है. बिण भाट की कथा, अठवाली ,आठौं या सातूं-आठूं की कथा के नाम से प्रचलित यह धार्मिक गाथा प्रत्यक्षत: हिमालय के प्रकृति-परिवेश व स्थानीय जनमानस से जुड़ी दिखायी देती है. गौरा-महेश्वर की गाथा में हिमालय की तमाम स्थानीय वनस्पतियों- बांज, हिंसालू, घिंगारु, नीबूं, नारंगी, ककड़ी, किलमोड़ी और काफल, चीड़, देवदार सहित अनेक वृक्षों तथा वन लताओं का जो वर्णन मिलता है वह निश्चित ही अलौकिक व गूढ़ है. गाथाओं में आये गीत-प्रसंगों से स्पष्ट होता है कि हमारे पुरखों को इन तमाम वनस्पतियों की उपयोगिता और उसके पर्यावरणीय महत्व की अच्छी तरह से समझ थी. गौरा के मायके जाने के प्रसंग में चीड़ को छोड़कर अन्य सभी वनस्पतियों की संवेदनशीलता प्रमुखता से उभर कर सामने आती है वे गौरा का सहचर बनकर उसका मार्ग प्रसस्त करते हैं. इसमें देवदार का वृक्ष बहुत ही आत्मीयता के साथ गौरा को अपनी पुत्री कहकर सम्बोधित करता है और उससे अपनी छांव में मायके का आश्रय पाने का अनुरोध करता है. यथार्थता में यह कथन भले ही मानवीय कल्पना लगती हो पर सही मायनों में यहां पर प्रकृति और मानव के आपसी रिश्तों को अभिव्यक्ति देने की बहुत बड़ी कोशिश की गयी है. पर्यावरण के सन्दर्भ में देखें तो बांज, देवदार, हिंसालू, और काफल आदि भूमि में जल संचित करने की क्षमता बहुत अधिक मानी जाती है, जबकि चीड़ में यह गुण नहीं पाया जाता. गाथा में आये प्रसंगों के अनुसार गौरा ने चीड़ को अभिशप्त किया हुआ है.’
गौरा-महेश्वर गाथा में सबसे बड़ी बात जो देखने में आती है वह शिव व पार्वती अपने देवरुप से इतर आम मनुष्य के रूप में अवतरित हुए हैं. इस गाथा में पहाड़ी जन-जीवन व मौजूद समाज के विविध पक्षों को यथार्थ तौर पर गूंथने की अद्भुत कोशिश हुई है. गौरा-महेश्वर गाथा में इन दोनों का व्यक्तित्व एक सामान्य नर-नारी के रुप में इस तरह उद्घाटित हुआ है.
नदि का किनार लौलि गोवा चराली
नदी पार मैसर गुसैं बाकरा चराला
‘लोक संस्कृति में पर्यावरण शिक्षा, गीत, पृष्ठ 6.
इस अलौकिक बिम्ब में मैसर यानी महेश्वर गुंसै (गुंसाई) नदी के पार बड़ी तन्मयता से बकरी चराते हुए नजर आ रहे हैं. महेश्वर की इस असाधारण भूमिका के जरिये एक साधारण किसान का जो संघर्षमय व कर्मशील चरित्र जिस सहजता से उजागर हुआ है उसे निश्वित ही मानवीय दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण समझा जाना चाहिए. दूसरी तरफ इस गाथा के अनेक मार्मिक गीत गौरा के सीधे-सादे व्यक्तित्व और आम स्त्री मन की व्यथा व उसकी पीड़ा को उद्दात भाव से प्रकट करते हैं. प्रो. देवसिंह पोखरिया के अनुसार आठूं में गाये जाने वाले सभी गीतों में गेय तत्व की प्रधानता दिखायी पड़ती है. इन गाथाओं में पहाड़ के जनजीवन की यथार्थता का गूढ़ भाव दिखायी देता है. जीवन के कठिन संघर्ष में में लौलि यानी गौरा जब अपने ससुराल हिमालय से मायके को जा रही होती है तो वह बार-बार मार्ग भटकती रहती है जगह-जगह पर तमाम पेड़-पौंधों व लता झाड़ियों से वह रास्ता पूछते हुए आगे बढ़ती रहती है. प्रतीक रूप में यहां पर समूची प्रकृति गौरा के मदद के लिए पथ प्रदर्शक और आश्रय दाता की भूमिका निभाने का प्रयास कर रही होती है. गौरा ने मायके जाने के लिए चीड़, बांज ,हिसालू, ककडी़ सहित अनेकानेक वनस्पतियों से रास्ता पूछते-पूछते वह नींबू व नारिंग के पेड़ के पास भी आती है और उन्हें आर्शीवचन स्वरुप कहती है-
‘बाटा में की निमुवा डाली/ म्यर मैत जान्या बाटो कां होला
दैनु बाटा जालो देव केदार/ बों बाटा त्यार मैत जालो
धौला रंग फुलिये डाली/ पीला रंगन पाके
तेरा फल निमुवा डाली/ मनुसिया रे खाला
बाटा में की नारिंग डाली/ म्यर मैत जान्या बाटो कां होला
दैनु बाटा तिरजुगी जालो/ बों बाटा त्यार मैत जालो
नीला रंगन फुलिये डाली/ राता रंगन पाके
तेरा फल नारिंग डाली/ देवता चढ़ला.’
अर्थात नींबू की डाली बताओे मेरे मायके को जाने वाला रास्ता कौन सा है? तब नींबू की डाली विनम्र भाव से उत्तर देती है कि दाहिनी ओर का रास्ता शिव के केदार को जाता है और बांई ओर का रास्ता तुम्हारे मायके को जाता है. तब गौरा खुश होकर उसे आशीर्वचन देती है कि तुम धवल (सफेद) रंग के फूलों से भरे रहो और तुझ में पीले रंग के फल पकें और तेरे फल मनुष्य के काम आते रहें. इसी तरह की बात गौरा नारिंग के पेड़ के लिए भी कहती है जिसमें उसको नीले रंग के फूलों व सुनहरे रंग के फलों से आवृत रहने और उसका फल देवताओं को अर्पित होने का आशीर्वाद देती है. कुल मिलाकर श्रुति परम्परा में चली आ रही इन गाथाओं व लोकगीतों में वेद-पुराणों से लेकर स्थानीय प्रकृति और समाज से जुड़े एक से बढ़कर एक रोचक आख्यान समाहित हैं. एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह भी है कि गौरा और महेश्वर हिमालयवासियों के साथ एक अत्यंत ही आत्मीय रिश्ते में नजर आते हैं. यहां पर यह बात अति महत्व की है कि पहाड़ के लोक ने निश्छल भाव से गौरा को बेटी/ दीदी तथा महेश्वर को जवार्इं/भीना (जीजा) के रुप में प्रतिस्थापित किया हुआ है जो कि अन्यत्र दुर्लभ है.