पहाड़ों में ब्याह-बारात की सामूहिकता

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—21

  • प्रकाश उप्रेती

आज बात उस पहाड़ की जो आपको अकेले होने के एहसास से बाहर रखता है. वो पहाड़ जो आपको हर कदम पर सामूहिकता का बोध कराता है. हमारे लिए ‘गौं में ब्याह’ (गाँव में शादी) किसी उत्सव से कम नहीं होता था. खासकर लड़की की शादी में तो गाँव में ‘कौतिक'(मेला) लगा रहता था. शहरों और दूर-दराज से रिश्तेदार गाँव पहुंच जाते थे. उस दौरान गाँव की रौनक ही अलग हो जाती थी. शादी जिसके घर में हो रही होती थी उससे ज्यादा उत्साहित गाँव भर के लोग रहते थे.हर उम्र के लोगों के लिए शादी में कुछ न कुछ होता था.

शादी से दो दिन पहले हमारी ड्यूटी आस-पास के गाँव में ‘न्यौत’ (निमंत्रण) देने की लग जाती थी. ईजा कहती थीं- “अरे पारक बुबू कमछि कि म्यर दघें न्यौत कहें हिट दिए कबे” (गाँव के दादा जी कह रहे थे,मेरे साथ निमंत्रण देने चल देना). बड़े- बुजुर्गों के साथ निमंत्रण देने जाना भी एक ट्रेनिंग का हिस्सा  ही होता था. निमंत्रण देना कला थी. हमारे यहां दो तरह के निमंत्रण चलते थे, एक ‘छन’ मतलब घर के सभी सदस्यों के लिए और दूसरा ‘मोआरि’ मतलब घर के एक सदस्य के लिए. अक्सर निमंत्रण देने जाने का समय शाम और सूरज ढलने के बाद का ही होता था. तब अमूमन सभी लोग घर पर मिल जाते थे. गाँव में नीचे या ऊपर के घर से  करते और कहते- “अम्मा भो तुमुहें छन न्यौत छु हां, नन-तिन उनुपन खिँल और काम ले किल” (दादी आपके लिए सह-परिवार निमंत्रण है और कल सारे बच्चे वहीं खाएँगे और काम भी करेंगे)…

गाँव में शादी की तैयारी तकरीबन महीने भर पहले से ही शुरू हो जाती थी. ‘कंट्रोल’ (सरकारी) की जो चीनी और मिट्टी का तेल मिलता था उसमें से दो लीटर मिट्टी का तेल और दो किलो चीनी जिसके घर में शादी हो रही होती थी उनके लिए छोड़ देते थे. गाँव का हर परिवार छोड़ता था. आपकी आपस में बातचीत न हो तब भी छोड़ते थे. बाजार से जो भी सामान लाना होता था वो सब गाँव की औरतें और बच्चे लाते थे. जिनके घर शादी होती थी हो वो घर-घर कहने आते थे कि “आज दुकानम बे हमर ब्याह समान ल्याणु हां” (आज शाम को बाजार से शादी का सामान लाना है). ईजा कभी खुद जाती थीं तो कभी हमको कहती थीं-“च्यला आज पार आम्म कुक सामान ल्याणु हां”.(बेटा आज जिन दादी के घर में शादी है, उनका बाजार से सामान लाना है) हम खुशी-खुशी दुकान, चाय और ‘बन’ के लालच में चले जाते थे.

शादी के 3-4 दिन पहले शादी वाले घर में ‘झोड़’ लग जाते थे. रात में गाँव के सभी बच्चे,  महिलाएं, पुरुष खाना खाकर उनके घर पहुंच जाते थे. फिर आधी रात तक..”खोलि दे माता खोलि भवानी धार मैं किवाड़ा”…से लेकर कई झोड़े चलते थे. हम लोगों का अलग से ‘तड़म तिडी’ चल रहा होता था.

गाँव के पुरुष महीने भर पहले ही मिलकर लकड़ी के लिए पेड़ काटते थे. गाँव के सभी लोग अपनी-अपनी कुल्हाड़ी लेकर पेड़ काटने जाते थे. पेड़ को काटने से पहले उसको पिठ्या लगाया जाता और एक तरह से पूजा होती थी. उसके बाद ही कुल्हाड़ी का वार पेड़ पर होता था. वहीं सबके लिए चाय-पानी आता था. सुबह से शाम पेड़ काटने और लकड़ी फोड़ने में हो जाती थी. हमारा काम चाय-पानी की सर्विस का होता था.

इधर ईजा और गाँव की सभी महिलाएँ मिलकर धान और मसाले कूटते थे. तिल का तेल निकालते थे. बीच-बीच में गाने भी गाते थे.एक- दो, दौर चाय का भी चलता था. हम सब बच्चे उनके आस-पास ही मंडराते रहते थे. तिल, गुड़ और चाय के लालच में.

शादी के 3-4 दिन पहले शादी वाले घर में ‘झोड़’ लग जाते थे. रात में गाँव के सभी बच्चे,  महिलाएं, पुरुष खाना खाकर उनके घर पहुंच जाते थे. फिर आधी रात तक..”खोलि दे माता खोलि भवानी धार मैं किवाड़ा”…से लेकर कई झोड़े चलते थे. हम लोगों का अलग से ‘तड़म तिडी’ चल रहा होता था. हम कुछ बच्चे गोल घेरा बनाकर , एक दूसरे का हाथ पकड़कर तेजी से गोल-गोल घूमते हुए कहते थे- “ओ तिडी, तडम तिडी, दस पैसों क रैबना”…

कपड़ों के नाम पर अमूमन एक जोड़ी कपड़े होते थे जिनको हम हर शादी में पहनते थे. ईजा उन कपड़ों को बाजार या घर पर नहीं पहनने देती थीं.कहती थीं- “इनुकें घरपन पहन बे चिर ड्यलें तो ब्याह काजू में के पहनन ले”

शादी में जहाँ पुरुषों की ड्यूटी खाना बनाना और बारात के स्वागत की होती थी तो वहीं महिलाएं ‘नहॉ’ से पानी लाना और घर के सभी कार्यों में व्यस्त रहती थीं.

शादी के दिन ईजा हमको सुबह-सुबह नहला देती थीं. उसके बाद  मुंह पर सरसों के मिर्च वाला तेल लगाकर तैयार कर देती थीं. कपड़ों के नाम पर अमूमन एक जोड़ी कपड़े होते थे जिनको हम हर शादी में पहनते थे. ईजा उन कपड़ों को बाजार या घर पर नहीं पहनने देती थीं.कहती थीं- “इनुकें घरपन पहन बे चिर ड्यलें तो ब्याह काजू में के पहनन ले”(इन कपड़ों को घर या बाजार जाने के लिए पहनकर फाड़ देगा तो शादी में क्या पहनेगा).

अब यह सामूहिकता खंडित हो गई है. ईजा कई बार कहती हैं- “च्यला अब पैली कें के बात जे के रहे गे”. ऐसा कहते हुए ईजा अतीत में डूब जाती हैं और हम भविष्य तांक रहे होते हैं…

पंचायत घर से बर्तन लाने से लेकर घर की साज-सज्जा , चानडी लगाना, गेट बनाना और सुबह सड़क या अपनी सरहद से पार तक डोली छोड़ने का काम गाँव वाले मिलकर ही करते थे. शादी किसी के घर में हो, वो गाँव की शान और इज़्ज़त का मसला होता था. हर कोई बिना कहे ही अपने लायक का काम करता था. धन की बजाय मन से काम होता था.

अब यह सामूहिकता खंडित हो गई है. ईजा कई बार कहती हैं- “च्यला अब पैली कें के बात जे के रहे गे” (बेटा अब पहली जैसी बात थोड़ी रह गई है). ऐसा कहते हुए ईजा अतीत में डूब जाती हैं और हम भविष्य तांक रहे होते हैं…

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं।)

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