- आशिता डोभाल
पहाड़ों में खेती बाड़ी के कामों को सामूहिक रूप से त्यौहार जैसा मनाने की परम्परा वर्षों पुरानी है. हर मौसम में, हर फसल को बोने से लेकर, निराई—गुड़ाई और कटाई—छंटाई तक सारे कामों को त्यौहार के रूप मनाने की परम्परा सदियों पुरानी है, जिसमें रोपणी (धान की रोपाई) मुख्यत: एक ऐसी परम्परा थी. यह पूरे गांव की सहभागिता, सामूहिकता, आपसी भाईचारा को दर्शाती थी.
पहाड़ों में रोपणी के लिए धान की नर्सरी (बीज्वाड़) चैत्र (मार्च-अप्रैल) माह में डाली जाती है, ताकि समय पर पौध तैयार हो जाए. सभी की यह कोशिश रहती थी कि सबकी नर्सरी एक साथ डाली जाय ताकि एक ही समय पर सबकी रोपणी लग सके. आषाढ़ (जून-जुलाई) का महिना एक ऐसा महिना होता है जब पूरे पहाड़ में हर गांव में रोपणी की धूम रहती थी, हर गांव घर परिवार को इंतजार रहता था कि कब उनके खेत में गुल का पानी पहुंचे और कब उनकी रोपणी लगे. बारी—बारी से सबके खेतों में रोपणी लगती थी.
पहाड़ों में चकबंदी न होने से बहुत दिक्कतें होती हैं और वे आज भी बरकरार हैं. कई परिवारों की रोपणी महीनों तक लगती थी, कल किस परिवार की रोपणी लगेगी ये पहले दिन ही तय हो जाता और फिर वो परिवार अगले दिन से ही अपनी तैयारियों में जुट जाता था. रोपणी के आखिरी दिन जब लोग वापस घर आते थे उस दिन को (लूंग घर लाना) भी त्यौहार जैसा मनाते थे.
रोपणी के शुरुआत का दिन (लूंग लगाना) निश्चित होता था लोग सोमवार या बृहस्पतिवार को शुभदिन मानते थे और रोपणी वाले खेत में अपने घर से पूजा के लिए मीठी रोटी/रोट और पीली पिठांई को विशेष रूप से रखकर और स्थानीय देवी—देवताओं की पूजा-अर्चना करके व ढोल—दमाऊं की थाप पर बड़े हर्षोल्लास के साथ रोपणी की शुरुआत करते थे. ढोल बजाने से लोगों का उत्साह बना रहता था.
पानी से भरे खेत में हल से मिट्ठी को दो चरणों में बारीक किया जाता है, जिसे स्थानीय भाषा में कदौ और मयौ कहा जाता है. कुछ लोग खेतों की मेढों पर मिट्टी चढ़ाते थे. महिलाएं नर्सरी से बीज उखड़ती व छोटे बच्चे दूर से देखते रहते थे कि किस तरह काम होता है. मुझे आज भी याद है हम रोज अपने घर के अन्य लोगों के साथ खेतों में पहुंच जाते थे. कभी उनके पीने के पानी देने के बहाने तो कभी उनके दिन का खाना देने के बहाने और एक महीने तक हम लोग भी खेतों में पहुंचे रहते थे. दोपहर के समय के सामूहिक भोज का तो अपना अलग की मज़ा था वो स्वाद तो आज बड़े से बड़े रेस्तरां में नहीं मिल सकता, जो मज़ा और स्वाद उस समय खेतों के किनारे बैठे किसी पेड़ की छांव में होता था. दूर-दूर तक दूसरे खेतों में काम करने वाले लोगों को आवाज लगाकर बुलाया करते थे, शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति रहता होगा, जिसके घर से खाना न पहुंचा हो. सब लोग मिल बांटकर खाते थे और उसके बाद फिर से काम करने जुट जाते. सुबह से लेकर शाम तक पानी कीचड़ से भरे कपड़े फिर भी एक दूसरे पर खेल—खेल में पानी डालकर खूब मस्ती भी किया करते थे. दिनभर की थकान को शाम तक भूल जाते और अगले दिन फिर वही क्रम. ये क्रम पूरे महीने भर चलता रहता था. हर एक परिवार की रोपणी लगती थी. पहाड़ों में चकबंदी न होने से बहुत दिक्कतें होती हैं और वे आज भी बरकरार हैं. कई परिवारों की रोपणी महीनों तक लगती थी, कल किस परिवार की रोपणी लगेगी ये पहले दिन ही तय हो जाता और फिर वो परिवार अगले दिन से ही अपनी तैयारियों में जुट जाता था. रोपणी के आखिरी दिन जब लोग वापस घर आते थे उस दिन को (लूंग घर लाना) भी त्यौहार जैसा मनाते थे. धान के बीज की कुछ पौध गांव के मंदिर और घर के पूजा स्थान और घर के प्रवेश द्वार पर रखी जाती थी और खाने में स्पेशल पूरी और हलवा आदि बनाए जाते थे.
आज पहाड़ों में बहुत बदलाव हो गए हैं, लोग रोजी—रोटी के लिए पलायन कर रहे हैं जो लोग यही रहते हैं उनमें आपसी सहभागिता ना के बराबर है. रोपणी लगाने के नए—नए तरीके आ गए, सरकारी और गैर सरकारी संगठन नई तकनीकियों का प्रचार—प्रसार करने में लगे हैं. संगठनों का मानना है कि नई विधियों से समय की बचत, बीज की बचत और पानी की बचत के साथ—साथ पैदावार में वृद्धि होगी. क्या सच है? ये तो वही लोग जाने पर कहीं न कहीं इस नवीनीकरण ने हमारी परम्पराओं और हमारे आपसी भाईचारे और रोपणी जैसे त्यौहार को निगल लिया है.
अब यदि नगदी फसल की बात करूं तो पहली बात तो ये है कि वर्तमान में कोरॉना वायरस से पूरी दुनिया जूझ रही है जिससे मंडियां और बाज़ार बन्द पड़े हुए हैं, लोगों की सब्जियां और टमाटर खेतों में सड़ रहे हैं. लोगों ने नगदी फसलों को उखाड़ फेंक दिया है और फिर से अपने परम्परागत फसलों को बोने के लिए बाध्य हो गए हैं. आज मलाल इस बात का है कि यदि रोपणी लगती है तो न खेतों में वो पूजा करने के लिए मीठी रोटी/रोट है, न ढोल—दमाऊं की थाप और न दोपहर का भोज और न सामूहिक सहभागिता.
(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)
बहुत सही और सटीक आलेख
सच में बहुत कठिन वक्त है