भारत की जल संस्कृति-14
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
(7 फरवरी, 2013 को रामजस कालेज, ‘संस्कृत परिषद्’ द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘प्राचीन भारत में जलवायु विज्ञान’ के अंतर्गत मेरे द्वारा दिए गए वक्तव्य “प्राचीन भारत में मेघविज्ञान” का संशोधित लेख)
भारत
प्राचीन भारतीय मेघविज्ञान का इतिहास भी अन्य विज्ञानों की भांति वेदों से प्रारम्भ होता है.
वैदिक संहिताओं के काल में इस मेघवैज्ञानिक मान्यता का ज्ञान हो चुका था कि पृथिवी या समुद्र का जो जल सूर्य द्वारा तप्त होकर वाष्प के रूप में ऊपर अन्तरिक्ष में जाता है वही जल मेघों के रूप में नीचे पृथिवी में बरसता है. आधुनिक जलविज्ञान इस वाष्पीकरण और जलवृष्टि की प्रक्रिया को ‘हाइड्रोलौजिकल साइकल’ अर्थात् ‘जलचक्र’ की संज्ञा प्रदान करता है-“समानमेतदुदकमुच्चैत्यव चाहभिः.
भूमि पर्जन्या जिन्वन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नयः..”
– ऋग्वेद, 1.164.51
ब्रह्माण्ड
वैदिक मंत्रों में ब्रह्माण्ड के इस
‘जलचक्र’ को सम्पादित करने वाले सूर्य देव का विशेष आभार प्रकट किया गया है क्योंकि निरन्तर रूप से जलों के केन्द्र में रहकर वाष्पीकरण करने,वृष्टि के लिए सहायक वृक्ष-वनस्पतियों को पुष्ट बनाने तथा जल की वर्षा करके पृथिवी को शस्य श्यामला बनाने में सूर्य की ही अहम भूमिका रहती है –“दिव्यं सुपर्णं वायसं बृहन्तमपां
गर्भं दर्शतमोषधीनाम्.
अभीपतो वृष्टिभिस्तर्पयन्तं
सरस्वन्तमवसे जोहवीमि..”
– ऋग्वेद, 1.164.52
प्रधान
हमारा देश कृषि प्रधान देश है. सिंचाई के सीमित साधनों के कारण ज़्यादातर कृषि बारिश पर ही निर्भर रहती है. यही कारण है कि वर्षा को जीवन का आधार माना गया है.
इसका एक निश्चित मात्रा से कम या अधिक होना देश के पूरे अर्थतन्त्र को ध्वस्त कर देता है. ऋग्वेद के ‘पर्जन्य सूक्त’ में वर्णन मिलता हैं कि वर्षा के बिना जीवन असंभव है. ‘पर्जन्य’ अर्थात् मेघ को जीव जगत् का सर्वस्व बताया गया है (ऋ. 7.101.2) इसलिए ‘पर्जन्य’ देवता से वर्षा के लिए गर्भ धारण हेतु प्रार्थना की गई है. ऋग्वेद के अनुसार ‘पर्जन्य’ जलों के संवर्धक हैं और वनस्पतियों और औषधियों में वृद्धि करते हैं. वर्षा पर्जन्य आदि देवों की अनुकंपा से ही होती है.
ऋग्वेद ने मेघों के साथ धरती के रिश्तों को बड़े ही आत्मीयता के भाव से जोड़ा है.‘पर्जन्य’ पिता है तो धरती माता है. पर्जन्य पिता का अमृत रस है जिसे ब्रह्मांड के चराचर जगत् के संवर्धन हेतु धरती माता इस रस को धारण करती है. मेघों से जब वर्षा का अमृत रस गिरता है तो धरती माता खुशी से गद्गद् होती है क्योंकि उसकी बंजर
भूमि में संतति के अंकुर जो फूटने लगते हैं. तभी वह शस्य श्यामला बनकर अपने मातृत्व का निर्वहन कर पाती है. ऋग्वेद के अनुसार स्वेच्छा से रूप धारण करने वाले ‘पर्जन्य’ देवों का एक रूप वर्षा विहीन प्रसव न करने वाली गौ के समान कहा गया है तो दूसरा रूप प्रसूता गौ जैसा है जिनसे वर्षा होती है. पिता ‘पर्जन्य’ का पोषण कारक पय (जल) पृथ्वी माता धारण करती है. उसी से पिता (पर्जन्य) तथा पुत्र (जीवधारी किसान) दोनों ही पुष्ट होते हैं-कारण
“स्तरीरु त्वद्भवति सूत उ
त्वद्यथावशं तन्वं चक्रे एषः
पितुः पयः प्रति गृभ्णाति माता
तेन पिता वर्धते तेन पुत्रः॥”
– ऋग्वेद, 7.101.3
भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं गीता में कहा है –
“अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः.
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः..”
-भगवद्गीता,3.14
अर्थात् सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं,
पर्जन्य से अन्न उत्पन्न होता है. पर्जन्य की उत्पत्ति यज्ञ से होती है और यज्ञ की उत्पत्ति नियत-कर्म करने से होती है.मानसूनी
मानसूनी बादलों के विविध प्रकार
भारतीय प्रायद्वीप में जून-जुलाई के महीनों में दक्षिण-पश्चिमी मानसून समुद्र की ओर से सक्रिय होता हुआ हिमालय पर्वत की ओर गतिशील रहता है.
मेघों की इस वार्षिक यात्रा में स्थानीय तथा भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप प्रकट होने वाले नाना प्रकार के मेघ आकाश में दिखाई देते हैं‚उनमें से कुछ ऐसे मेघ होते हैं जो गरजते हैं, किंतु बरसते नहीं. कुछ काले रंग के होते हैं तो कुछ कपासी वर्ण के.भूरे‚ लाल और केसरी रंग के मेघ भी कभी कभी आकाश में दिखाई देते हैं. वराहमिहिर की ‘वृहत्संहिता’ और ‘मेघमाला’ आदि प्राचीन ग्रंथों में इन नाना प्रकार के मेघों का विस्तार से वर्णन किया गया है. कालिदास का ‘मेघदूत’ मेघविज्ञान का अद्भुत ग्रंथ है.नामक
मैने ‘मेघदूत में मानसूनविज्ञान’ नामक एक शोधलेख में यह प्रतिपादित किया है कि यक्ष द्वारा मेघ के माध्यम से विरहिणी यक्षिणी को संदेश भेजने का कथानक भारतीय प्रायद्वीप में आषाढमास में गतिशील दक्षिण-पश्चिमी मानसूनों की उस भौगोलिक यात्रा का परिदृश्य है जो रामटेक की पर्वत मालाओं से प्रारम्भ होते हुए कैलास मानसरोवर में स्थित अलका
नगरी में विराम लेती है. हिमालय प्रकृति की गोद में रचे-बसे महाकवि कालिदास के अनुसार मेघ कोई जड़ पदार्थ नहीं बल्कि उसे विभिन्न रूपों को धारण करने वाला इंद्र का ‘प्रकृति-पुरुष’कहा गया है-अखबारों
‘जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोनः’ – पूर्वमेघ, 6
कालिदास विज्ञानवादियों की उस मानसिकता से
भी परिचित थे जो मेघ को महज धुएँ, पानी, धूप और हवा का संघात मानती थी और ऐसे जड पदार्थ में इन्द्रियों वाले प्राणी द्वारा ग्राह्य संदेश को पहुंचाने की क्षमता भला कहां हो सकती है ॽ मगर कालिदास ने मेघ की ऐसी जडवादी व्याख्ख्या करने वाले वैज्ञानिकों को ‘प्रकृतिकृपण’ की संज्ञा दी है –“धूमज्योति: सलिलमरुतां संन्निपात: क्व मेघ:
संदेशार्था: क्व पटुकरणै: प्राणिभि: प्रापणीया:.
इत्यौत्सुक्यादपरिगणयन् गुह्यकस्तं ययाचे
कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु..”
-पूर्वमेघ, 5
अखबारों
आकाश में तरह-तरह के रूप धारण करना, पिछले भाग से झुक कर नदियों का जलपान करना, बरसने के बाद द्रुत गति से भागना, दयालु स्वभाव के कारण कृषक जनों के
प्रति आद्र होना, संतप्तों को राहत प्रदान करना इत्यादि मेघ की विशेषताओं का हवाला देते हुए कालिदास ने उन मौसम वैज्ञानिकों के सामने तर्क पेश किए हैं कि उनका मेघ चैतन्य पुरुष के सभी गुणों से सम्पन्न है. पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह मेघ जहां भी जाता है मार्गपथ में कृषिफल की अपार संभावनाएं उससे जुड़ी हुई हैं.उमंग से ग्राम-बधूटियाँ प्रेम से गीले अपने नेत्रों में उसे समा लेती हैं.
और मेघ भी प्रेम में दिवाना होते हुए माल क्षेत्र के ऊपर इस प्रकार उमड़- घुमड़ कर बरसता है कि हल से तत्काल खुरची हुई धरती गन्धवती हो उठती है. परोपकारी मेघ तब भी ठहरता नहीं है. कुछ देर बाद पुनः लघुगति से: उत्तर की ओर चल पड़ता है-अखबारों
“त्वाय्यायत्तं कृषिफलमिति भ्रूविलासानभिज्ञै:
प्रीतिस्निग्धैरर्जनपदवधूलोचनै: पीयमान:.
सद्य: सीरोत्कषणसुरभि क्षेत्रमारुह्य मालं
किंचित्प:श्चा्द् व्रज लघुगतिर्भूय एवोत्तरेण..”
– पूर्वमेघ, 16
चार प्रकार के मानसूनी मेघ
भारतीय ऋतुविज्ञान के ग्रन्थों में
मेघों के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख मिलता है, जिनमें चार प्रकार के मानसूनी मेघ मुख्य हैं-- पुष्कर मेघ : ‘सिरस’, Cirrus Cloud
- आवर्तक मेघ : ‘स्ट्रेटस’, Stratus Cloud
- द्रोण मेघ: निम्बस’ Nimbus Cloud
- संवर्तक मेघ: ‘क्यूमुलस’ Cumulus Cloud
आधुनिक मौसम विज्ञान की दृष्टि से इन्हें क्रमशः ‘सिरस’, ‘स्ट्रेटस’, ‘निम्बस’ तथा ‘क्यूमुलस’ मेघों के रूप में स्पष्ट किया जा सकता है. ‘संवत्सरफल’ नामक ग्रन्थ में
उल्लेख आया है कि ‘पुष्कर’ तथा ‘आवर्तक’ मेघ मन्दवृष्टि करने वाले मेघ हैं, जबकि ‘संवर्तक’ तथा ‘द्रोण’ मेघों से मुसलाधार वर्षा होती है-“आवर्ते छिन्नवृष्टिश्च संवर्ते जलपूरिता.
पुष्करे मन्दवृष्टिः स्याद् द्रोणो वर्षति सर्वदा..”
-संवत्सरफल
अखबारों
परोपकारी ‘पुष्करावर्तक’ मेघ
कृषि पैदावार की अपेक्षा से भारत के ऋतु वैज्ञानिकों ने ‘पुष्कर’ (सिरस) तथा ‘आवर्तक’ (स्ट्रेटस) मेघों को ही उत्तम तथा कल्याणकारी माना है क्योंकि ये मेघ यज्ञधूम से उत्पन्न होने
के कारण अत्यंत शुभ तथा स्वभाव से परोपकारी होते हैं. कृषिविज्ञान की दृष्टि से भी मन्द-मन्द वृष्टि से फसल की पैदावार अच्छी होती है. इन मेघों की विशेषता यह भी होती है कि ये मेघ लम्बी दूरी तक प्रभावशाली रहते हैं. महाकवि कालिदास के यक्ष ने ‘मेघदूत’ में हिमालय स्थित अलका नगरी जैसे सुदूर प्रदेश में निवास करने वाली अपनी प्रेमिका यक्षिणी को संदेश पहुंचाने के लिए जिन मेघों को दूत बनाकर भेजा वे ‘पुष्करावर्तक’ मेघ ही थे-“जातं वंशे भुवनविदते पुष्करावर्तकानां
जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोनः”
-पूर्वमेघ, 6
विनाशकारी ‘द्रोण-संवर्तक’ मेघ
मेघों की दूसरी प्रजाति धारापात तथा मुसलाधार वर्षा करने वाले ‘द्रोण-संवर्तक’ मेघों की है,जो एक स्थान विशेष पर भारी वर्षा करके अपना जल भंडार जल्दी ही खाली कर देते हैं.
इसलिए इन मेघों के बरसने पर या तो भीषण बाढ़ का संकट उत्पन्न होता है अथवा बादल फटने की घटनाओं के द्वारा जल-प्रलय जैसी विनाश लीला की स्थिति पैदा हो जाती है. कुछ समय पहले उत्तराखण्ड हिमालय की केदारनाथ घाटी में जल प्रलय की जो भयंकर त्रासदी पैदा हुई थी वह द्रोण-संवर्तक (क्युमोलोनिम्बस) मेघों का ही दुष्परिणाम था.अखबारों
सामान्यतया गर्जनशील काले रंग के कपासी जाति के द्रोण-संवर्तक मेघ जब हिमालय पर्वत जैसे ऊंचे और विशाल अवरोधक से टकराते हैं,तो आधुनिक मौसमविज्ञान
के अनुसार गोभी के फूल की तरह तैरते बादलों में एकाएक नमी पहुंचनी बन्द हो जाती है या कोई बहुत ठंडी हवा का झोंका उनमें प्रवेश कर जाता है और ये सफेद बादल गहरे काले रंग में बदल जाते हैं और तेज गरज के साथ उसी स्थान पर अचानक बरस पड़ते हैं. ऐसी बादल फटने की घटनाएं हिमालय पर्वत श्रृंखला वाले क्षेत्रों में प्रायः होती रहती हैं. ‘क्यूमोलोनिम्बस’ बादलों के बरसने की रफ्रतार इतनी तेज होती है कि कुछ ही समय में आकाश से एक पूरी नदी जमीन पर उतर आती है. जल सैलाब की गति इतनी तीव्र हो जाती है कि मार्ग में आने वाले मकान, भवन, पर्वत खंड सभी ध्वस्त होते चले जाते हैं.अखबारों
इस प्रकार अन्तरिक्षगत जलविज्ञान के ‘वृष्टिगर्भ’, मेघविज्ञान आदि महत्त्वपूर्ण पक्षों पर विचार करने के बाद हम पुनः भूमिगत जलविज्ञान की ओर लौटते हैं. प्राचीन भारतीय जल वैज्ञानिक
अखबारों
आगामी लेख में पढिए- “वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता’ में भूमिगत जल की खोज के सिद्धांत”.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)