शहरों ने बदल दी है हमारी घुघती

  •  ललित फुलारा

शहर त्योहारों को या तो भुला देते हैं या उनके मायने बदल देते हैं। किसी चीज को भूलना मतलब हमारी स्मृतियों का लोप होना। स्मृति लोप होने का मतलब, संवेदनाओं का घुट जाना, सामाजिकता का हृास हो जाना और उपभोग की संस्कृति का हिस्सा बन जाना। शहर त्योहारों को आयोजन में तब्दील कर देते हैं। आयोजन में तब्दील होने का मतलब, मूल से कट जाना, बाजार का हिस्सा बन जाना। बाजार होने का अर्थ- खरीद और बिक्री की संस्कृति में घुल-मिलकर उसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को देना लेकिन, उसका वास्तविक अर्थ खो देना। यानी अपनी जड़ों से कट जाना। जड़ से कटने का मतलब, एक पूरे परिवेश, उसकी परंपरा व संस्कृति का विलुप्त हो जाना। परिवेश और परंपरा का विलुप्त होने का मतलब, पुरखों की संजोई विरासत को धीरे-धीरे ढहा देना।

शहरों में हमारी घुघुती बदल गई है। हम बच्चों के गले में घुघती की माला तो लटका रहे हैं लेकिन उनको घुघती के मायने नहीं समझा पा रहे हैं। शहरों में उस कव्वे (कौआ) को घुघुती (पहाड़ी पकवान) खिलाने के लिए खोज रहे हैं, जो पहाड़ों में हमारा इंतजार कर रहा है।

आधुनिक और तेजी से डिजिटल होते युग और पलायन की भेट चढ़ते कदमों के इस दौर में हम अपनी कस्बाई परंपरा की चारदीवारी में से धीरे-धीरे एक-एक दीवार ही तो खिसका रहे रहे हैं। हमारी नव पीढ़ी उत्सव तो मना रही है लेकिन मायने बदल गए हैं। त्योहारों का मूल संदेश हमारे जीवन से कट गया है। ये सारी बातें मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि शहरों में हमारी घुघुती बदल गई है। हम बच्चों के गले में घुघती की माला तो लटका रहे हैं लेकिन उनको घुघती के मायने नहीं समझा पा रहे हैं। शहरों में उस कव्वे (कौआ) को घुघुती (पहाड़ी पकवान) खिलाने के लिए खोज रहे हैं, जो पहाड़ों में हमारा इंतजार कर रहा है। सदियों से जो पहाड़ों का हिस्सा है।

आम तौर पर कव्वे को अशुभ माना जाता है, उसे उसके रंग के चलते दूसरे पक्षियों से कम प्रिय माना जाता है, ऐसे में देखा जाए तो यह त्योहार रंग भेद के खिलाफ प्रेम का त्योहार है।

मैं आज जब सोचता हूं घुघुती क्यों मनाई जाती होगी तो मुझे सारी मान्यताओं को दूर रख एक ही बात समझ आती है, हमारे पुरखों ने सदियों पहले पलायन की आहट को महसूस कर लिया होगा। उन्हें लग गया होगा कि एक दिन ये पहाड़ खाली हो जाएंगे। घरों में ताले लटके जाएंगे। आंगन में घास का अंबार लग जाएगा। ऐसे में उन्होंने हमारे लिए कव्वे को उस प्रतीक के रूप में गढ़ा जो ठंड की असहाय मार झेलने के बाद भी पहाड़ में ही बना रहता है जबकि दूसरे पक्षी प्रवास कर जाते हैं। हमारे पूर्वज हमें ये ही कव्वा बनाना चाहते होंगे जो चाहे कितनी भी मुश्किल क्यों न खड़ी हो, अपनी जड़ों को कभी न छोड़े।

जब किसी बच्चे की घुघती को कव्वा नहीं खाता था तो घर की बुजुर्ग महिलाएं उसे समझाती थी कि उसने सालभर जरूर कव्वे को पत्थर मारा होगा, वो इसलिए तुमसे नाराज है। इस तरह इस त्योहार में हिंसा न करने और पक्षियों से प्रेम की सीख दी जाती थी।

दूसरे रूप में देखा जाए तो यह प्रकृति से मनुष्य के प्रेम का त्योहार है। घुघती त्योहार में घर में जो घुघती (आटे और गुड़ से बना पकवान) बनते हैं उन्हें सबसे पहले कव्वों (कौओं) को खिलाया जाता है। कव्वों को खिलाने के बाद घर के बच्चे और दूसरे सदस्य घुघते खाते हैं। यह त्यौहार पक्षियों से प्रेम का त्योहार है। पहाड़ की मूल संस्कृति में ही पशु-पक्षिओं से प्रेम की सीख दी गई है। आम तौर पर कव्वे को अशुभ माना जाता है, उसे उसके रंग के चलते दूसरे पक्षियों से कम प्रिय माना जाता है, ऐसे में देखा जाए तो यह त्योहार रंग भेद के खिलाफ प्रेम का त्योहार है। घुघतों को लेकर मेरी जितनी भी यादें हैं वो बचपन की ही हैं। हम सभी बच्चें इस दिन कव्वों को मनाने की कोशिश करते थे और उन्हें सबसे पहले अपनी घुघती खिलाने की फिराक में रहते थे। हममें बड़ा उत्साह रहता था। जब किसी बच्चे की घुघती को कव्वा नहीं खाता था तो घर की बुजुर्ग महिलाएं उसे समझाती थी कि उसने सालभर जरूर कव्वे को पत्थर मारा होगा, वो इसलिए तुमसे नाराज है। इस तरह इस त्योहार में हिंसा न करने और पक्षियों से प्रेम की सीख दी जाती थी।

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