जे. पी. मैठाणी/अनीता मैठाणी
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में धान की कटाई मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा जल्दी शुरू हो जाती है. पर्वतीय क्षेत्रों में प्रमुखतः किंणस्यालू, सुखनन्दी, डिमर्या, बर्मा, लाल साटी सहित कुछ अन्य प्रजातियों को चूड़ा बनाने के लिए उपयुक्त माना जाता है. अगर किसी भी घर-परिवार में चूड़ा कूटे जा रहे हैं या बनाए जा रहे हैं तो आप समझ लीजिए या तो ये बार-त्यौहार का अवसर होगा और या तो कोई न कोई खुशखबरी होगी. वैसे तो वर्ष में एक बार जैसे दीपावली के आसपास अमीर-गरीब सभी के घरों में धान के चूड़े बनाये जाते हैं. क्योंकि दीपावली के समय ही उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में धान की लवाई-मंडाई के बाद साटी/धान के बुखणे और चूड़ा बनाया जाता है. नये धान से बनाए गये चूड़े को सबसे पहले भूमि के देवता भूम्याल, स्थानीय ईष्ट देव के साथ-साथ घर की चारों दिशाओं में थोड़ा-थोड़ा छिटक कर अर्पित किया जाता है. यानि ईष्ट देवों को याद कर अगली बार भी अच्छी फसल की कामना धरती, अग्नि जल आकाश कृषि के सहायक तत्वों को नवाण (नवाण यानी नया अनाज) चढ़ाया जाता है. बीज बचाओ आंदोलन के प्रणेता श्री विजय जड़धारी जी कहते हैं कि नवाण का मतलब है सीज़न के खानपान से रिचार्ज या टीका, यह नवाण हमारे शरीर में रोगरोधी शक्ति पैदा कर हमें कई बीमारियों और कुपोषण से बचाता है. नवाण को सीज़न का (प्राकृतिक वैक्सीन) कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा.
पहाड़ के इकोसिस्टम में सीढ़ीदार खेत उन खेतों में लहलहाते बारहनाजा और ऊखीड़ (ऐसा धान जिसमें रोपाई नहीं की जाती बल्कि सीधे तैयार किये गये खेतों में बीज छिड़ककर उगाया जाता है) के धान और सेरों में उगाये गये धान (ऐसे सीढ़ीनुमा खेत जिनकी मिट्टी बेहद उपजाऊ होती है और इन खेतों में पानी भरकर धान की रोपाई की जाती है) की फसल लहलहाती है. कटाई के बाद धान को खेत के लगभग मध्य भाग में गोल चक्रीय आकार में बालियों को केन्द्र की तरफ रखते हुए एक के ऊपर एक ढेर लगाते हुए काटे गये धान को रखा जाता है. उसके केन्द्र में धान की बालियों वाले हिस्से को खूब सारी पराली और कभी -कभी वर्षा की संभावना देखते हुए तिरपाल या पाॅलिथीन से भी ढक देते हैं. इस ढेर को मौसम के अनुसार 5 से 7 दिन तक ही रखा जाता है. गढ़वाली में धान के इस गोल घेरे वाले ढेर को क्वोनका कहते हैं. तब 5 या 7 दिन बाद धान की मंडाई की जाती है. पहाड़ के अधिकतर क्षेत्रों में अभी भी पांव से धान की मंडाई की जाती है. सड़क किनारे के कुछ क्षेत्रों में लोहे के ड्रम पर धोबी पछाड़ कर या अब थ्रैसर मशीन द्वारा भी धान की मंडाई की जाने लगी है. ऊखीड़ वाले धान को होली के बाद यानि मार्च-अप्रैल में बोया जाता है जबकि इसी समय रोपाई वाले खेतों के लिए धान की बीज्वाड़ (धान की पौधशाला/क्यारी) भी इसी समय बोई जाती है और बाद में बरसात के दिनों में मई-जून में धान की रोपाई की जाती है.
मंडाई के बाद धान को सुखाने के पश्चात् साफ किये गये अच्छे धान को अगले वर्ष की फसल और चूड़ा बनाने के लिए अलग रख लिया जाता है. उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में दीपावली की लक्ष्मी पूजा, भागवत कथा, सत्यनारायण कथा के अलावा विवाह संस्कार और मुंडन संस्कार के अवसर पर भी चूड़ा बनाया जाता है और ऐसा माना जाता है कि पहाड़ के धान से बनाया गया चूड़ा सर्वाधिक पवित्र माना जाता है.
चूड़ा बनाने के लिए धान को चौड़े बर्तन में रात भर (8 से 10 घंटे) भिगो कर रख दिया जाता है फिर पानी निथार कर अब तैयारी कर ली जाती है चूड़ा कूटने की. एक दिन पहले ही ओखली की साफ-सफाई कर मिट्टी गोबर के लेप से लिपाई-पुताई कर ली जाती है. ओखली से थोड़ी दूरी पर चूल्हा/डाडौ और भूनने वाले लकड़ी की करछी बिल्कुल तैयार रहती है.
चूल्हे में भीगे हुए धान को डाडौ कड़ाहीनुमा बर्तन में भुजौण्या या पुतरौऊ से हिलाते हुए भूना जाता है. जैसे ही बर्तन में खील जैसा बनने लगता है इस गरम-गरम चटकते हुए धान को ओखली में लकड़ी की गंज्यालों (लकड़ी के लंबे मूसल जिन पर कूटने वाले सिरे पर लोहे की रिंग लगी होती है और ये तैलिंगु बांज की लकड़ी से बनाये जाते हैं) से फटाफट महिलायें कूटती और पलटती हैं, और थोड़ी ही देर में भूने हुए धान की खुशबू वातावरण में फैल जाती है और आसपास के लोगों को पता चल जाता है कि फलां-फलां के यहाँ चूड़े कूटे जा रहे हैं. पत्थर की ओखली का चूड़े कूटने में विशेष योगदान होता है. क्योंकि अगर ओखली अच्छे पत्थर से नहीं बनी है तो चूड़ा कूटते वक्त गंज्याले की चोट से ओखली के पत्थर के कण चूड़े में मिलकर उसका मजा ख़राब कर सकते हैं. इसलिए चूड़ा कूटते वक्त अच्छी ओखली वाले घरों का महत्व बढ़ जाता है.
हमारे बचपन के दिनों में हमारे घर के पास नंदी पुफू (श्रीमती नंदी वर्मा, ग्रामसभा नौरख पीपलकोटी की पहली महिला ग्राम प्रधान) और कान्हा भाई साहब के आंगन की ओखली ही हमारे चूड़ा कूटने की जगह थी. अब इस ओखली पर तीन-चार परिवार चूड़ा कूटते थे तो परिवारों को अपनी बारी का इंतज़ार करना पड़ता था. नीमा दीदी बताती हैं कि हमारी बड़ी बहनें कमला दीदी और विमला दीदी तो चूड़ा कूटने के लिए रात को ही नंदी पुफू के घर सोने चले जाते थे ताकि सुबह जल्दी से जल्दी उठ कर अपने हिस्से के चूड़े तैयार कर लिए जाएं.
ओखली में कूटे गये धान तेज गंज्यालों/मूसलों की चोट से चपटे होकर चूड़े का आकार ले लेते और फिर इनको देव रिंगाल से बने सुप्पों में फटक कर भूसा अलग कर लिया जाता जो गाय-भैंस के चारे के काम में आता और सफेद या लाल चूड़े की पहली कटोरी देवता के थान में चढ़ा दी जाती लेकिन उससे पहले थोड़े से चूड़े अग्नि देवता को चूड़े के चूल्हे में ही अर्पित कर दिये जाते. फिर एक-एक मुट्ठी सबको गफ्फा मारने के लिए दे दी जाती. चूड़े पहाड़ में आदर-सम्मान और प्रेम का प्रतीक माने जाते रहे. यही वजह है कि तमाम तरह के वैश्विक और बाजारी उत्पादों तथा महंगे से महंगे ब्रांड की मिठाईयां पहाड़ी चूड़े के सामने फीकी पड़ जाती हैं.
उत्तराखंड के पहाड़ी अंचल में आज भी बहु-बेटियां ससुराल और मायके में चूड़ा, आरसा, सीज़न की दालें, उस सीज़न के कुछ फल, जंबू-फरण समौण या बुज्याड़ी के रूप में देते और लेते हैं. यही नहीं विशेष अवसरों पर भाई-बहनों के बीच भी भंगजीरा, चूड़ा, अखरोट, आरसा आदि के गिफ्ट लिए और दिए जाते हैं.
इस लेख को लिखने के पीछे गौचर मेले से विमला दीदी के लाए चूड़े और पहाड़ की दालें प्रेरक रही हैं. तब पता चला अब पहाड़ में धान की रोपाई है और उखीड़ वाले साट्टी पहले की तुलना में कम ही परिवारों द्वारा बोये जा रहे हैं. और इसका प्रमुख कारण गाँव से पलायन, नई पीढ़ी का खेती में रूझान कम होना और जंगली जानवरों द्वारा बड़े पैमाने पर खेती को नुकसान पहुँचाना भी है. दूसरा एक प्रमुख कारण क्लाइमेट चेंज भी है क्योंकि असमय बारिश, आँधी-तूफान और ओलावृष्टि की वजह से पहाड़ के किसान मौसमीय कारकों से निपट नहीं पा रहे. पहाड़ के मौसम या ऋतु चक्र में हो रहे बदलाव को पहाड़ के किसान समझ नहीं पा रहे हैं. जिसका प्रतिकूल प्रभाव धान की खेती पर भी पड़ रहा है. नौरख पीपलकोटी गाँव की रेवती देवी बताती हैं कि पुराने समय के धान के बीज जैसे किरमुल्या, डिमर्या, बर्मा, गुंगरेया, टायचून के बीज मिल नहीं रहे हैं. अब आजकल सुखनन्दी, दिलबर्या, लोबियाल के बीज बोये जा रहे हैं. दूसरी ओर उत्तराखंड के मेले, ट्रेड फेयर आदि में शहरों में बस चुके उत्तराखण्डी लोग दुकानों में अक्सर चूड़ा, कूटा गया झंगोरा, मंडुवे का आटा, पहाड़ी गलगल, गडेरी पिंडालु ढ़ूंढते रहते हैं और अपनी जड़ों से हुई टूटन को महसूस कर रहे हैं.
पर्वतीय क्षेत्रों की सामाजिक संस्कृति के पर्याय यहाँ के मेले, त्यौहार और समौण के रूप में खाद्य पदार्थ ही रहे हैं. यही वजह है कि सामाजिक-आर्थिक रूप से बेहद सम्पन्न होने के बावजूद बुखणा (धान को भून कर लेकिन ठंडा कर ओखली में कूटा जाता है उसको बुखणा कहते हैं) और चूड़ा तथा पहाड़ के अन्य परंपरागत विशिष्ट उत्पादों को आज भी अपनी जड़ों से कटे उत्तराखण्डी लोग मेलों और ट्रेड फेयर में ढूंढते रहते हैं और इनका स्वाद लेते वक्त आर्थिक विषमतायें गायब हो जाती हैं.
चूड़ा उत्तराखंड के पर्वतीय समाज और उसके कृषि के साथ अंतर्सम्बन्ध जो भावनात्मक, सांस्कृतिक और अब आर्थिक भी हो गया है क्योंकि अब कई युवा उद्यमी और महिलाओं के समूह चूड़ा कूट और उसके विपणन से अपनी आजीविका चला रहे हैं और यह एक शुभ संकेत है.