पर्यावरण दिवस (5 जून) पर विशेष
- जे. पी. मैठाणी
उत्तराखण्ड में जनपद चमोली की टंगसा गाँव स्थित वन वर्धनिक की नर्सरी में उगाया गया चाइनीज़ बैम्बू बना आकर्षण का केन्द्र. चाइनीज़ बैम्बू को ग्रीन गोल्ड यानी हरा सोना कहा जाता है. यह नर्सरी गोपेश्वर बैंड से लगभग 6 किमी0 की दूरी पर पोखरी मोटर मार्ग पर स्थित है.
रिवर्स माइग्रेशन कर आ रहे पहाड़ के युवा जिनके गाँव 1200 मीटर से अधिक ऊँचाई पर हैं उन गाँवों के लिए चाइनीज़ बैम्बू स्वरोजगार के बेहतर और स्थायी रास्ते खोल सकता है. हस्तशिल्प उत्पाद, फर्नीचर, होम स्टे की हट्स और घेरबाड़.
हमने अपने जीवन में सामान्यतः कई तरह के बांस के पौधे या झुरमुट देखे होंगे. ये आश्चर्य की बात है कि बांस को कभी पेड़ का दर्जा दिया गया था, जिससे उसके काटने और लाने ले जाने के लिए वन विभाग से परमिट की आवश्यकता पड़ती थी. लेकिन कुछ समय पूर्व भारत सरकार द्वारा पुनः वन कानून में परिवर्तन कर बांस को घास की प्रजाति मानते हुए इसके वर्गीकरण को – ग्रेमिनी कुल में रखा है. बांस एक सपुष्पक एक बीजपत्री आवृत्तबीजी पोएसी कुल का पौधा है इसका बीज मोनोपोडियल यानी एक बीजपत्री होता है, जैसे- दूब, गेहूँ, मक्का, जौ, बेंत और धान के बीज होते हैं. संपूर्ण विश्व में बांस ही एकमात्र प्रजाति है जो सर्वाधिक तेज गति से बढ़ती है. कई बांस तो एक दिन में ही 7 से 8 फीट तक बढ़ जाते हैं. ऐसे ही तेज गति से बढ़ने वाले बांस प्रजाति में मोसो बांस भी शामिल है.
उत्तराखण्ड में भी बांस की कई प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें लाठी बांस, हैमलटोनाइ, कनक कैंच, बालकोवा, गायगैंटियस, एस्पर एवं कांको या कांटा बांस प्रमुख रूप से जाने जाते हैं. हमारे हिमालयी क्षेत्रों में ठंडे इलाकों में बांस परिवार का ही सदस्य रिंगाल पाया जाता है. जिसकी 7 से अधिक प्रजातियां जैसे- थाम, देव रिंगाल, सरड़ू, गडेलू, नलतुरा, गोल रिंगाल, भटपुन्तरू एवं मालिंगा प्रमुख रूप से जानी जाती हैं.
आज हम आपको जनपद चमोली के टंगसा वन वर्धनिक (उत्तराखण्ड वन विभाग के सिल्वीकल्चरिस्ट प्रभाग) की टंगसा स्थित (गोपेश्वर से पोखरी मार्ग पर) नर्सरी में उगाये जा रहे चाइनीज़ बांस जिसे अंग्रेजी में टॉरटॉइस शैल बैम्बू, चीन में माओ झू और हिन्दी में मोसो बैम्बू या चाइनीज बांस कहते हैं. के बारे में जानकारी दे रहे हैं. मोसो बांस को चायनीज बैम्बू इसलिए कहते हैं क्योंकि इसका मूल उत्पत्ति स्थान चीन और ताइवान हैं. वहीं से इसका प्रसार दुनिया के अन्य देशों में हुआ है.
मोसो बांस का वानस्पतिक नाम Phyllostachys edulis, Phyllostachys pubescens है. लैटिन भाषा में edulis का अर्थ है खाने योग्य यानी बांस के नए निकल रही कोंपलें या शूट को खाया जा सकता है. भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों जैसे- असम, मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, त्रिपुरा और अरूणाचल में बांस के कई प्रकार के व्यंजन और अचार बनाये जाते हैं.
उत्तराखण्ड बांस एवं रेशा विकास परिषद के पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी और वर्तमान में सलाहकार आईएफएस श्री एस.टी.एस. लेप्चा बताते हैं कि 2005-06 में सर्वप्रथम उत्तराखण्ड में चीन से मोसो बांस के बीज लाकर विभिन्न स्थानों में उनकी छोटी हाईटैक नर्सरियां स्थापित की गयी थीं. जिसमें से कुछ पौधे जनपद चमोली की टंगसा नर्सरी में उत्पादित किये गये. बाद में कुछ पौधे चकराता के देवबंद में आईएचबीटी पालमपुर से लाकर रोपे गये हैं.
जनपद चमोली में चाइनीज़ बांस का एकमात्र छोटा जंगल टंगसा में फल-फूल रहा है. मोसो बांस का वानस्पतिक नाम Phyllostachys edulis, Phyllostachys pubescens है. लैटिन भाषा में edulis का अर्थ है खाने योग्य यानी बांस के नए निकल रही कोंपलें या शूट को खाया जा सकता है. भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों जैसे- असम, मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, त्रिपुरा और अरूणाचल में बांस के कई प्रकार के व्यंजन और अचार बनाये जाते हैं.
वन वर्धनिक नर्सरी टंगसा के रेंज अधिकारी श्री हरीश नेगी चाइनीज़ बैम्बू के बारे बताते हैं कि- हमने सामान्यतः सुना था यह ठंडे इलाके में होने वाला बांस है और यह अधिकतर बर्फीले इलाके में भी जीवित रह जाता है. लेकिन हमारे प्रयोगात्मक प्लांटेशन साइट में मोसो बांस तो चीड़ के वनों के नीचे भी काफी तेजी से फैल रहा है. इससे यह भी प्रमाणित होता है कि मोसो बैम्बू चीड़ के दुष्प्रभावों को कम कर उत्तराखण्ड में आजीविका के नए स्रोत विकसित कर सकता है. उन्होंने यह भी बताया कि असम के जंगलों में भी मोनोपोडियल बांस की एक दूसरी प्रजाति भी होती है जिसका बांस आधारित उद्योग में काफी प्रयोग किया जाता है.
दूसरी तरफ उत्तराखण्ड बांस एवं रेशा विकास परिषद के वर्तमान मुख्य कार्यकारी अधिकारी आईएफएस श्री मनोज चंद्रन ने बताया कि- ‘उत्तराखण्ड में जो वन पंचायतें 900 मीटर से अधिक ऊँचाई वाले गाँवों में हैं वहाँ गाड़-गधेरों भूस्खलन वाली बेकार नम भूमि में मोसो बांस की खेती से बेहतर रोजगार के संसाधन विकसित किये जा सकते हैं.’ परिषद के कार्यक्रम समन्वयक दिनेश जोशी बताते हैं कि चीन में बांस की स्टिक, सींकें आदि बनाने में मोसो बैम्बू का ही सबसे अधिक प्रयोग होता है यही नहीं यह पर्वतीय क्षे़त्रों में जहाँ अन्य बांस नहीं पनप पाते वहाँ मोसो बैम्बू की बढ़त अच्छी देखी गयी है. गौरतलब है कि चीन की टैक्सटाइल इंडस्ट्री में मोसो बांस के पल्प का बड़े पैमाने पर प्रयोग होता है.
आगाज़ फैडरेशन पीपलकोटी की टीम के सदस्य अनुज, त्रिलोक एवं अमित ने हिमालयी स्वायत्त सहकारिता और अलकनन्दा स्वायत्त सहकारिता की टीम के सदस्य आशीष सती, प्रदीप कुमार, रेवती देवी, भुवना देवी, मास्टर ट्रेनर- राजेन्द्र लाल, राजेश लाल एवं इन्द्री लाल के साथ चाइनीज़ बैम्बू/मोसो बांस का हाल ही में अध्ययन किया और बताया कि इस बांस पर किसी भी प्रकार की टहनियां नहीं हैं. यह तेजी से बढ़ता है, गांठों के बीच दूरी अधिक है जिससे इसका प्रयोग सस्ते भवन निर्माण, घेरबाड़, फर्नीचर निर्माण में किया जा सकता है. इस बांस को राइज़ोम यानि एक साल पुराने कंद से आसानी से प्रत्यारोपित कर उगाया जा सकता है. इस बांस को खुले स्थान में, घरों एवं उपजाऊ जमीन से दूर लगाना चाहिए. क्योंकि यह रेंगते हुए दूब की तरह भूमि पर फैल जाता है.
बांस के बारे में रोचक तथ्य-
बांस एक ऐसी फसल है जिस पर सूखे एवं वर्षा का अधिक प्रभाव नहीं पड़ता है. बांस का पेड़ अन्य पेड़ों की अपेक्षा 30 प्रतिशत अधिक ऑक्सीजन छोड़ता है और कार्बन डाइऑक्साइड खींचता है. एक और बेहद रोचक बात यह भी है कि बांस पीपल के पेड़ की तरह दिन में कार्बन डाइऑक्साइड खींचता है और रात में ऑक्सीजन छोड़ता है.
उत्तराखण्ड का एग्रो-इकोसिस्टम पूर्व से ही वनाधारित था अतः उत्तराखण्ड में वनों पर आधारित उद्योगों में निजी या सार्वजनिक भूमि, केसर हिन्द भूमि, वन पंचायत भूमि पर बांस एवं रिंगाल के रोपण से स्वरोजगार के बहु आयामी कुटीर उद्योग स्थापित किये जा सकते हैं. पर्यावरण दिवस के अवसर पर प्रदेश में इस तरह के प्रयासों की शुरुआत की जा सकती है. इससे हस्तशिल्प, लोक संस्कृति, पक्षियों के संसार के साथ-साथ अनेक हिमालयी स्तनपायी जैसे- कस्तूरा मृग, थार, काकड़, घ्वीड़ का संरक्षण किया जा सकता है.
(लेखक पहाड़ के सरोकारों से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार एवं पीपलकोटी में ‘आगाज’ संस्था से संबंद्ध हैं)