मंजू दिल से… भाग-19
- मंजू काला
किसी भी भारतीय महिला की संदूकची, या अलमारी कोई …खोजी पति… खंगालेगा (जो पत्नी के खजाने की टोह लेता हो ) तो उसे उनमें झिलमिल करती चंदेरी साड़ियां जरूर झांकते हुए नजर आ.. जायेंगी! मैं भी जब अपने साड़ियों के पिटारे को खोलती हूँ… (यह मेरा प्रिय शगल है! फुरसत पाते ही मैं अपना साड़ियों का पिटारा जरूर खोलती हूँ!) तो यही चंदेरी साड़ियां… मंद स्मित बिखेरते हुए मुझे मेरे विवाह के वक्त की याद दिला देती हैं मसलन.
माँ और पिताजी का मेरे विवाह की तैयारियों में संलग्न रहना, पडो़सन आंटियों का मेरी साड़ियों में फाल लगाने आना! मेरा चोरी- चोरी पतिदेव के चित्र को निहारना, माँ और दादी की नजर से छुपकर.. विवाह के लिए बनाए गए आभूषणों की आजमाईश..सखियों के साथ मिलकर करना… और हाँ माँ के साथ रिक्शा में बैठकर दर्जी के यहाँ जाना भी इसी में शामिल है! मेरी माँ और दर्जन मेरी ड्रेस डिजाइनर जो थीं! और विवाह के बाद मेरी सासुमाँ मेरी हेयर ड्रेसर भी बन गयीं थीं.. माँ ने ताकीद की थी कि मुझे बाल बनाने ढंग से नहीं आते हैं! खैर.. जाने दिजिए..! और लिखने बैठी तो ये किस्सा ही खत्म नहीं होगा… ये आप भी जानते हैं.. अच्छे से!
यूं…मेरी अलमारियों में सजी कुछ साड़ियां मेरे विवाह की बड्डाली- ( विवाह में वधू को दी जाने वाली सौगात! पहाड़ में उसे बड्डाली कहा जाता है)
मैं, मेरी ससुराल से आईं थीं! इन साडियों में मुझे सासुमाँ नजर आ जाती हैं! उनकी हथेलियों की मेंहदी की खुशबु ..आने लगती है! उस वक्त वह अपनी हथेलियों पर खूब मेहंदी रचाती थीं.. हालांकि अब वे हथेलियां कमजोर हो गई है! बूढी हो गयी हैं! सोचती हूँ कितने चाव से उन्होंने इन साड़ियों को मेरे लिए खरीदा होगा.. विद वैनिटी बाक्स और चूड़ियों के डब्बों के!
बहुत चाव था उनको मेरा! उन्होंने इन साडियों को मेरे लिए अपनी बहनों मासियों को मेरा फोटु दिखा- दिखा कर खरीदा था! हालांकि उस पिटारे में बनारसी, गढचौला, मैसूर सिल्क, धर्मावरम, पोचंमपल्ली, कांजीवरम, साउथ- सिल्क की साड़ियां भी थीं..लेकिन भरमार थी रंग- बिरंगी चंदेरी साड़ियों की! हरी और मेहरून, पीली और हरी, और लाल भी! वैसे तो मुझे सारी ही साड़ियाँ बहुत प्रिय थीं..लेकिन.भारी साड़ियां कैरी न कर पाने के कारण.. मुझे “चंदेरी” साड़ियां ही अधिक सुहाती थी! नीली और रानी कलर की चंदेरी पहन कर जब मैं पतिदेव के साथ सिद्ध बली मंदिर, ( ये मंदिर कोटद्वार गढ़वाल में है! और वहीं मेरी ससुराल भी है!) जाती थी, तो मालूम.!!!, . सासुमाँ के साथ- साथ पडो़स की और दो – चार महिलाएँ भी मेरी बलैय्यां लेने लग जाती थी! ऐसा इसलिए कह रही हूँ कि चंदेरी पहनने से हर महिला का रूप निखर जाता है… सो मेरा भी निखर जाता था! साडियों की तह जमाते हुए.. मैं सोच ..रही हूँ. कि..क्यों न समय.. बिताने के लिए, साडियों के शहर.. चंदेरी , और.. मेरी प्रिय चंदेरी साड़ी के बाबत आपसे कुछ.. किस्सा- गोई कर लुं… ताकि आपकी दिलजोई हो सकें-
तो…जानिए, मध्य प्रदेश के अशोक नगर जिले में स्थित एक छोटी सी,लेकिन ऐतिहासिक और प्राकृतिक..सौन्दर्य से ओत-प्रोत जगह है “चंदेरी! बेतवा एवं उर्वशी.. के तट पर इठलाती” चंदेरी “का वैभव देखकर किसी भी रसिक की आंखें चुंधिया जायेंगी.. ऐसी है.. चंदेरी!
इन नदियों की..सुरम्य घाटी में बसी चंदेरी ..अपने आंचल में इतिहास और पुरातत्व का खजाना समेटे हुए है..कसम से! समुद्र तट से 1300 फीट की ऊँचाई पर स्थित यह अंचल प्राकृतिक छटा से सजा हुआ है! यह शहर सैलानियों के लिए एक अनुपम और खूबसूरत सैरगाह भी है! सुंदर झीलों, तालाबों, सजी-धजी बावड़ियों, पर्वत मालाओं और हरे-भरे वनों से अलंकृत चंदेरी बहुत ही चित्रमयी है.. ये मै नहीं कह रही हूँ! यहाँ की आबो-हवा यह बयां-बाजी खुद ही करती हैं! यहाँ की सुंदरतम बत्तीसी बावड़ी में लिखा भी है! फारसी में खुदा हुआ है के-, ‘स्वर्ग यहीं है’ ! पर्यटकों के लिये यहाँ एक और आकर्षण है..किले के ऊपर का ” जौहर ताल ” इस ताल के किनारे भारतीय नारी के अस्तित्व , प्रेम एवं आत्मसम्मान का एक गौरवशाली पृष्ठ लिखा हुआ है! इस पावन स्थली और खूनी दरवाजे पर रक्त से लिखी उत्सर्ग और शौर्य की गाथा आज भी बोलती है! यह कहती हैं कि चंदेरी का प्राचीन नाम ‘चंद्रगिरि’ था! चंदेरी में बुंदेल राजपूतों और मालवा के सुल्तानों द्वारा बनवाई गई अनेक इमारतें यहाँ बनवाईं गयीं थीं! इस ऐतिहासिक नगर का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है. 11वीं शताब्दी में यह नगर एक महत्त्वपूर्ण सैनिक केंद्र था और प्रमुख व्यापारिक मार्ग भी यहीं से होकर गुजरते थे. वर्तमान में बुन्देलखण्डी शैली में बनी हस्तनिर्मित साड़ियों के लिये चंदेरी काफी मशहूर है..!
कहा जाता है कि सत्रहवीं सदी में बड़ौदा, नागपुर और ग्वालियर जिले में बसने वाले बुनकर वहां के ..राजघरानों की स्त्रियों के लिए साड़ियां बुना करते थे. ऐसा कहा जाता है कि बड़ौदा की महारानी बुनकरों को खुद बेहतरीन सूत देकर उनसे साड़ियां बुनवाया करती थीं!! प्राचीनकाल में कपास के अत्यंत बारीक धागों से चंदेरी साड़ियों की बुनाई की जाती थी. मुगलकाल में इन साड़ियों को बुनने के लिए ढाका से बारीक मलमल के रेशे मंगवाए जाते थे! ऐसा कहा जाता है कि यह साड़ी इतनी बारीक होती थी कि एक पूरी साड़ी एक मुट्ठी के भीतर समा जाती थी. 17 वीं सदी में चंदेरी साड़ियां बुनने के लिए मैनेचेस्टर से सूती धागा मंगाया जाने लगा, जो कोलकाता के बंदरगाह से होते हुए चंदेरी तक पहुंचता था. उसके बाद साड़ियां बुनने के लिए जापान, चीन और कोरिया से भी रेशम मंगाया जाने लगा और चंदेरी साड़ियां सिल्क से भी बुनी जाने लगीं और रेशमी धागों से बुनी गई साड़ियां स्त्रियां ज्यादा पसंद करने लगीं..!
किस्से कहते हैं..की इंदौर की रानी अहिल्याबाई हौल्कर व झांसी की रानी, हमारी प्रिय “मनु ‘( रानी झांसी)चंदेरी साड़ियों की मुरीद थीं! समय के पन्नों में कलम कारों ने दर्ज किया है कि “मनु” सुबह के वक्त चंदेरी की महीन सफेद साड़ी व चंदन का टीका लगाकर कचहरी किया करती थीं, और दिन में मूंगा कलर की चंदेरी ..पहन कर दरबार किया करती थी! ( विष्णु सखाराम गोडसे विरसाईकर ने अपनी चर्चित पुस्तक ” माझा प्रवास ” में इस बात का जिक्र किया है!उस समय वह अपने काका के साथ झांसी में प्रवास कर रहे थे! ) उस वक्त की महिलाएँ चंदेरी साड़ियों को उत्सवों के दौरां… बहुत चाव से पहना करतीं थीं! फिर चाहे वह” मंगलागौर ” के खेल हों..या “हलद कूंक ” की रस्में.!उस समय… राज परिवारों की स्त्रियां केसर से निकाले गए रंग से भी अपनी साड़ियों के धागे रंगवाती थीं, जिन्हे पहनने के बाद उनमें से केसर की भीनी-भीनी खुशबू आती रहती थी… अहिल्या बाई हौल्कर इसी तरीके की साड़ियों को तव्वजो देतीं थीं! मेरी तफ्तीश बताती है कि केसर के धागों का साड़ियों में इस्तेमाल अहिल्या बाई होल्कर की ही ईजाद है!बारीक जरी की किनारी चंदेरी साड़ियों की खास पहचान है. इन साड़ियों की बुनाई के लिए जरी आगरा और सूरत से मंगाई जाती है. इसकी जरी में चांदी से बने धागों में सोने का पानी चढ़ा होता है. वाराणसी की जरी भी चंदेरी साड़ियों के लिए बहुत अछी मानी जाती है. जरी की गुणवत्ता इस बात पर निर्भर करती है कि उसमें कितनी मात्रा में असली चांदी है. असली चांदी की जरी के इस्तेमाल से साड़ी की लागत और कीमत बढ़ जाती है इसलिए ज्यादातर बुनकर जरी के कृत्रिम धागों में थोड़ी सी चांदी मिलाकर साड़ी की किनारी तैयार कर लेते हैं.
साड़ी की….बुनाई के लिए सबसे पहले करघे पर धागा चढ़ाया जाता है. इस प्रक्रिया को “”नाल फेरना” कहा जाता है, यह काफी मेहनत और धैर्य का काम है, जिसे पूरा करने में लगभग पूरे दिन का समय लग जाता है..और इसके लिए दो बुनकरों की जरूरत होती है. बुनाई शुरू करने के लिए सबसे पहले साड़ी की बूटी, बॉर्डर और किनारी के अनुपात में अलग-अलग रंगों के धागे गिनकर करघे पर चढ़ा दिए जाते है और बुनाई पूरी होने के बाद साड़ी को बड़ी सावधानी से करघे से अलग किया जाता है..!
रंग- बिरंगी छटा बिखेरती इन चंदेरी साड़ियों के रंग संयोजन में पृष्ठंभूमि और बॉर्डर की समरसता का विशेष ध्यान रखा जाता है! इन साड़ियों में आमतौर पर केसरिया, लाल, मैरून, गुलाबी, बादामी, मोरगर्दनी और तोतापंखी रंगों का इस्तेमाल होता है. बॉर्डर और पृष्ठभूमि के लिए परस्पर विरोधी रंगों का इस्तेमाल होता है. जैसे लाल के साथ काला, सिंदूरी के साथ हरा, मेहंदी ग्रीन के साथ मैरून आदि रंगों का इस्तेमाल होता है. हलके और गहरे रंग के संयोजन से बुनी जाने वाली साड़िया गंगा-जमुना साड़ी के नाम से जानी जाती है..!!
जहां एक ओर इन साड़ियों के बुनकरों के लिए इस कला का नया बाजार खुला है वहीं समृद्ध व्यापारियों या बुनकरों द्वारा इनके शोषण की प्रवृत्ति बढ़ी है. जरूरतमंद बुनकरों को अपने काम की उचित मजदूरी नहीं मिल पाती इसलिए वे अपने हाथों से बनाए गए सामान के लिए खुद बाजार ढूंढते है. बुनकरों के लिए सबसे बड़ी समस्या पूंजी और कच्चे माल की है. हालांकि पिछले कुछ वर्षो में यहां के बुनकरों की दशा में सुधार जरूर हुआ है. अब वे स्वयं कच्चा माल खरीदने और तैयार माल बेचने में भी सक्षम है. मध्यप्रदेश वस्त्र कॉरपोरेशन की ओर से ऋण की भी व्यवस्था की गई है. आजकल बंगलौर और कोयम्बटूर से आसानी से रेशम के धागे मिल जाते है जिससे बुनकरों की समस्याओं का काफी हद तक समाधान हो गया है…! कारिगरों की इन्हीं कठिनाइयों का चित्रण अनुष्का शर्मा द्वारा अभिनीत फिल्म, “सुई-धागा” में किया गया है! और सिनेमोग्राफी.. इसी चंदेरी शहर की है!!
हिंदुस्तानी महिलाओं को चंदेरी साड़ियों की सौगात देने वाले इस इस शहर का अपना इतिहास भी रहा है! यदि आप इतिहास के पन्नों को पलटने की फुरसत पा जाते हैं तो देखिएगा कि किस तरह से “चंदेरी” शहर का इतिहास प्राचीन होने के साथ साथ गौरवशाली भी है. ये अलग बात है कि इसकी हम लोगों का ध्यान कम ही जाता है! प्राचीन महाकाव्य काल में यह चेदि नाम से विख्यात था जहां का राजा शिशुपाल था. ईसा पूर्व छठीं शताब्दी में प्रसिद्ध सोलह महाजनपदों में से चेदि या चन्देरी भी एक था. तत्कालीन चेदि राज्य काे वर्तमान में सम्भवतः बूढ़ी चन्देरी के नाम से जाना जाता है जो वर्तमान चन्देरी के 18 किमी उत्तर–पश्चिम में अवस्थित है. बूढ़ी चन्देरी में बहुत से बिखरे मंदिर,शिलालेख व मूर्तियों के अवशेष पाये जाते हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि यह प्राचीन काल में निश्चित रूप से कोई ऐतिहासिक नगर रहा होगा जो कालान्तर में घने जंगल में विलीन हो गया.
13वीं सदी तक बूढ़ी चन्देरी का महत्व धीरे–धीरे समाप्त हो गया और वर्तमान चन्देरी अस्तित्व में आया. वर्तमान चन्देरी नगर को 10वीं–11वीं सदी में प्रतिहारवंशी राजा कीर्तिपाल ने बसाया एवं इसे अपनी राजधानी बनाया.
महमूद गजनवी के साथ आए इतिहासकार अलबरूनी ने अपने ग्रन्थ ‘तहकीक–ए–हिन्द’ में चन्देरी की समृद्धि और महत्व का वर्णन किया है. फरिश्ता के विवरणानुसार 1251 में दिल्ली के सुल्तान नासिरउद्दीन ने चन्देरी पर अधिकार कर वहां अपना गवर्नर नियुक्त किया. कनिंघम के अनुसार यह विवरण सम्भवतः बूढ़ी चन्देरी के सन्दर्भ में है. अलाउद्दीन खिलजी ने 1296 में देवगिरि जाते समय चन्देरी में लूट–पाट की थी. उस समय यहां सम्भवतः किसी हिन्दू शासक का आधिपत्य था. गयासुद्दीन तुगलक के शासन काल में चन्देरी एक मुस्लिम छावनी के रूप में विकसित हुआ. 1342 में मोरक्को का यात्री इब्न बतूता चन्देरी आया. फिरोज तुगलक ने दिलावर खां गौरी को चन्देरी और माण्डू का हाकिम नियुक्त किया. बाद में उसने अपने को स्वतंत्र कर मालवा को राज्य बनाया.
मालवा के राजा महमूद शाह खिलजी और उसके पुत्र गयासुद्दीन खिलजी के काल को चन्देरी का स्वर्ण काल कहा जाता है. वर्तमान चन्देरी के अनेक स्मारक,बावड़ियां और शिलालेख इसी काल के हैं. 1524 में राजपूत राजा राणा सांगा के सहयोग से मालवा का राजपूत सरदार मेदिनी राय चन्देरी का स्वतंत्र शासक बना. 1528 में मुगल शासक बाबर ने राणा सांगा व मेदिनी राय की सेनाओं को परास्त कर चन्देरी पर अधिकार कर लिया. बाद में पूरनमल जाट ने इसे अपने अधिकार में ले लिया. पूरनमल जाट के समय शेरशाह ने इस पर आक्रमण किया. लम्बे समय के घेरे के बाद भी जब किला हाथ न आया तो शेरशाह ने संधि का प्रस्ताव भेजा जिसमें पूरनमल का सामान सहित सकुशल किला छोड़ कर निकल जाने का आश्वासन था लेकिन पूरनमल के नीचे उतर आने के बाद शेरशाह ने कत्लेआम की आज्ञा दे दी और भयंकर मारकाट के बाद किले पर अधिकार कर लिया. ओरछा के बुन्देला राजा मधुकर शाह के पुत्र रामसिंह ने 1586 ई0 में चन्देरी पर अधिकार कर लिया और इसके बाद 1811 तक यहां बुन्देलों का राज्य रहा. इसके पश्चात चन्देरी पर मराठा शासक ग्वालियर के दौलतराव सिन्धिया का राज्य स्थापित हुआ. 1844 में चन्देरी ब्रिटिश नियंत्रण में चला गया. 1861 में एक सन्धि के अन्तर्गत चन्देरी ग्वालियर राज्य को दे दिया गया जो 1947 तक उनके शासन में रहा.
(मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण, पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं. नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है.)