उत्तराखंड हलचल

संकट में सीमांत

संकट में सीमांत

उत्तराखंड हलचल
सुमन जोशी बरसात का मौसम है. खिड़कियों के शीशों पर पड़ी बूंदों को देखते हुए अदरक-इलायची वाली चाय की चुस्कियों के बीच अपनी पसंदीदा किताब पढ़ने के दिन. और उसी के साथ म्यूजिक स्टोर से, "रिम-झिम गिरे सावन,  सुलग-सुलग जाए मन,  भीगे आज इस मौसम में,  लगी कैसी ये अगन". गीत सुनते-सुनते कहीं पहाड़ों व बचपन की यादों में खो जाने के दिन. तेल की कढ़ाई में प्याज़ और आलू का बेसन में लिपटकर गोते खाने के दिन. हम इस बरसात में जहाँ जाने का मन बनाते हैं. जिस जगह की छवि हम मन में उकेरते हैं असल में वहां के लोग पल-पल डरों के अंधेरों में जीते हैं. जो लोग इस मंजर का आँखों देखा हाल देख रहे है और त्रादसी से जूझ रहे हैं उनके लिए बरसात एक डरावने सपने की तरह हैं. और इसी बीच शहर में बैठे अपने 12×14 फ़ीट के कमरे में बैठे फेसबुक,इंस्टाग्राम पर बरसात की चुनिंदा तस्वीरों पर लाइक करते हुए हम सोचते हैं कि काश हम...
राज्य मिलने के बीस साल बाद भी उपेक्षित है जालली सुरेग्वेल क्षेत्र

राज्य मिलने के बीस साल बाद भी उपेक्षित है जालली सुरेग्वेल क्षेत्र

अल्‍मोड़ा
डॉ. मोहन चन्द तिवारी अभी हाल ही में 22, जुलाई, 2020 को जालली क्षेत्र के सक्रिय कार्यकर्त्ता और समाजसेवी भैरब सती ने अमरनाथ, ग्राम प्रधान जालली; मनोज रावत, ग्राम प्रधान ईड़ा; सरपंच दीन दयाल काण्डपाल, मोहन काण्डपाल, नन्दन सिंह, गोपाल दत, पानदेव व महेश चन्द्र जोशी आदि क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों के एक शिष्टमंडल की अगुवाई करते हुए जालली क्षेत्र के विकास और वहां उप तहसील के कार्यालय की स्थापना की मांग को लेकर द्वाराहाट तहसील के एसडीएम श्री आर के पाण्डेय से मुलाकात की और उन्हें ज्ञापन भी सौंपा है. जालली क्षेत्रवासियों की एक मुख्य मांग है कि वहां एक साधन संपन्न कार्यालय खोला जाए और तुरंत वहां डाटा आपरेटर की नियुक्ति की जाए, ताकि इस कोरोना काल की चरमराई हुई राज्य परिवहन व्यवस्था के दौर में स्थानीय लोगों को अपने खतोंनी की नकल प्राप्त करने और परिवार रजिस्टर, आय प्रमाण पत्र,स्थायी निवास पत्र, जा...
बादल फटने की त्रासदी से कब तक संत्रस्त रहेगा उत्तराखंड?

बादल फटने की त्रासदी से कब तक संत्रस्त रहेगा उत्तराखंड?

उत्तराखंड हलचल
डॉ. मोहन चन्द तिवारी उत्तराखंड इन दिनों पिछले सालों की तरह लगातार बादल फटने और भारी बारिश की वजह से मुसीबत के दौर से गुजर रहा है.हाल ही में 20 जुलाई को पिथौरागढ़ जिले के बंगापानी सब डिवीजन में बादल फटने से 5 लोगों की मौत हो गई, कई घर जमींदोज हो गए और मलबे की चपेट में आने की वजह से 11 लोगों के बह जाने की खबर है.नदियां उफान पर हैं.इससे पहले 18 जुलाई को भी पिथौरागढ़ जिले में बादल फटने की दर्दनाक घटना हुई है.पहाड़ से अचानक आए जल सैलाब से कई घर दब गए,पांच घर बह गए और तीस घर खतरे की स्थिति में हैं.गोरी नदी में जलस्तर बढ़ने से सबसे ज्यादा नुकसान मुनस्यारी में हुआ.वहां एक पुल पानी में समा गया. आखिर ये बादल कैसे फटते हैं? ये उत्तराखंड के इलाकों में ही क्यों फटते हैं? बादल फटने का मौसम वैज्ञानिक मतलब क्या है? इन तमाम सवालों पर मैं आगे विस्तार से चर्चा करुंगा. लेकिन पहले यह बताना चाहुंगा कि उ...
जंगली कं​टीली झाड़ी से रोजगार का स्रोत बन रहा है टिमरू

जंगली कं​टीली झाड़ी से रोजगार का स्रोत बन रहा है टिमरू

चमोली
कम उपजाऊ और बेकार भूमि में आसानी से उगता है उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में खेती को जंगली जानवरों से बचाव के लिए शानदार बाड़/बायोफेन्सिंग भी है टिमरू खेती-बाड़ी बचाएगा टिमरू तो रूकेगा जंगली जानवरों की वजह से होने वाला पलायन जे. पी. मैठाणी हिन्दू धर्म ग्रंथों में जिन भी पेड़-पौधों का रिश्ता पूजा-पाठ तंत्र-मंत्र से जोड़ा गया है. उन सभी पेड़-पौधों, वनस्पतियों में कुछ न कुछ दिव्य और आयुर्वेदिक गुण जरूर हैं. और उनका उपयोग हजारों वर्ष पूर्व से पारम्परिक चिकित्सा पद्धति, आयुर्वेद और इथ्नोबॉटनी में किया जाता रहा है. यानी पेड़—पौधों का महत्व उसके औषधीय गुणों के कारण है और उनके संरक्षण के लिए उनको धर्म ग्रंथों में विशेष स्थान दिया गया है. ऐसे ही एक बहुप्रचलित लेकिन उपेक्षित कंटीला झाड़ीनुमा औषधीय वृक्ष है टिमरू. टिमरू सिर्फ पूजा-पाठ और भूत पिशाच भगाने के लिए कंटीली डंडी नहीं...
‘प्यारी दीदी, अपने गांव फिर आना’

‘प्यारी दीदी, अपने गांव फिर आना’

उत्तराखंड हलचल
गंगोत्री गर्ब्याल डॉ. अरुण कुकसाल ‘‘प्रसिद्ध इतिहासविद् डॉ. शिव प्रसाद डबराल ने ‘उत्तराखंड के भोटांतिक’ पुस्तक में लिखा है कि यदि प्रत्येक शौका अपने संघर्षशील, व्यापारिक और घुमक्कड़ी जीवन की मात्र एक महत्वपूर्ण घटना भी अपने गमग्या (पशु) की पीठ पर लिख कर छोड़ देता तो इससे जो साहित्य विकसित होता वह साहस, संयम, संघर्ष और सफलता की दृष्टि से पूरे विश्व में अद्धितीय होता’’ (‘यादें’ किताब की भूमिका में- डॉ. आर.एस.टोलिया) ‘गाना’ (गंगोत्री गर्ब्याल) ने अपने गांव गर्ब्याग की स्कूल से कक्षा 4 पास किया है. गांव क्या पूरे इलाके भर में दर्जा 4 से ऊपर कोई स्कूल नहीं है. उसकी जिद् है कि वह आगे की पढ़ाई के लिए अपनी अध्यापिका दीदियों रन्दा और येगा के पास अल्मोड़ा जायेगी. गर्ब्याग से अल्मोड़ा खतरनाक उतराई-चढ़ाई, जंगल-जानवर, नदी-नालों को पार करते हुए 150 किमी. से भी ज्यादा पैदल दूरी पर है. मां-पिता समझाते...
हिसालू की जात बड़ी रिसालू, जाँ जाँ जाँछ उधेड़ि खाँछ

हिसालू की जात बड़ी रिसालू, जाँ जाँ जाँछ उधेड़ि खाँछ

उत्तराखंड हलचल
डॉ. मोहन चन्द तिवारी कुमाउंनी के आदिकवि गुमानी पंत की एक लोकप्रिय उक्ति है - "हिसालू की जात बड़ी रिसालू, जाँ जाँ जाँछ उधेड़ि खाँछ. यो बात को क्वे गटो नी माननो, दुद्याल की लात सौणी पड़ंछ." अर्थात् हिसालू की प्रजाति बड़ी गुसैल किस्म की होती है, जहां-जहां इसका पौधा जाता है, बुरी तरह उधेड़ देता है, तो भी कोई इस बात का बुरा नहीं मानता, क्योंकि दूध देने वाली गाय की लातें भी खानी ही पड़ती हैं. हिसालू होता ही इतना रसीला है कि उसके आगे सारे फल फीके ही लगते हैं. इसीलिए गुमानी ने हिसालू की तुलना अमृत फल से की है- "छनाई छन मेवा रत्न सगला पर्वतन में, हिसालू का तोपा छन बहुत तोफा जनन में, पहर चौथा ठंडा बखत जनरौ स्वाद लिंण में, अहो में समझछुं, अमृत लग वस्तु क्या हुनलो ?" अर्थात् पहाड़ों में तरह-तरह के अनेक रत्न हैं, हिसालू के फल भी ऐसे ही बहुमूल्य तोहफे हैं,चौथे पहर में ठंड के समय हिसालू खा...
रोपणी-“सामूहिक सहभागिता की मिशाल खेती का त्यौहार”

रोपणी-“सामूहिक सहभागिता की मिशाल खेती का त्यौहार”

उत्तराखंड हलचल
आशिता डोभाल पहाड़ों में खेती बाड़ी के कामों को सामूहिक रूप से त्यौहार जैसा मनाने की परम्परा वर्षों पुरानी है. हर मौसम में, हर फसल को बोने से लेकर, निराई—गुड़ाई और कटाई—छंटाई तक सारे कामों को त्यौहार के रूप मनाने की परम्परा सदियों पुरानी है, जिसमें रोपणी (धान की रोपाई) मुख्यत: एक ऐसी परम्परा थी. यह पूरे गांव की सहभागिता, सामूहिकता, आपसी भाईचारा को दर्शाती थी. पहाड़ों में रोपणी के लिए धान की नर्सरी (बीज्वाड़) चैत्र (मार्च-अप्रैल) माह में डाली जाती है, ताकि समय पर पौध तैयार हो जाए. सभी की यह कोशिश रहती थी कि सबकी नर्सरी एक साथ डाली जाय ताकि एक ही समय पर सबकी रोपणी लग सके. आषाढ़ (जून-जुलाई) का महिना एक ऐसा महिना होता है जब पूरे पहाड़ में हर गांव में रोपणी की धूम रहती थी, हर गांव घर परिवार को इंतजार रहता था कि कब उनके खेत में गुल का पानी पहुंचे और कब उनकी रोपणी लगे. बारी—बारी से सबक...
अंजीर ला सकता है रोजगार की बयार

अंजीर ला सकता है रोजगार की बयार

उत्तराखंड हलचल
बेडू और तिमला से ही विकसित हुआ है अंजीर. उत्तराखंड में उपेक्षित क्यों? जे. पी. मैठाणी पहाड़ों में सामान्य रूप से जंगली समझा जाने वाला बेडू और तिमला वस्तुत: एक बहुउपयोगी फल है. ​तिमला और बेडू के वृक्ष से जहां पशुओं के लिए जाड़ों में विशेषकर अक्टूबर से मार्च तक हरा चारा मिलता है, वहीं इसका फल अभी तक उपेक्षित माना गया है. दुनिया के कई देशों में लगातार शोध और अनुसंधान तथा कायिक प्रवर्धन से अंजीर को विकसित किया गया. शोध पत्र बताते हैं कि अंजीर जिसका वैज्ञानिक नाम फाइक्स कैरिका है यह मलबेरी ​परिवार यानी मोरेशी परिवार का सदस्य है. मूलत: अंजीर एशिया में तुर्की से उत्तर भारत तक का निवासी माना जाता है. पहले इसको गरीबों का भोजन भी कहा जाता था. जैसे कि आज भी उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में जिस परिवार को सब्जी नसीब ना हो, ऐसा माना जाता है कि वह परिवार तिमले की सब्जी बनाते हैं या चटनी बनाते ...
टिहरी रियासत के विरुद्ध जन-संघर्षों का अग्रणी व्यक्तित्व

टिहरी रियासत के विरुद्ध जन-संघर्षों का अग्रणी व्यक्तित्व

उत्तराखंड हलचल
दादा दौलतराम खुगशाल (मार्च, 1891- 3 फरवरी, 1960) डॉ. अरुण कुकसाल ‘‘आज तक राजा ने हमको पढ़ने-लिखने का अवसर नहीं दिया जिससे हम बायां अंगूठा लगाने को मजबूऱ हैं, लेकिन अब अगर राजा के कर्मचारी ‘कर’ आदि वसूलने आयें तो हमें उन्हें अपना दायां अंगूठा दिखाना चाहिए और हम दिखायेंगे भी.’’                                                                                                                                    - दादा दौलतराम खुगशाल प्रजामंडल के टिहरी सम्मेलन (25-27 मई, 1947) में दादा दौलतराम ने अपने भाषण में उक्त वक्तव्य देकर राजशाही को खुली चुनौती दे थी. टिहरी रियासत के विरुद्ध हुये निर्णायक आंदोलनों में 3 नाम प्रमुख रूप में सामने आते हैं. अमर शहीद श्रीदेव सुमन, दादा दौलतराम खुगशाल और नागेन्द्र सकलानी. श्रीदेव सुमन टिहरी रियासत के आत्याचारों के खिलाफ स्थानीय जनता की आवाज को देश के राष...
वीरान होती छानियां

वीरान होती छानियां

उत्तराखंड हलचल
आशिता डोभाल डांडा छानी (गौशाला)- पहाड़ों में हर मौसम के अनुसार और खेती-बाड़ी के अनुसार लोगों ने छानियां बनाई हुई रहती थी जिससे उन्हें अपनी खेती—बाड़ी के काम और चारा—पत्ती लाने में किसी भी तरह की परेशानियों का सामना न करना पड़े, इससे उनका समय भी बचता था और समय पर उनका काम भी निपटता था. उनकी समय सीमा भी निर्धारित रहती थी कि किस समय और किस मौसम में वो कौन—सी जगह की छानी में उनको रहने जाना है, उस हिसाब से फसल बोना और अपनी जरूरत का सामान जुटाकर जाना होता था. मार्च माह के मध्य में मैं और मेरे साथ मेरे गांव के दो चार लोग हम बुरांश लेने अपने गांव की डांडा छानी गए बल्कि जाना तो उससे भी ऊपर था और गए भी. सच कहूं तो बुरांश लेने जाना तो एक बहाना था मुझे तो उन छानियों को देखना था, जो कभी पशुओं और इंसानों से गुलजार हुआ करती थी, आज वो बिल्कुल निर्जन जंगल भी कहूं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. छानियां ब...