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सामरिक इतिहास के लिए विख्यात मातृवंशीय नंबूदरी ब्रह्मणों की विवाह पद्धति

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मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण, पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. so आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं.  नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्‍पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्‍यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है. इनकी लेखक की विभिन्न विधाओं को हम हिमांतर के माध्यम से 'मंजू दिल से...' नामक एक पूरी सीरिज अपने पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं. पेश है मंजू दिल से... की प्रथम किस्त... ...
दीव से ओखा तक

दीव से ओखा तक

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गुजरात यात्रा - सोमनाथ से द्वारिकाधीश तक डॉ. हरेन्द्र सिंह असवाल  यात्रायें मनुष्य जीवन जीवन की आदिम अवस्था से जुड़ी हुई हैं. चरैवेति चरैवेति से लेकर अनन्त जिज्ञासायें मनुष्य को घेरे रहती हैं. इस बार दिल्ली की लंबी प्रदूषित अवधि ने मुझे बाहर निकलने के लिए इतना विवश किया कि बिना किसी योजना के मै निकल गया जयपुर. जयपुर से डस्टर से चार लोग निकल पड़े. कहाँ जाना है? कहाँ रुकना है? कुछ पता नहीं. आजकल ओयो रूम्स हैं न. जहाँ तक पहुँचेंगे वहीं ओ यो रूम्स देख लेंगे. पुराने ज़माने में लोग यात्रा पर निकलते थे तो चट्टियों पर रुकते थे. ये चट्टियां हर नौ मील पर हुआ करती थी. अक्सर यात्री हर दिन नौ मील की दूरी तय करते और अपने रात्रि पड़ाव तक पहुँच जाते. वे धार्मिक यात्रायें होती थी. जिसमें पुण्य प्राप्ति और मुक्ति की कामना से श्रद्धालु निकला करते थे. मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था. मैं तो  दिल्ली की तंग ...
“शहीदों की निशानियों पर बदहाली की धूल”

“शहीदों की निशानियों पर बदहाली की धूल”

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विजय भट्ट जब कफस से लाश निकली उस बुलबुले नाशाद की. इस कदर रोये कि हिचकी बंध गयी सैयाद की.  कमसिनी में खेल खेल नाम ले लेकर तेरे. हाथ से तुर्बत बनायी, पैर से बबार्द की. शाम का वक्त है, कबरों को न ठुकराते चलो.  जाने किस हालत में हो मैयत किसी नाशाद की. भारत में अंग्रेजों की हुकूमत थी. ये दौर था वर्ष 1930 के अगस्त माह के दूसरे सप्ताह का. जब चंद्रशेखर "आजाद", हजारीलाल, रामचंद्र, छैलबिहारी लाल, विश्वम्भरदयाल और दुगड्डा निवासी उनके साथी क्रांतिकारी भवानी सिंह रावत दिल्ली से गढ़वाल की ओर चल पड़े. यह सभी भवनी सिंह रावत के दुगड्डा के पास नाथूपुर गांव जा रहे थे. कोटद्वार में रेल से उतर कर सभी दुगड्डा के लिए प्रस्थान करते हैं. दिन का तीसरा प्रहर बीत रहा था. शाम के समय सीला नदी पार कर जंगल के रास्ते सभी आगे बढ़ रहे थे. सुहाने मौसम में पकड़ंडी पर चलते हुए आजाद अपने प्रिय उक्त गीत को गुनगुना रहे ...