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‘संझा’ देवी को सर्वाधिक प्रिय है सफेद फूल

‘संझा’ देवी को सर्वाधिक प्रिय है सफेद फूल

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मंजू दिल से… भाग-18 मंजू काला कवार मास का प्रारंभ ...यानी शरद ऋतु का आगमन जिसमे रंग-आकृति और गंध वाले फूलों की बहुतायत देखने को मिलती है. ये फूल केवल कला की उत्कृष्टता को इंगित नहीं करते वरन उनकी समग्र सुगंधावली का भी प्रस्फुटन करते हैं. इसी प्रकृति उल्लास के साथ बालिका पर्व यानी सांझी का शुभारंभ होता है. संझा बनाते समय लड़कियां because एक-एक फूल और उसकी पंखुड़ी को बड़े जतन से सहेजती हैं. संझा की ऋतु में जो फूल जिस अंचल में खिले मिलते हैं उन्हीं से संझा सजाई जाती है. मालवा तथा निमाड़ के क्षेत्रों में गुलगट्टे, गुलबास, गुलतेवड़ी के अलावा चंपा, चमेली, गुलाब, चांदनी, कनेर, गेंदा और अन्य फूल अधिकता में पाए जाते हैं कोलकाता संझा के अंकन के समय लड़कियां एक एक फूल और उसकी पंखुड़ियों से गोबर से अंकित संझा की आकृति पर श्रृंगार करती हैं. संझा का मूल अंकन गोबर से किया जाता है क्योंकि, गोबर से be...
उत्तराखंड में स्‍वरोजगार का जरिया बन सकती है कैमोमाइल की खेती

उत्तराखंड में स्‍वरोजगार का जरिया बन सकती है कैमोमाइल की खेती

खेती-बाड़ी, ट्रैवलॉग
मंजू दिल से… भाग-17 मंजू काला जहाँ... कैमोमाइल का फूल सुंदरता, सादगी because और शांति का प्रतीक माना जाता है, वहीं निकोटिन रहित होने के कारण  यह औषधीय गुणों से भरपूर होता है. पेट के रोगों के लिए यह रामबाण औषधि है, वहीं त्वचा रोगों में भी कैमोमाइल काफी लाभकारी है. यह जलन, अनिद्रा, घबराहट और चिड़चिड़ापन में... भी लाभकारी है. कोलकाता उत्तराखंड के... परिपेक्ष में इस जादू के फूल की...बात करें... तो भौगोलिक परिस्थितियों वाले उत्तराखंड के गांवों से हो रहे पलायन ने खेती... और… किसानी को गहरे तक प्रभावित किया है. because अविभाजित उत्तर प्रदेश में यहां आठ लाख हेक्टेयर में खेती होती थी, जबकि 2.66 लाख हेक्टेयर जमीन बंजर थी. राज्य गठन के बाद अब खेती का रकबा घटकर सात लाख हेक्टेयर पर आ गया है, जबकि बंजर भूमि का क्षेत्रफल बढ़कर 3.66 लाख हेक्टेयर हो गया है. सगंध खेती की मुहिम अब राज्य के 109 एरोम...
रसगुल्लों का कोलम्बस:  तोमार… रोसोगुल्ला…  औऱ तोमार… शौक्तो…

रसगुल्लों का कोलम्बस:  तोमार… रोसोगुल्ला…  औऱ तोमार… शौक्तो…

ट्रैवलॉग
मंजू दिल से… भाग-16 मंजू काला उड़ी... बाबा! हुगली नदी के पूर्वी तट पर बसा, ‘सीटी आफ ज्वाय’ के नाम से मशहूर… कोलकाता कलकत्ता,  कोलकाता,  कैलकटा… because जाने कितने नामों से जानते हैं हम इस खूबसूरत शहर को. क्या? जानियेगा कि आज भी इस शहर में ट्रामैं चलती हैं. क्या मानियेगा कि  कोलकाता में अब भी हाथ से खींचे जाने वाले रिक्शे चलते हैं? सुनियेगा कि फ्रैंक-फर्ट पुस्तक मेला और लंदन पुस्तक मेला के बाद नम्बर आता है कोलकाता पुस्तक मेले का!  सच में... कोलकाता शांत समंदर की लहरों जैसा है यह शहर मधुर और मदिर! खूबसूरत तांत की साडियां, शंख, because सिंदूर, केले के बागान, पान के पत्ते, डोल जात्रा, पोइला बैसाख, सामूहिक थिएटर, परिणीता के इंतज़ार का शहर, ताश के पत्ते फेंटता शहर, बाउटी और रतन चूड़ा खनका कर भात... रान्धती, नारायणी का शहर, आम के बगीचे में पारो की चोटी खिंचता देवदास का शहर. कोलका...
हिंदोस्ता की सामुद्रिक विरासत (मैसोपोटामिया टू मुजरिस ) 

हिंदोस्ता की सामुद्रिक विरासत (मैसोपोटामिया टू मुजरिस ) 

इतिहास, ट्रैवलॉग
मंजू दिल से… भाग-15 मंजू काला सदियों से समंद हिंदुस्तान की जन-आस्थाओं के साथ पूरे परिवेश के साथ जुड़े रहे हैं. समंदर का भारतीय सभ्यता, संस्कृति, धर्म और अर्थ के क्षेत्र में विशेष स्थान रहा है. because रत्नाकर के रूप में सागर भारत भूमि को अनादिकाल से धन-धान्य से समृद्ध करते रहे हैं. सभ्यता के प्रारम्भ से लेकर आज तक भारत की जनसंख्या का एक बड़ा भाग अपने जीवन निर्वाह के लिये पूरी तरह से समुद्रों पर ही आश्रित रहा है. आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये हमने हर प्रकार से समुद्र का आशीर्वाद लिया है. मनुष्य मेरा मानना है कि समुद्र मंथन से प्राप्त रत्नों के कारण ही हमें विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता होने का गौरव प्राप्त हुआ. सदियों से हमारे पर्यावरण की रक्षा भी इन्हीं से होती रही है. because लेकिन, खेद के साथ लिखना चाहती हूँ कि हम सब समुद्र तट पर बैठ कर धरती की रेती को अपनी आभा से निहाल ...
खतरे में है मिठास

खतरे में है मिठास

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मधुमक्खी में 170 प्रकार की रासायनिक गंध को पहचानने की क्षमता होती है. इसकी खासियत यह है कि यह 6 से 15 मील प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ती हैं. जिस तरह से वन घट रहे because हैं उसका प्रभाव मधुमक्खियों पर भी पड़ा है. उनकी संख्या में निरंतर गिरावट आ रही है. मंजू काला मधुमक्खियां न केवल पौष्टिक शहद देती हैं, बल्कि हिमालय की जैव विविधता और पर्यावरण संतुलन में भी इनकी अहम भूमिका रहती है. लेकिन अब कीटनाशकों के because अंधाधुंध इस्तेमाल और जंगलों की आग ने मधुमक्खियों के जीवन के लिए संकट खड़ा कर डाला है. इसका शहद उत्पादन पर भी बुरा असर पड़ रहा है. हालात यह है कि एक समय पहाड़ में जहां 10 कुंतल शहद का उत्पादन होता था, वहां आज बड़ी मुश्किल से एक कुंतल शहद ही मिल पा रहा है. पलायन का भी शहद उत्पादन पर बड़ा असर पड़ा है! स्वरोजगार कभी कीटनाशक रसायन, कभी आसमानी ओले तो कभी भोजन की कमी के चलते मधुमक्खि...
पैठणी साड़ियों के लिए प्रसिद्ध है औरंगाबाद का पैठण

पैठणी साड़ियों के लिए प्रसिद्ध है औरंगाबाद का पैठण

ट्रैवलॉग
पोथी सागणें… मंजू दिल से… भाग-14 मंजू काला मनुष्य से आज के सुसंस्कृत मनुष्य तक की यात्रा के साथ चित्र परंपराओं की एक यात्रा समानांतर रूप से चलती है. इस समानांतर यात्रा में मानव विकास के विविध सोपानों को पढ़ा जा सकता है. because इसमें मानव मन की क्रमिक गूँज-अनुगूँज को भी सुना जा सकता है क्योंकि चित्रों में मनुष्य की तीन मूल इच्छाएँ-  सिसृक्षा, रिरंसा एवं युयुत्सा भी परिलक्षित होती हैं. मनुष्य लिखित भाषा जब अस्तित्व में नहीं आई थी, मनुष्य ने चित्रों के माध्यम से मनोभावों को अभिव्यक्त किया. भारत के उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिम तक अनेक चित्रशैलियों के because प्रमाण मिलते हैं. कुछ शैलियों ने जनजातीय-अंचलों में अपने मूल रूप को काफी हद तक अछूता रखा है, जैसे, गुजरात के राठवाओं में “पिथोरो”, उड़ीसा की साओरा जनजाति में “इटेलान” लोककला. मनुष्य ठाणे (महाराष्ट्र) (Thane...
हिंदुस्तान की कर्नाटकी…

हिंदुस्तान की कर्नाटकी…

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मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण, पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. so आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं.  नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्‍पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्‍यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है. इनकी लेखक की विभिन्न विधाओं को हम हिमांतर के माध्यम से 'मंजू दिल से...' नामक एक पूरी सीरिज अपने पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं. पेश है मंजू दिल से... की 12वीं किस्त... ...
छत्तीसगढ़ : पौराणिक काल का कौशल प्रदेश…

छत्तीसगढ़ : पौराणिक काल का कौशल प्रदेश…

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बिहाय के पकवान मंजू दिल से… भाग-11 मंजू काला भांवर परत हे, भांवर परत हे हो नोनी दुलर के, so हो नोनी दुलर के होवत हे दाई, मोर but रामे सीता के बिहाव होवत हे दाई, मोर because रामे सीता के बिहाव एक भांवर परगे, because एक भांवर परगे हो नोनी दुलर के, because हो नोनी दुलर के अगनी देवता दाई, because हाबय मोर साखी अगनी देवता दाई, because हाबय मोर साखी दुई भांवर परगे, because दुई भांवर परगे हो नोनी दुलर के, because हो नोनी दुलर के गौरी गनेस दाई, because हाबय मोर साखी गौरी गनेस दाई, because हाबय मोर साखी तीन भांवर परगे, तीन भांवर परगे हो नोनी दुलर के, because हो नोनी दुलर के देवे लोके दाई, because हाबय मोर साखी देवे लोके दाई, because हाबय मोर साखी चार भांवर परगे, चार भांवर परगे हो नोनी दुलर के, because दाई नोनी दुलर के दुलरू के नोनी, because तोर अंग झन डोलय दुलरू के नोनी...
किस्सा-ए-खिचड़ी : किस राज्‍य में कैसी खिचड़ी पक रही है!

किस्सा-ए-खिचड़ी : किस राज्‍य में कैसी खिचड़ी पक रही है!

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मंजू दिल से… भाग-10 मंजू काला “खिचड़ी के है यार चार घी, दही, पापड़ आचार” - मुल्ला नसीरुद्दीन दाल-चावल की रूहों के एकाकार होने पर रचे गए जादूई व्यंजन का नाम है खिचड़ी और आज हम खिचड़ी कैसे बनाएं पर बात न करके कुछ because और बात करते हैं. सीधी-सादी, भोली-भाली खिचड़ी जिसकी पहचान न तो पूरब से है न पश्चिम से, न उत्तर से है न दक्षिण से. इसका स्वाद हर हिंदुस्तानी के दिल पर राज करता है. खिचड़ी का इतिहास because भी बहुत पुराना है. आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के एक सर्वे में प्रमाण मिले हैं कि 1200 ईस्वी से पहले से ही भारतीय लोग दाल-चावल को मिला कर खाया करते थे. भारतीय खिचड़ी शब्द मूल रूप से संस्कृत के शब्द ‘खिच्चा’ से लिया गया है है, जिसका अर्थ है चावल और दालों को मिलाकर बनाया गया व्यंजन. because मूंग, उड़द, मसूर, अरहर दाल और चावल के अलावा साबूदाना, बाजरा और दलिया मिलाकर भी खिचड़ी ...
पायलों की कथा…

पायलों की कथा…

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मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण, पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. so आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं.  नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्‍पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्‍यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है. इनकी लेखक की विभिन्न विधाओं को हम हिमांतर के माध्यम से 'मंजू दिल से...' नामक एक पूरी सीरिज अपने पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं. पेश है मंजू दिल से... की 9वीं किस्त... ...