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चोखी ढाणी : राजस्थान की समृद्ध विरासत और रंगीली संस्कृति की झलक

चोखी ढाणी : राजस्थान की समृद्ध विरासत और रंगीली संस्कृति की झलक

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सुनीता भट्ट पैन्यूली कुछ यात्रायें किसी मनोरंजन व मन के परिवर्तन के लिए नहीं वरन अपनी  संतति के प्रति ज़िम्मेदारियों के वहन हेतु भी होती हैं.इस प्रकार की परिसीमित, निर्धारित व व्यवस्थित  यात्राओं में घुमक्कड़ी की कोई रूपरेखा या because बुनावट नहीं होती है किंतु फिर भी आनन-फानन में समय की तंगी और बोझिलता के बीच भी यदि समय हम पर कृपालु होकर स्वयं हमें सुखद क्षण दे देता है कुछ मनोरंजन के लिए तो और भी सोने पर सुहागा. ज्योतिष यदि समय का अभाव है और किसी एक राज्य से because दूसरे राज्य में विशेष काम से गये हैं तिस पर  वहां की संस्कृति को एक ही दिन में जानने की जिज्ञासा हो तो कतई संभव नहीं है उसका पूर्ण होना. ज्योतिष ख़ैर हमने ऐसी कोई परिकल्पना भी नहीं की थी because क्योंकि हमारी यात्रा औचक थी.क्या किया जाये?अनायास ही उठे हुए कदमों को जाना तो होता है मंज़िल की ओर किंतु कभी-कभी वे ठिठक भी जाते...
बहुत-सी रंग-वालियों का देश है हिन्दुस्तान

बहुत-सी रंग-वालियों का देश है हिन्दुस्तान

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मंजू दिल से… भाग-24 कृष्ण-कटिकम: जब आप ‘गीत गोविंद’ का नृत्य करते हैं, तो कृष्ण को अपने आस-पास महसूस कर  सकते हैं मंजू काला नृत्य एक ऐसी विधा है जो मनुष्य के जन्म के बाद ही शुरू हो जाती है, या यूँ कह लीजिए की ये इन्सान के जन्म के साथ ही अभिव्यक्तियाँ देना आरम्भ कर देती है.  जब कोई बच्चा धरती पर जन्म लेता है तभी वह रोकर हाथ-पैर मारकर अपनी भावाव्यक्ति करता है. उसे भूख लगती है तो वह रुदन करता है, because और माँ समझ जाती है कि बच्चा भूखा है. इन्ही आंगिक-क्रियाओं से इस रसमय कला-नृत्य की उत्त्पत्ति हुई है. यह कला देवी-देवताओं, दैत्य-दानवों, मनुष्यों एवम पशु-पक्षियों तक को प्रिय है. हमारे हिन्दुस्तान में तो यह विधा ईश्वर प्राप्ति का साधन मानी गई है, यह बात हिन्दुस्तान का हर गृहस्थ जनता है कि जब समन्दर मंथन के पश्चात  दानवों को अमरत्व प्राप्त  होने का खतरा उत्त्पन हुआ, तब भगवान विष्णु...
नदी द्वीप- माजुली और मलाई कोठानी

नदी द्वीप- माजुली और मलाई कोठानी

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मंजू दिल से… भाग-23 मंजू काला ‘एकांत कभी-कभी सबसेअच्छा समयहोता है.’ - जान मिल्टन, इन पैराडाइज़ लास्ट मिल्टन की उपरोक्त पंक्तियों को परिभाषित करती हैं जाड़ों की बोझिल और ठिठुररती शामें. इन ठिठुररती शामों के  दौरान मै बैठे-ठाले ही यात्राएँ करने लगती हूँ. असल में कुछ यात्राएँ हम रेल मार्ग से करते हैं, because कुछ सड़क मार्ग से, कुछ हवाई मार्ग से और कुछ स्मृति मार्ग से.  स्मृति के माध्यम से की जाने वाली यात्राओं का फायदा यह है कि इसके लिए कुछ खर्च नहीं करना पड़ता. सहुलियत रहती है, बस जब भी, और जहाँ भी एकांत उपलब्ध हो जाये वहीं से यात्राएँ शुरू हो सकती है. आज जब सांझ की बेला,  हाड़ कंपाती ठंडी में दांत बजाते हुए अपनी चादर समेटने की तैयारी कर रही थी कि तभी क्षितिज में डूबते  मटियाले और धुंधलाते सूरज दा ने प्यार से अपनी गर्माहट का लिहाफ मुझे ओढाया और ढकेल दिया   स्मृति की ट्रेन में. "क...
भद्रज मंदिर मानो बांज की सरणी से चमकती मणि

भद्रज मंदिर मानो बांज की सरणी से चमकती मणि

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भद्रज मंदिर: यात्रा वृत्तांत सुनीता भट्ट पैन्यूली जिज्ञासा से था आकुल मन वह मिट्टी, हुई कब तन्मय मैं, विश्वास मांगती थी प्रतिक्षण आधार पा गयी निश्चय मैं! बाधा-विरोध अनुकूल बने अंतर्चेतन अरूणोदय में, पर भूल विहंस मृदु फूल बने मैं विजयी प्रिय,तेरी जय में. -सुमित्रा नंदन पंत जिस चरम पर पहुंचकर आकांक्षाओं की पूर्ति तो हो जाती है, किंतु जिज्ञासायें नये स्वरूप में जन्म लेकर मन को और विस्मित कर देती हैं,ऐसी भावनाओं को शब्दों में कैसे अभिव्यक्त किया जाये ? जब अंतर्मन में  प्रश्न उठते हैं. हम यहां क्यों आये हैं?कौन सी अदृश्य शक्ति हमें यहां खींच लायी है? हम नहीं आते तो क्या उस सर्वशक्तिमान की अनूस्यूत सत्ता को महसूस करने से हम वंचित न रह जाते? क्यों विराजती है यह सर्वोच्चमान शक्ति मानवीय पहुंच से इतनी दूर? शायद धार्मिक यात्राओं के दौरान मानव की इस चित्तवृत्ति  हेतु कि हम कहां जा रहे है...
हरिद्वार की यात्रा बिना ऋषिकेश जाए पूरी नहीं होती…

हरिद्वार की यात्रा बिना ऋषिकेश जाए पूरी नहीं होती…

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   डॉ. कायनात काजी फोटोग्राफर, ट्रैवल राइटर और ब्लॉगर, देश की पहली सोलो फिमेल ट्रैवलर   हरिद्वार की यात्रा बिना ऋषिकेश जाए पूरी नहीं होती, आप जब भी हरिद्वार जाएं एक दिन एक्स्ट्रा लेकर जाएं जिससे ऋषिकेश भी घूम आएं. ऋषिकेश हरिद्वार से 25 किमी दूर है. because तीन दिशाओं से पहाड़ियों से घिरा, जिसके बीचों बीच से पावन नदी गंगा बहती है. इसे देवभूमि भी कहते हैं. जहां हरिद्वार लोगों से भरा हुआ लगता है जैसे वहां हमेशा एक मेला लगा हो वहीं ऋषिकेश एक शांत जगह है. हिमालय की चोटियों से निकल कर गंगा मैदानों में यहीं से प्रवेश करती है.यहीं पर लक्ष्मण झूला स्थित है. ऐसी मान्यता है कि यहां श्री लक्ष्मण जी ने कभी जूट की रस्सियों से बने झूले से गंगा नदी को पार किया था. ज्योतिष लक्ष्मण झूला करीब 1929 में बना था. because यह झूला शहर को एक सिरे से दूसरे सिरे तक जोड़ता है. इसकी लम्बाई लगभग 450 फीट औ...
शंहशाह: लक्ष्मी पूजन कर गंगा-जमुनी तहजीब की अनूठी मिसाल पेश करते थे!

शंहशाह: लक्ष्मी पूजन कर गंगा-जमुनी तहजीब की अनूठी मिसाल पेश करते थे!

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मुगलों का जश्ने-ए-चराग मंजू दिल से… भाग-22 मंजू काला “जश्ने- ए-चराग” के संदर्भ में कुछ कहने से से पहले मैं दीपावली की व्याख्या कुछ अपने अनुसार करना चाहूंगी चाहुंगी. दीपावली शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के दो शब्दों ‘दीप’ अर्थात ‘दिया’ व ‘आवली’ अर्थात ‘लाइन’ या ‘श्रृंखला’ के मिश्रण से हुई है. इसके उत्सव में घरों के द्वारों व मंदिरों पर लक्ष प्रकाश की श्रंखलाओं को because प्रज्वलित किया जाता है. गृहस्थ चाहे वह सुदूर हिमालय का हो या फिर समुद्र तट पर मछलियाँ पकड़ने वाला हो, सौदा सुलफ का इंतमजात करते हैं तो गृहवधुएं घरों की विथिकाओं और दालानों को अपने धर्म व परंम्परा के अनुसार सुंदर आलेपनों व आम्रवल्लिकाओं से सुसज्जित किया करती हैं. पहाडी़ घरों के ओबरे जहाँ उड़द की दाल के भूडो़ं से महक उठते हैं तो वहीं राजस्थानी रसोड़े में मूंगडे़ का हलवा, सांगरे की सब्जी व प्याज की कचौड़ी परोसने की तैया...
हंगरी से उत्तराखंड की विहंगम यात्रा

हंगरी से उत्तराखंड की विहंगम यात्रा

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पीटर शागि सहायक व्याख्याता, ऐल्ते विश्वविद्यालय, बुदापैश्त, हंगरी एवं ठेठ घुमक्कड़ पहाड़ है ही अलग. मेरे हंगरी से फिर तो निश्चित ही. दुना-डेन्यूब के किनारे बसे मेरे बुदापेश्त से हम लोग कुछ ऐसी ललचाई आँखों से उनकी ओर देखते हैं, जैसे दिल्ली शहर. इतने साल पहले भारत में because जब पहला लंबा समय बिताया था, मैदान के कई शहरों के अजूबों को देखने के बाद हिमालय की ओर देखा. हिमाचल और उत्तराखंड मेरे नसीबों में रहा, सचमुच यह सोचने पर देवभूमि पधारने और ऊपर वाले की बरकत मिलने की अनुभूति होती है. जब भी याद करूँ. ज्योतिष यूँ तो हंगरी के इर्द-गिर्द कारपैथ के पहाड़ हैं, ट्रांसिलवानिया (आज रोमानिया) का माहौल बहुत कुछ कुमाऊँ जैसा है और स्लोवाकिया की तात्रा शृंखला भी आपको गढ़वाल का आभास करवाएगी. because आज भी कहीं-कहीं गडरिये अपने भेड़ों के झुंड बुग्याल ले जाते हुए दिखते हैं. ऊँची-ऊँची, काली-काली, काई, खाई, ची...
क्या है रेशम मार्ग?

क्या है रेशम मार्ग?

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मंजू दिल से… भाग-21 मंजू काला वोल्गा से लेकर गंगा तक  के प्राणी ने अपनी जरूरतों के लिए हजारों मीलों का सफर तय  किया  है! कभी उसने शिकार की खोज में यात्रा की, तो  कभी आशियाने के लिए वह भटकता रहा है!  शनै-शनै जब  उसमें थोड़ी चेतना  की सुगबुगाहट हुई तो उसने  व्यापार के लिए  भी यात्राएं  आरंभ कर दी!   इन  because यात्राओं मेंअपने मवेशियों को ही उसने अपना सहचर बनाया! पुराने  समय  में कच्चे पक्के रास्तों पर चलने के लिए  पासपोर्ट और वीजा की जगह  हौसलों की जरूरत होती थी.  टेढे-  मेढे  रास्ते, मौसम की अनिश्चितता, जंगली जानवरों और लुटेरों का हर सफर करने वाले को सामना करना पड़ता था. ऐसा ही एक मार्ग हुआ करता था #रेशम_मार्ग या #सिल्क_रूट. यह मार्ग ईसा से लगभग दो सौ साल पहले से ईसा की दूसरी सदी तक बहुत फला-फूला. उस समय चीन के हान वंश का शासन हुआ करता था. चीन से मध्य एशिया होते हुए यूरोप से bec...
क्या हैं चावल से जुड़ी मान्यताएं व रस्में…

क्या हैं चावल से जुड़ी मान्यताएं व रस्में…

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देहरादून के बासमती चावल की दुनियाभर में रही है धाक! मंजू दिल से… भाग-20 मंजू काला आज धानेर खेते रोद्र छाया लुको चोरी खेला  रे भयी लुको चोरी खेला रे! (ठाकुर जी का रविंद्र संगीत) प्राचीन समय से ही भारतीय थाली में दाल और चावल परोसने की परंपरा रही है. चावल की दुनियाभर में तकरीबन चालीस हजार से ज्यादा किस्में हैं. चावल के उत्पादन में भारत दूसरे स्थान पर है. बहुत पहले विश्वभर में धान जंगली रूप में उगता था, लेकिन खुशबू तथा स्वाद के चलते चावल के किस्से मशहूर होने लगे. ढेरों किस्सों-कहानियों because से रूबरू करवाने वाले चावल की नस्लों को सहेजने के लिए फिलीपींस में एक जीन बैंक भी है. फिलीपींस का ही बनाऊ चावल खेती के लिए आठवें आश्चर्य की तरह देखा जाता है. रोचक बात यह भी है कि यहां टेरेस फॉर्मिंग जैसी जगह है, जहां समुद्र तल से 3,000 फीट की ऊंचाई पर हजारों साल पुराने खेत हैं, जहां पहाड़िय...
चंदेरी साड़ियां : मी टू, अहिल्याबाई होल्कर

चंदेरी साड़ियां : मी टू, अहिल्याबाई होल्कर

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मंजू दिल से… भाग-19 मंजू काला किसी भी भारतीय महिला की संदूकची, या अलमारी कोई ...खोजी पति... खंगालेगा (जो पत्नी के खजाने की टोह लेता हो )  तो उसे  उनमें झिलमिल करती चंदेरी साड़ियां जरूर झांकते हुए नजर आ.. जायेंगी!   मैं भी जब अपने साड़ियों के पिटारे को खोलती हूँ... (यह मेरा प्रिय शगल है! फुरसत पाते ही मैं अपना साड़ियों का  पिटारा जरूर खोलती हूँ!)  तो यही चंदेरी साड़ियां...  मंद स्मित  बिखेरते हुए मुझे मेरे विवाह के वक्त की याद दिला देती हैं मसलन. माँ और  पिताजी का मेरे विवाह की तैयारियों में संलग्न रहना, पडो़सन आंटियों का मेरी साड़ियों में फाल लगाने आना!   मेरा चोरी- चोरी  पतिदेव के चित्र को निहारना,  माँ और दादी की नजर  से छुपकर.. विवाह के लिए बनाए गए आभूषणों की आजमाईश..सखियों के साथ मिलकर करना... और हाँ माँ के साथ रिक्शा में बैठकर दर्जी के यहाँ जाना भी इसी में शामिल है! मेरी माँ...