स्मृति-शेष

हिमालय की लड़ाई अब कौन लड़ेगा!

हिमालय की लड़ाई अब कौन लड़ेगा!

स्मृति-शेष
हिमालय पुत्र पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा जी का यों चले जाना… डॉ. गिरिजा किशोर सच पूछिए तो आज हिमालय अपने हितों के लिए प्रकृति का दोहन करने वाले  आक्रांताओं से बड़ा भयभीत हैं. आज हम हिमालय के जंगलों को पत्थर, लकड़ी, लीसा के दोहन और नदियों को करोड़ों की प्यास बुझाने के लिए पानी और कल-कारखाने चलाने के लिए बिजली देने वाला यंत्र से ज्यादा कुछ नहीं मानते. सत्ता के नीति because निर्धारकों द्वारा हिमालय के जंगलों की बेतहाशा कटाई और हिमालय की नदियों में बेतहाशा बड़े-बड़े बांध बनाकर हिमालय के विनाश की पटकथा अनवरत लिखी जा रही है. परिणामत: हिमालय और हिमालय वासियों का जीवन खतरे में आ गया है. नदियां विकराल रुप धारण करती जा रही है. जंगलों के उजाड़ के कारण पहाड़ दरकने लगे हैं. गांव के गांव इस जल तांडव में विलुप्त होने लगे हैं. हिमालय और हिमालयी प्रकृति और प्रवृति  के इस दर्द को समझा हिमालय के छोट...
हिमालय पर्यावरण एवं तपोवन संस्कृति के संरक्षक थे सुन्दरलाल बहुगुणा

हिमालय पर्यावरण एवं तपोवन संस्कृति के संरक्षक थे सुन्दरलाल बहुगुणा

स्मृति-शेष
डॉ. मोहन चंद तिवारी चिपको आंदोलन के प्रणेता और हिमालय पर्यावरण के पुरोधा पद्मविभूषण श्री सुन्दर लाल बहुगुणा आज हमारे बीच नहीं रहे. 94 वर्षीय विश्व विख्यात पर्यावरणविद सुंदर लाल बहुगुणा का शुक्रवार 21 मई, 2021 को कोरोना संक्रमण के कारण निधन हो गया.उन्हें 8 मई को कोरोना संक्रमित होने के because बाद एम्स में भर्ती कराया गया था,जहां शुक्रवार को उन्होंने अंतिम सांस ली.  राजकीय सम्मान के साथ ऋषिकेश के पूर्णानंद घाट पर श्रीसुन्दरलाल बहुगुणा जी का अंतिम संस्कार किया गया.उनके बेटे राजीव नयन बहुगुणा ने नम आंखों से पिता को मुखाग्नि दी. सिद्धांतों पर चलते हिमालय पर्यावरण और वन संरक्षण के प्रति अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित करने वाले इस महामनीषी के निधन की खबर सुनते ही समूचे देश में शोक की लहर उमड़ पड़ी. चिपको because आंदोलन का नेतृत्व करने वाले वृक्षमित्र सुंदरलाल बहुगुणा जल,जंगल, जमीन और वायु को म...
धरती के सच्चे पुत्र सुंदरलाल बहुगुणा पंचतत्व में हुए विलीन

धरती के सच्चे पुत्र सुंदरलाल बहुगुणा पंचतत्व में हुए विलीन

स्मृति-शेष
प्रकाश उप्रेती   उत्तराखंड के इतिहास और भूगोल की समझ के साथ जो चेतना विकसित हुई उसमें महत्वपूर्ण भूमिका सुंदरलाल बहुगुणा जी की रही. पहाड़ की चेतना में सुंदरलाल बहुगुणा पर्यावरणविद् से पहले एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भी विद्यमान थे. टिहरी में जहाँ उनका जन्म हुआ उस रियासत से लड़ते हुए उन्होंने जनता को संगठित कर उसके because हक़-हकूक के लिए लड़ना और बोलना सिखाया. जिस राजशाही और रियासत के खिलाफ कोई बोल नहीं सकता था उसके दमन और अत्याचार को उजागर करने वाले शख्सियत सुंदरलाल बहुगुणा थे. उन्होंने टिहरी रियासत के शोषण से लेकर अंग्रजों के जोर- जुल्म के खिलाफ भी पहाड़ की आवाज को मुखर किया. सूर्य देव सत्तर के दशक में जब पहाड़ के जंगलों को नीलाम कर बड़ी- बड़ी कंपनियों को दिया जा रहा था तो उन जंगलों की पुकार वह शख्स था जो आज हमारे बीच नहीं रहा. मिट्टी, बयार, because जंगल, जल और जीवन के लिए लड़ते हुए, उस...
सुन्दरलाल बहुगुणा: एक युग का अवसान

सुन्दरलाल बहुगुणा: एक युग का अवसान

स्मृति-शेष
चारु तिवारी उनका नाम हम बचपन से ही सुनते रहे थे. मैं समझता हूं कि हमारी पीढ़ी ने उन्हें एक आइकन के रूप में देखा. कई संदर्भो में. कई पड़ावों में. उन्हें भले ही एक पर्यावरणविद के रूप में लोगों ने पहचाना हो, लेकिन उनका सामाजिक, राजनीतिक चेतना में भी बड़ा योगदान रहा है. पर्यावरण को बचाने की अलख या हिमालय के because हिफाजत के सवाल तो ज्यादा मुखर सत्तर-अस्सी के दशक में हुये. ये सवाल हालांकि अंग्रेजों के दमनकारी जंगलात कानूनों और लगान को लेकर आजादी के दौर में भी उठते रहे है, लेकिन उन्हें बहुत संगठित और व्यावहारिक रूप से जनता को समझाने और अपने हकों को पाने के लिये उसमें शामिल होने का रास्ता उन्होंने दिखाया. मूलांक आजादी के आंदोलन में पहाड़ से बाहर उनकी भूमिका लाहौर-दिल्ली तक रही. टिहरी रियासत की दमनकारी नीति के खिलाफ उन्होंने आवाज उठाई. एक दौर में उत्तराखंड की कोई हलचल ऐसी नहीं थी, जिसमें उनकी केन्...
हिमालयी प्रहरी थे राजेन्द्र धस्माना

हिमालयी प्रहरी थे राजेन्द्र धस्माना

स्मृति-शेष
पुण्यतिथि पर स्मरण चारु तिवारी उम्र का बड़ा फासला होने के बावजूद वे हमेशा अपने साथी जैसे लगते थे. उन्होंने कभी इस फासले का अहसास ही नहीं होने दिया. पहाड़ के कई कोनों में हम साथ रहे. एक बार हम उत्तरकाशी साथ गये. रवांई घाटी में. भाई शशि मोहन रवांल्टा के निमंत्रण पर. पर्यावरण दिवस पर उन्होंने एक आयोजन किया था नौगांव में. हमारे साथ बड़े भाई और कांग्रेस के नेता पूर्व मंत्री किशोर उपाध्याय भी थे. because रास्ते भर उन्होंने यमुना घाटी के बहुत सारे किस्से सुनाये. उन्होंने यमुना पुल की मच्छी-भात के बारे में बताया. खाते-खाते मछली के कई प्रकार और उसे बनाने की विधि भी बताते रहे. यहां की कई ऐतिहासिक बातें, लोकगाथाओं, लोककथाओं एवं लोकगीतों के माध्यम से कई अनुछुये पहलुओं के बारे में बताते रहे. टिहरी एक बार हम लोग टिहरी जा रहे थे. श्रीदेव सुमन की जयन्ती पर. यह आयोजन मैंने ही किया था. टिहरी के प...
‘जाति की जड़ता जाये तो उसके जाने का जश्न मनायें’

‘जाति की जड़ता जाये तो उसके जाने का जश्न मनायें’

स्मृति-शेष
बलदेव सिंह आर्य:  जन्मदिन (12 मई) पर विशेष डॉ. अरुण कुकसाल उत्तराखंड के शिल्पकार वर्ग में सामाजिक-शैक्षिक चेतना के अग्रदूत बलदेव सिंह आर्य (12 मई, 1912 से 22 दिसम्बर, 1992) का आज जन्मदिन है. सन् 1930 में 18 वर्ष की किशोरावस्था में निरंकुश बिट्रिश सत्ता का सार्वजनिक विरोध करके 18 महीने की जेल को सर्हष स्वीकार करना उनके अदम्य साहस और दीर्घगामी सोच because का ही परिणाम था. उन्होने ‘डोला पालकी आन्दोलन’ में भाग लेकर भेदभावपूर्ण तत्कालीन सामाजिक परम्परा को खुली चुनौती दी थी. सन् 1942 में उनके संपादन में तैयार ‘सवाल डोला पालकी’ रिपोर्ट देश भर में चर्चित हुई थी. इस रिर्पोट से प्रेरणा लेकर उस दौर में देश के अन्य क्षेत्रों और समुदायों के आम लोगों ने सामाजिक पक्षपात के विरुद्ध आवाज उठाई थी. कुशल राजनीतिज्ञ देश के स्वाधीन होने के बाद एक कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में उनकी ख्याति रही है. उत्तरा...
कुमाऊंनी दुदबोलि को सांस्कृतिक पहचान से जोड़ा मथुरादत्त मठपाल ने

कुमाऊंनी दुदबोलि को सांस्कृतिक पहचान से जोड़ा मथुरादत्त मठपाल ने

स्मृति-शेष
श्रद्धांजलि लेख डॉ. मोहन चंद तिवारी उदेख भरी ह्यूं- हिंगवन संग करछी गुणमुण छीड़ा जौपन. निल अगास’क छैल कैं नित, भरनै रौछीं बादो जौपन.. सल्ल बोटन में सुसाट पाड़नै चलछी मादक पौन जती. रतन भरी ढै-डुडण्रा छी, ढै़-डुडण्रा भरी छी सकल मही, बसी हिमांचल’क आंचव में छी, मयर घर लै यती कईं.. बहुत दुःख के साथ कहना पड़ता है कि उपर्युक्त पंक्तियों के लेखक हिमालय के आंचल में सदा जीने वाले,हिमालय के नीले आकाश की बदलियों और वहां नदियों के सुसाट को सुनने वाले, कुमाऊंनी साहित्य को समय की धार देने वाले साहित्य अकादमी  पुरस्कार से सम्मानित सहृदय साहित्यकार मथुरादत्त मठपाल जी आज आज हमारे बीच नहीं रहे. अभी पिछले साल ही मैंने इन पंक्तियों के माध्यम से, 29 जून, 2020 को अपने इस वरिष्ठ साहित्यकार का 80वां जन्मदिन मनाया था. तब पता नहीं था कि कुमाऊंनी साहित्य को सांस्कृतिक पहचान से जोड़ने वाले इस यशस्वी सा...
साहित्य के निकष ‘अज्ञेय’

साहित्य के निकष ‘अज्ञेय’

स्मृति-शेष
अज्ञेय के जन्म दिवस पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र रवि बाबू ने 1905 में एकला चलो की गुहार लगाई थी कि मन में विश्वास हो तो कोई साथ आए न आए चल पड़ो चाहे , खुद को ही समिधा क्यों न बनाना पड़े - जोदि तोर दक केउ शुने ना एसे तबे एकला चलो रे । हिंदी के कवि , उपन्यासकार , सम्पादक , प्राध्यापक , अनुवादक , सांस्कृतिक यात्री , और क्रांतिकारी सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन के लिए जिस ‘ अज्ञेय ‘ उपनाम को बिना पूर्वापर सोचे जैनेंद्र जी द्वारा अचानक चला दिया गया वह इनके पहचान का स्थायी अंग बन गया या बना दिया गया । प्रेमचंद जी द्वारा ‘ जागरण ‘ में प्रकाशित कहानी के लेखक के रूप में अज्ञेय नाम दिए जाने के बाद उसे हिंदी के अनेक साहित्यकारों द्वारा उसे एक विभाजक और एक क़िस्म के अनबूझ आवरण रूप में ग्रहण कर लिया गया और प्रचारित भी किया गया । यह अलग बात है कि उस आकस्मिक नामकरण ने वात्स्यायन जी के लिए जीवन ...
धर्म को आडम्बरों से मुक्त करने वाले परमहंस

धर्म को आडम्बरों से मुक्त करने वाले परमहंस

स्मृति-शेष
श्रीरामचन्द्र दास की जन्मजयंती पर विशेष  डॉ. मोहन चंद तिवारी "धार्मिक मूल्यों के इस विप्लवकारी युग में जिस तरह से परमहंस श्री रामचन्द्रदास जी महाराज ने अपने त्याग और तपस्या के आदर्श मूल्यों से समाज का सही दिशा में मार्गदर्शन किया because तथा धार्मिक सहिष्णुता एवं कौमी एकता का प्रोत्साहन करते हुए श्री रामानन्द सम्प्रदाय की धर्मध्वजा को ही नहीं फहराया बल्कि देश के सभी धार्मिक सम्प्रदायों के मध्य सौहार्द एवं सामाजिक समरसता की भावना को भी मजबूत किया. उसी का परिणाम है कि आज देश में संतों के प्रति श्रद्धा और विश्वास की भावना जीवित है." -श्री बलराम दास हठयोगी, प्रवक्ता, ‘अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद्’ उत्तराखंड 3 मार्च को परमहंस श्री रामचन्द्रदास जी महाराज की 78वीं  जन्म जयंती है. उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा जिले में द्वाराहाट स्थित ‘भासी’ नामक गांव में माता मालती देवी और पिता because बचीराम सती ज...
दर्द में डूबी नज्म

दर्द में डूबी नज्म

स्मृति-शेष
डॉ. कुसुम जोशी नन्ही-सी हेमसुन्दरी  के समझ में नही आ रहा था कि घर में ये गहमागहमी, इतना झमेला, भारी कामदार रंगबिरंगी साड़ियों की सरसराहट, श्रृगांर.  घर में भीड़ भीड़, because उलूक ध्वनि, अभी तो उसे पढ़ना था. जब भी बाबा, दादा, काका मिलते बड़ी-बड़ी बातें होती, बाल विवाह का विरोध. स्त्री शिक्षा की अनिवार्यता पर बातें होती, विधवा विवाह, सति प्रथा व धर्म की अव्यवहारिक परम्परा का विरोध. पर मेरी उम्र भी नही देखी, मुझे तो अभी पढ़ना था. so और मुखर्जी बाबू का बेटा जदुनंदन मुखर्जी भी तो अभी ज्यादा बड़ा नही, अभी तो पढ़ रहा है? कितने प्रश्न थे हेम के मन में. हेमसुन्दरी के पिता ने प्रेम विवाह किसी पारसी थियेटर  (क्या हेमसुन्दरी के पिता ने प्रेम but विवाह किसी पारसी थियेटर में काम करने वाली सुन्दरी से किया था? जो उनका परिवार उनकी बेटी का विवाह आनन फानन में कर देना चाहता था.) विरोध दर्ज करवाया था उ...