संस्मरण

शहर में मिले गांधी जी और देश में मिले प्रेमचंद!

शहर में मिले गांधी जी और देश में मिले प्रेमचंद!

संस्मरण
बुदापैश्त डायरी-10 डॉ. विजया सती बुदापैश्त में गांधी ज्योतिष  गांधी जहां कहीं भी हों, उस because जगह जाना, उनके साथ पल भर को ही सही, बस होना मुझे प्रिय है. और गांधी विश्व में कहां नहीं? तो because बुदापैश्त में भी मिले. .. गैलर्ट हिल पर ! इस नन्हीं खूबसूरत पहाड़ी because पर है- गार्डन ऑफ़ फिलॉसफी या फिलॉसफर्स गार्डन ! ज्योतिष यहाँ धातु और ग्रेनाईट से because बनी कई प्रतिमाएं स्थापित हैं. शानदार हैं प्रवेश द्वार because पर लिखी पंक्तियां .. For a better understanding of one another. आप मानें या न मानें ..दरकार तो यही है आज ! ज्योतिष विश्व की विभिन्न संस्कृतियों because और धर्म की प्रतीक आकृतियाँ यहाँ एक गोलाकार में संजोई गई हैं, धातु की पांच मुख्य आकृतियाँ हैं - इब्राहिम, अखनातेन, ईसा मसीह, बुद्ध और लाओत्से की. कला के माध्यम से सहनशीलता because और शांतिपूर्ण सहस्तित्व...
गुड़ की भेलि में लिपटे अखबार का एक दिन

गुड़ की भेलि में लिपटे अखबार का एक दिन

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—44 प्रकाश उप्रेती आज किस्सा- “ईजा और अखबार” का.  ईजा अपने जमाने की पाँच क्लास पढ़ी हुई हैं. वह भी बिना एक वर्ष नागा किए. जब भी पढ़ाई-लिखाई की बात आती है तो ईजा 'अपने जमाने' because वाली बात को दोहरा ही देती हैं. हम भी कई बार गुणा-भाग और जोड़-घटाने में ईजा से भिड़ पड़ते थे लेकिन ईजा चूल्हे से “कोय्ली” (कोयला) निकाल कर जमीन में लिख कर जोड़-घटा, गुणा-भाग तुरंत कर लेती थीं. अक्सर सही करने के बाद ईजा की खुशी किसी अबोध शिशु सी होती थी. हम कहते थे- “क्या बात ईजा, एकदम सही किया है”. ईजा फिर अपने जमाने की पढ़ाई वाली बात दोहरा देती थीं. ज्योतिष तब अखबार से कोई लेना-देना नहीं था. अक्सर “गुड़ की भेली” अखबार में लपेट कर आती थी. इतना ही अखबार की उपयोगिता ईजा समझती थी लेकिन जब भी शाम को केदार के बाज़ार because जाते थे तो देखते थे कि कुछ लोग चाय पी रहे होते, कुछ हुक्का ...
‘वड’ झगडै जड़

‘वड’ झगडै जड़

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—43 प्रकाश उप्रेती आज बात “वड” की. एक सामान्य सा पत्थर जब दो खेतों की सीमा निर्धारित करता है तो विशिष्ट हो जाता है. 'सीमा' का पत्थर हर भूगोल में खास होता है. ईजा तो पहले से कहती थीं कि-because “वड झगडै जड़” (वड झगड़े का कारण). 'वड' उस पत्थर को कहते हैं जो हमारे यहाँ दो अलग-अलग लोगों के खेतों की सीमा तय करता है. सीमा विवाद हर जगह है लेकिन अपने यहाँ 'वड' विवाद होता है. पहाड़ में वाद-विवाद और 'घता-मघता' (देवता को साक्षी मानकर किसी का बुरा चाहना) का एक कारण 'वड' भी होता था. ईजा के जीवन में भी वड का पत्थर किसी न किसी रूप में दख़ल देता था . ज्योतिष जब भी परिवार में भाई लोग “न्यार” (भाइयों के बीच बंटवारा) होते थे तो जमीन के बंटवारे में, वड से ही तय होता था कि इधर को तेरा, उधर को मेरा. 'पंच', खेत को नापकर बीच because में वड रख देते थे. यहीं से तय हो जाता था...
प्राकृतिक आपदाओं से कराहते लोग…

प्राकृतिक आपदाओं से कराहते लोग…

संस्मरण
बंगाण क्षेत्र की आपदा का एक वर्ष… लोगों का दर्द और मेरे पैरों के छाले… आशिता डोभाल बंगाण क्षेत्र का नाम सुनते ही मानो दिल और दिमाग पल भर के लिए थम से जाते हैं  क्योंकि बचपन से लेकर आजतक न जाने कितनी कहानियां, दंत कथाएं वहां के सांस्कृतिक और धार्मिक परिवेश पर सुनी हैं, बस अगर कहीं कमी थी, तो वो ये कि वहां की सुन्दरता और सम्पन्नता को देखने का मौका नहीं मिल पा रहा था जो सौभाग्यवश इस भ्रमण के दौरान देखने को भी मिल गया था. विगत वर्ष दिनांक 17.08.19 व 18.08.19 को बारिश के कहर से पूरी बगांण वैली का तबाह होना या यूं कहें कि एक पूरी सभ्यता की रोजी-रोटी (स्वरोजगार) के साधनों का तबाह होना किसी भी सभ्यता के लिए अच्छे संकेत तो बिल्कूल भी नहीं थे, साधन विहीन हो चुकी बगांण वैली इस वेदना से गुजर रही थी, जिसकी चीख-पुकार सुनने वाला कोई नहीं था. आसमान का कहर उनका इतने कम समय में सब कुछ खत्म कर देगा,...
बुदापैश्त में गुरुदेव स्मृति

बुदापैश्त में गुरुदेव स्मृति

संस्मरण
बुदापैश्त डायरी-9 डॉ. विजया सती गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर को because मई माह के आरम्भ से अगस्त तक कई रूपों में याद किया गया. बुदापैश्त से मेरे मन की भी यह एक मधुर स्मृति ! ज्योतिष बुदापैश्त में मार्च महीने के because अंतिम सप्ताह में सामान्यत: ऐसा मौसम नहीं होता था. किन्तु उस दिन अप्रत्याशित because रूप से सुखद हल्की ठंडक लिए धीरे-धीरे बहती ठंडी हवा और चमकती धूप ने शहर के पूरे वातावरण को खुशनुमा बना दिया था. ज्योतिष इस प्रिय माहौल में संपन्न एक सार्थक आयोजन की स्मृतियाँ अब भी उतनी ही जीवंत बनी हुई हैं. भारतीय दूतावास, यहाँ के प्रसिद्ध एत्वोश लोरांद विश्वविद्यालय और दिल्ली स्थित because भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद के संयुक्त प्रयासों से एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठी विश्वविद्यालय के प्रांगण में हुई जो बंगाल और भारत से बाहर  गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रति एक सामयिक स...
करछी में अंगार

करछी में अंगार

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—16 रेखा उप्रेती कुछ अजीब-सा शीर्षक है न… नहीं, यह कोई मुहावरा नहीं, एक दृश्य है जो कभी-कभी स्मृतियों की संदूकची से बाहर झाँकता है… पीतल की करछी में कोयले का अंगार ले जाती रघु की ईजा… जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाती… अपने घर की ओर जाती ढलान पर उतर रही है, बहुत सम्हल कर… कि करछी से अंगार गिरे भी नहीं और बुझे भी नहीं. चूल्हा कैसे जलेगा वरना… तीस-चालीस साल पहले जो पहाड़ में रह चुके हैं या बचपन पहाड़ों में बिताया है, उनके लिए यह दृश्य अपरिचित नहीं होगा. चूल्हे में आग बचाकर रखना या ज़रुरत पड़ने पर दूसरे घरों से आग जलाने के लिए जलता कोयला ले जाना, उस वक़्त की ज़रुरत भी थी और सीमित संसाधनों के बीच एक ऐसी जीवन-शैली का उदाहरण भी, जहाँ मामूली से मामूली वस्तु भी ‘यूज़ एंड थ्रो’ की ‘कैटेगरी’ में नहीं थी. मुझे याद है सुबह का भोजन बन जाने के बाद अधजली लकड़ियों को बुझा कर अलग रख दिया ज...
पहाड़ों में ‘छन’ की अपनी दुनिया

पहाड़ों में ‘छन’ की अपनी दुनिया

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—42 प्रकाश उप्रेती आज बात "छन" की. छन मतलब गाय-भैंस का घर. छन के बिना घर नहीं और घर के बिना छन नहीं.  पहाड़ में घर बनाने के साथ ही छन बनाने की भी हसरत होती थी. एक अदत छन की इच्छा हर कोई पाले रहता है. ईजा को घर से ज्यादा छन ही अच्छा लगता है. उन्हें बैठना भी हो तो छन के पास जाकर बैठती हैं. छन की पूरी संरचना ही विशिष्ट थी. ईजा के लिए छन एक दुनिया थी जिसमें गाय-भैंस से लेकर 'किल' (गाय-भैंस बांधने वाला), 'ज्योड़' (रस्सी), 'अड़ी' (दरवाजे और बाउंड्री पर लगाने वाली लकड़ी) 'मोअ' (गोबर), 'कुटो'(कुदाल), 'दाथुल' (दरांती),  'डाल' (डलिया), 'फॉट' (घास लाने वाला),  'लठ' (लाठी), 'सिकोड़' (पतली छड़ी) और 'घा' (घास) आदि थे. इन्हीं में ईजा खुश रहती थीं. हम कम ही छनपन जाते थे लेकिन ईजा कभी-कुछ, कभी-कुछ के लिए चक्कर लगाती ही रहती थीं. हमें 'किल घेंटने' के लिए जरूर कहती थीं- "...
‘हे दरी हिमाला दरी ताछुम’

‘हे दरी हिमाला दरी ताछुम’

संस्मरण
डॉ. अमिता प्रकाश “हे दरी हिमाला दरी ताछुम-ताछुमा-छुम. दरी का ऐंगी सौदेर दरी ताछुम-ताछुमा-छुम”.. हाथों से एक दूसरे की बाँह पकड़कर घेरे में गोल-गोल घूमकर दो कदम आगे बढ़ाते हुए धम्म से कूदती हुई लड़कियों को देखकर छज्जे में बैठी मेरी नानी, मामी और दूसरी लड़कियों की दादी, बोडी (ताई), काकी (चाची) की टिप्पणियाँ हमें उस समय बहुत चिढ़ाती थीं, क्योंकि अक्सर वह अपने खेलों की तुलना हमारे खेलों से करती हुई हमें कमतर ही घोषित करतीं, हर पुरानी पीढ़ी की तरह यह कहते हुए कि “हमर जमाना म त इन्न नि होंदु छौ, या इन होंदु छौ” (हमारे जमाने में तो ऐसा होता था या ऐसा नही होता था.) और हम नयी पंख निकली चिड़ियाओं जैसे उत्साह में उनका मुँह चिढ़ातीं अक्सर कह उठतीं “अपड़ जमने र्छुइं तुम अफिम रैण द्यावा... हमल त इन्नी ख्यलण” (अपने जमाने की बातें तुम अपने ही पास ही रहने दो, हम तो ऐसी ही खेलेंगे). पीढ़ी के अंतर से उपजी यह मतभिन...
कंकट सिर्फ लकड़ी नहीं बल्कि पहाड़ की विरासत का औज़ार है

कंकट सिर्फ लकड़ी नहीं बल्कि पहाड़ की विरासत का औज़ार है

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—41 प्रकाश उप्रेती पहाड़ जरूरत और पूर्ति के मामले में हमेशा से उदार रहे हैं. वहाँ हर चीज की निर्मिति उसकी जरूरत के हिसाब से हो जाती है. आज जरूरत के हिसाब से इसी निर्मिति पर बात करते हैं. because यह -"कंकट" है. इसका शाब्दिक अर्थ हुआ काँटा, काटने वाला. वैसे 'कंकट' मतलब जरूरत के हिसाब से तैयार वह हथियार जिसे काँटे वाली झाड़ियाँ काटते हुए प्रयोग किया जाता था. कुछ-कुछ गुलेल की तरह का यह हथियार झाड़ियाँ काटते हुए "बड्याट" (बडी दरांती) का हमराही होता था. दोनों की संगत ही आपको काँटों से बचा सकती थी. इनकी संगत के बड़े किस्से हैं. ज्योतिष कंकट बहुत लंबा नहीं होता था. एक हाथ भर का ही बनाया जाता था. ईजा कुछ छोटे और कुछ बड़े बनाकर रखे रहती थीं. because रखने की जगह या तो 'छन' की छत होती थी या फिर जहाँ सभी छोटी-बड़ी दराँती रखी रहती थीं, वहाँ होती थी. अमूमन तो सूखी लक...
अब कौन ‘नटार’ से डरता है…

अब कौन ‘नटार’ से डरता है…

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—40 प्रकाश उप्रेती पहाड़ में खेती हो न हो लेकिन "नटार" हर खेत में होता था. "नटार" मतलब खेत से चिड़ियों को भगाने के लिए बनाया जाने वाला ढाँचा सा. तब खेतों में जानवरों से ज्यादा चिड़ियाँ because आती थीं. एक -दो नहीं बल्कि पूरा दल ही आता था. झुंगर, मंडुवा, तिल, गेहूं, जौ, सरसों और धान सबको सफाचट कर जाते थे. कई बार तो उनके दल को देखकर ईजा हा...हा ऊपर से बोल देती थीं लेकिन तब चिड़ियाँ निडर हुआ करती थीं. दूर भागने की जगह वो निर्भीक होकर दाने चुगती रहती थीं. ज्योतिष खेत में बीज बोने के बाद ईजा की दो प्रमुख चिंताएं होती थीं: एक 'बाड़' करना और दूसरा "नटार" लगाना. बाड़, पशुओं के लिए और नटार, चिड़ियों के लिए. बाड़ के लिए ईजा '"रम्भास" (एक पेड़) और अन्य लकड़ियां लेकर आती थीं. सम्बल से उन्हें 'घेंटने' के बाद लम्बी लकड़ियों को सीधा और छोटी लकड़ियों को आड़ा- because तिरछा ल...