संस्मरण

जागर, बूबू और मैं

जागर, बूबू और मैं

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—49 प्रकाश उप्रेती आस्था, विश्वास का केंद्र बिंदु है. पहाड़ के लोगों की आस्था कई तरह के विश्वासों पर टिकी रहती है. ये विश्वास जीवन में नमक की तरह घुले होते हैं. ऐसा ही "जागर" को लेकर भी है. because "जागर" आस्था के साथ-साथ सांस्कृतिक धरोहर भी है. 'हुडुक' सिर्फ देवता अवतार करने का वाद्ययंत्र नहीं है बल्कि पहाड़ की सांस्कृतिक पहचान का अटूट अंग है. आज इसी 'जागेरी', 'हुडुक' के साथ मैं, और 'बुबू' (दादा). जागरी बुबू जागरी लगाते थे और मैं उनके सानिध्य में सीख रहा था. ईजा को मेरा जागरी लगाना पसंद नहीं था. तब 'जगरी' (जागेरी लगाने वाला) को लेकर समाज में एक सम्मान का भाव तो था लेकिन दूसरों की हाय, पाप, और गाली खाने की गुंजाइश भी हमेशा रहती थी. ईजा को लगता था कि बेटे का भविष्य 'जगरी' बन जाने से तबाह हो जाएगा. but उनको मेरा शहर में पढ़ना या बर्तन धोना मंजूर था ...
‘एक अध्यापक की कोशिश और कशिश की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति’

‘एक अध्यापक की कोशिश और कशिश की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति’

संस्मरण
डॉ. अरुण कुकसाल जीवन के पहले अध्यापक को भला कौन भूल सकता है. अध्यापकों में वह अग्रणी है. शिक्षा और शिक्षक के प्रति बालसुलभ अवधारणा की पहली खिड़की वही खोलता है. जाहिर है एक जिम्मेदार और दूरदर्शी पहला अध्यापक बच्चे की जीवन दिशा में हमेशा मार्गदर्शी रहता है. चंगीज आइत्मातोव का विश्व चर्चित उपन्यास ‘पहला अध्यापक’ का नायक इसी भूमिका में है. यह उपन्यास जड़ समाज को जीवंतता की ओर ले जाने वाले एक अध्यापक की कोशिश और कशिश की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति है. ‘पहला अध्यापक’ उपन्यास 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक में सोवियत संघ के किरगीजिया पहाड़ी इलाके के कुरकुरेव गांव की सच्ची घटनाओं से शुरू होता है. उपन्यास के सभी पात्रों ने वही जीवन जिया जो उपन्यास में है. चंगीज आइत्मातोव ने केवल उनके जीवन की बातों और घटनाओं को साहित्यिक प्रवाह दिया है. ‘पहला अध्यापक’ उपन्यास 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक में सोवियत संघ...
 जहां विश्वास है, वहां प्यार है!

 जहां विश्वास है, वहां प्यार है!

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बुदापैश्त डायरी-12 डॉ. विजया सती विदेश में हम अपनी भाषा भी पढ़ाते हैं और अपने देश से भी परिचित कराते हैं – क्योंकि आखिरकार तो देश की पूरी तस्वीर देनी है हमें ! जैसे हमारा अध्यापन अपने देश के परिचय से जुड़ा रहता है, because उसी तरह दूसरे देश का पूर्ण परिचय भी हमारा लक्ष्य होता है. बहुत सी बातें दोनों देशों में समान–असमान होकर भी एक-दूसरे से जुड़ने में मदद करती हैं. जैसे हमारे देश की खासियतें वैसे ही हंगरी की भी. तो हंगरी की कहानी कुछ खासियतों के उल्लेख बिना अधूरी रहेगी .. ज्योतिष बुदापैश्त के पास ही है सेंत ऐंद्रे ...पर्वतों से घिरा, नदी किनारे का शांत प्रांत, जहां पथरीली पतली पत्थर गलियाँ हैं, कलाकारों की बस्ती है, कलावीथियां और संग्रहालय हैं. यहाँ पहुँचने के लिए because नदी के रास्ते या ट्रेन सेखूबसूरत सफ़र करते हैं, यहां ऐतिहासिक इमारतें, चर्च और रंग भरे बाज़ार हैं ! अपने देश से...
‘सरूली’ जो अब नहीं रही

‘सरूली’ जो अब नहीं रही

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मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—48 प्रकाश उप्रेती अविष्कार, आवश्यकता की उपज है. इस उपज का इस्तेमाल मनुष्य पर निर्भर करता है. पहाड़ के लोगों की निर्भरता उनके संसाधनों पर है. आज अविष्कार और आवश्यकता की उपज “थेऊ” because और “सरूली” की बात. 'थेऊ' पहाड़ के जीवन का अनिवार्य हिस्सा है. खासकर गाय-भैंस पालने वाले लोगों के लिए तो इसका जीवनदायिनी महत्व है. ईजा के 'छन' का तो यह, महत्वपूर्ण सदस्य था. ज्योतिष 'थेऊ' मतलब लकड़ी का एक ऐसा because प्याऊ जिसके जरिए नवजात बछड़े और 'थोरी' (भैंस की बच्ची) को दूध व तेल पिलाया जाता था. बांस की लकड़ी का बना यह प्याऊ अपनी लंबाई और गहराई में छोटा-बड़ा होता था. अंदर से खोखला और आगे से तराश कर पतला व  थोड़ा समतल बनाया जाता था ताकि तेल- दूध गिरे भी न और थोरी के मुँह में भी आ जाए. ज्योतिष ईजा का 'गुठयार' (गाय-भैंस बांधने वाली जगह) भैंस के बिना कभी नहीं रहा. ईज...
अंतरावलोकन

अंतरावलोकन

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संस्मरण : स्कूल की यादें सुनीता अग्रवाल आप चाहे उम्र के जिस पड़ाव पर खड़े हो इनसे आपका संवाद किसी न किसी रूप में चलता रहता है. आज अपने मन की भीतरी तहों तक जाकर अपने उन  संवादों को शब्द देने की कोशिश कर रही हूं जिनकी यादें आवाज़ें बनकर बड़ी ही स्पष्टता से साधिकार मेरे मनमस्तिष्क में चहल कदमी करती रही है. ईमानदारी किसी भी बात को कहने की पहली शर्त होती है अब उसका जो भी अर्थ निकले वो पढ़ने वाले की संवेदना पर निर्भर करता है. स्कूल के उस सुरम्य प्रांगण में प्रवेश करते हुए बड़ी ही सहजता से अपना बोला हुआ एक झूठ याद आ रहा है जिसकी टीस मुझे काफी वक़्त तक सालती रही थी आज उसी अहसास को आप सबसे सांझा कर रही हूँ. किस्सा है क्लास 9वीं के लाइब्रेरी रूम का.... जहां हमको छुट्टी के बाद फिजिकल एजुकेशन की एक्स्ट्रा क्लास के लिए रुकना था. उस वक़्त फिजिकल एजुकेशन  की एक्स्ट्रा क्लास को लेकर मेरे साथ साथ कई और ...
इनसे खेत आबाद रहे, हमसे जो बर्बाद हुए

इनसे खेत आबाद रहे, हमसे जो बर्बाद हुए

संस्मरण
प्रकाश उप्रेती मूलत: उत्तराखंड के कुमाऊँ से हैं. पहाड़ों में इनका बचपन गुजरा है, उसके बाद पढ़ाई पूरी करने व करियर बनाने की दौड़ में शामिल होने दिल्ली जैसे महानगर की ओर रुख़ करते हैं. पहाड़ से निकलते जरूर हैं लेकिन पहाड़ इनमें हमेशा बसा रहता है। शहरों की भाग-दौड़ और कोलाहल के बीच इनमें ठेठ पहाड़ी पन व मन बरकरार है. यायावर प्रवृति के प्रकाश उप्रेती वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। कोरोना because महामारी के कारण हुए ‘लॉक डाउन’ ने सभी को ‘वर्क फ्राम होम’ के लिए विवश किया। इस दौरान कई पाँव अपने गांवों की तरफ चल दिए तो कुछ काम की वजह से महानगरों में ही रह गए. ऐसे ही प्रकाश उप्रेती जब गांव नहीं जा पाए तो स्मृतियों के सहारे पहाड़ के तजुर्बों को शब्द चित्र का रूप दे रहे हैं। इनकी स्मृतियों का पहाड़ #मेरे #हिस्से #और #किस्से #का #पहाड़ नाम से पूरी एक सीरीज में दर्ज़ है। श्रृंखला, पहाड़ और वहाँ क...
राष्ट्र नायक

राष्ट्र नायक

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बुदापैश्त डायरी-11 डॉ. विजया सती बुदापैश्त में रहते हुए हमने जाना कि 15 मार्च हंगरी के इतिहास में एक विशेष दिन है. यह 1948 की क्रान्ति की स्मृति में मनाया जाने वाला राष्ट्रीय दिवस है. इस क्रान्ति के प्रमुख because व्यक्तित्व के रूप में पेतोफ़ी शांदोर को याद किया जाता है. हंगरी की क्रान्ति और आज़ादी के इतिहास में पेतोफ़ी शांदोर का नाम बहुत आदर के साथ लिया जाता है. पेतोफ़ी राष्ट्रीय  कवि  माने जाते हैं और हंगरी की उस राष्ट्रीय कविता के जनक भी जिसने क्रान्ति को प्रेरित किया, वह कविता जिसका स्वर है – उठो हंगरीवासियों! हम अब और अधिक गुलाम न रहेंगे. कवि पेतोफ़ी शांदोर ज्योतिष पेतोफ़ी शांदोर का लैटिन नाम अलेक्सांद्र पेत्रोविच है. दरअसल अलेक्सांद्र का हंगेरियन रूपांतर शांदोर है. साधारण ग्रामीण पिता और सेविका तथा धुलाई का काम करने वाली मां  की संतान शांदोर के लिए वह पल कठिन था जब एक पारिवा...
एक ऐसा पहाड़ जो हर तीसरे साल लेता है ‌मनुष्यों की बलि!

एक ऐसा पहाड़ जो हर तीसरे साल लेता है ‌मनुष्यों की बलि!

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एम. जोशी हिमानी  हमारे देश के अन्य हिस्सों की तरह उत्तराखंड में भी हर खेत, हर पहाड़ का कोई न कोई नाम होता है. मेरी जन्मभूमि पिथौरागढ़ के 'नैनी' गांव के चारों तरफ के पहाड़ों के भी नाम हैं जैसे- कोट, हरचंद, ख्वल, घंडद्यो, भ्यल आदि. नैनी के पीछे सीधे खड़ा दुर्गम, बहुत ही कम पेड़ों वाला भ्यल नामक पहाड़ अनेक डरावने रहस्यों से भरा हुआ है. इसके बारे में कहा जाता है कि यह पहाड़ हर तीसरे साल ‌मनुष्यों की बलि लेता है. अनेक आदमी-औरतें‌ आज तक इस पहाड़ से गिरकर अकाल मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं. उन दिनों जमतड़ गांव के लोग हफ्तों पहले से इलाके वालों को आगाह कर दिया करते थे कि भ्यल रात में तड़कने लगा है. वह अजीब-सी डरावनी आवाजें करने लगा है. इसलिए सब लोग सतर्क हो जाएं, भ्यल की तरफ जाना बंद कर दें. रात में पहाड़ के रोने, थरथराने का क्रम तब तक जारी रहता था जब तक पहाड़ से कोई गिर कर मर न जाए. उसके...
‘खोपड़ा’ यही तो नाम मेरे गाँव का है

‘खोपड़ा’ यही तो नाम मेरे गाँव का है

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मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—46 प्रकाश उप्रेती आज बात 'खोपड़ा' की. ये मेरे 'गाँव' का नाम है. गाँव मेरे लिए सिर्फ एक शब्द नहीं बल्कि पूरा जीवन है. गाँव सुनते ही चेहरा खिल उठता है. आँखों के सामने 'वारे-पारे' (आमने-सामने) बाखे because और हमारी 'बीचेक कुड़ी' (बीच वाला घर) तैरने लगती है. गाँव सुनते ही 'भ्यार-भतेर' (अंदर-बाहर) जाती ईजा, पानी लेने 'नोह' जाते 'नन' (बच्चे), घास काटने जाती 'काखि'(चाची), 'भौजि' (भाभी) और 'स्यार पन' खेतों में काम करती 'ज्येठी' (ताई) और 'अम्मा' (दादी) नज़र आते हैं. ज्योतिष आँखों ने जब देखना शुरू किया तो उस गाँव को देखा जिसके 'भ्योव' घसियारियों से गूंजते, स्यार आपसी बातचीत से चहकी रहती, 'खो' बच्चों के खेलने से और घर बुबू की 'हड़कत:' से डोलता था. पूरा गाँव अलग-अलग तरह की आवाजों से गूँजता रहता था. शाम को कोई पानी लेने डब्बा बजाते हुए जाता, कोई बाजार जाने के लि...
बाजार ने कौतिक की रौनक भी छीन ली

बाजार ने कौतिक की रौनक भी छीन ली

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मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—45 प्रकाश उप्रेती आज बात "कौतिक" की. साल भर जिसका इंतजार बच्चे, बूढ़े, बड़े सबको रहता था, वह कौतिक था. कौतिक मतलब "मेला" हुआ. कौतिक की तब इतनी हाम थी कि परदेश गए लोग भी because कौतिक पर घर पहुंच जाते थे. मासाब कौतिक के दिन हाज़िरि लगाकर छोड़ देते थे. ईजा कौतिक ले जाने और जाने देने के नाम पर हफ़्ते भर पहले से, जी भर काम करवा लेती थीं. कौतिक तब सिर्फ बाजार नहीं था. ज्योतिष हमारे यहाँ केदार में कौतिक लगता था. कौतिक जाने की इतनी हौंस होती थी कि रात से मुँह धोकर तैयार हो जाते थे. एक बार तो कौतिक के लिए पहनकर जाने वाले कपड़ों की रात में ही because रिहर्सल हो जाती थी- "ईजा देख यो ठीक छै" (माँ देखना ये ठीक है). ईजा- "हो होय, ठीक छौ, राते बति किले फरफराट पड़ रहो त्यर" (हां, हाँ, ठीक है, रात से क्यों बैचेन हो रखा है). ईजा एक नज़र देख लेती थीं. हम मिर्च वाले सरसों...