संस्मरण

ग़म-ए-ज़िदगी तेरी राह में

ग़म-ए-ज़िदगी तेरी राह में

संस्मरण
बुदापैश्त डायरी-14 डॉ. विजया सती ग़म-ए-ज़िदगी तेरी राह में, शब-ए-आरज़ू तेरी चाह में .............................जो बिछड़ गया वो मिला नहीं ! बुदापैश्त शान्दोर कोरोशी चोमा के लिए हम यही कह सकते हैं! so बुदापैश्त जाकर इन्हें जानना संभव हुआ क्योंकि हंगेरियन इंडोलोजी के इतिहास में कोरोशी चोमा का काम मील का पत्थर माना जाता है. बुदापैश्त ट्रांससिल्वानिया, (अब रोमानिया में) के कोरोश because गाँव में जन्मे चोमा ने अध्ययन के दौरान बहुत सी भाषाओं पर अच्छा अधिकार पाया, इनमें मुख्य थीं- ग्रीक और लैटिन, हिब्रू, फ्रेंच, जर्मन और रोमानियन भी. चोमा ने तुर्की और अरबी भाषा भी सीखी. अपने भारत प्रवास में चोमा ने संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं पर भी अधिकार प्राप्त करने के लिए प्रयास किया. बुदापैश्त एक समय उनकी दिलचस्पी हंगेरियन लोगों के मूल स्थान की खोज में हुई. भाषिक संबंधों के आधार पर इ...
बिना पड़ाव (बिसोंण) के नहीं चढ़ा जाए पहाड़

बिना पड़ाव (बिसोंण) के नहीं चढ़ा जाए पहाड़

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—55 प्रकाश उप्रेती पहाड़ में पड़ाव का बड़ा महत्व है. इस बात को हमसे ज्यादा वो समझते थे जिनकी समझ को हम नासमझ मानते हैं. हर रास्ते पर बैठने के लिए कुछ पड़ाव होते थे ताकि पथिक वहाँ  बैठकर सुस्ता सके. दुकान से आने वाले रास्ते से लेकर पानी, घास लाने वाले सभी रास्तों में कुछ जगहें ऐसी बना दी जाती थीं जहां पर थका हुआ इंसान because थोड़ा आराम कर सके. बुबू बताते थे कि जब वो रामनगर से पैदल सामान लेकर आते थे तो 5 दिन लगते और बीच में 12 पड़ाव पड़ते थे. वो इन पड़ावों के अलावा कहीं और नहीं बैठते थे. पत्थर अब हमारा बाजार केदार हो गया है. यह गाँव से चार एक किलोमीटर तो होगा ही. पहले इस बाजार में बड़ी रौनक रहती थी. मिठाई से लेकर किताब, कंचे, राशन, चक्की सभी की दुकानें थीं. सबसे ज्यादा तो चाय और सब्जी की दुकानें होती थीं. शाम के समय तो आस-पास के गांव वालों से पूरा बाजार पट...
सॉल’ या ‘साही’ (Porcupine) की आवाज के दिन

सॉल’ या ‘साही’ (Porcupine) की आवाज के दिन

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—54 प्रकाश उप्रेती सर्दियों के दिन थे.because हम सभी गोठ में चूल्हे के पास बैठे हुए थे. ईजा रोटी बना रही थीं. हम आग 'ताप' रहे थे. हाथ से ज्यादा ठंड मुझे पाँव में लगती थी. मैं थोड़ी-थोड़ी देर में चूल्हे में जल रही आग की तरफ दोनों पैरों के तलुवे खड़े कर देता था. जैसे ही मैं ऐसा करता तो ईजा चट से "फूँकणी' (आग फूंकने वाला) उठाती और एक 'कटाक' लगा देती थीं. साथ में कहतीं- "चूल हन खुट लगानि रे, पैतो तते बे ररणी है जानि" (गुस्से में, चूल्हे में पाँव लगाता है, तलुवों को गर्म करने से पैर फिसलने वाले हो जाते हैं). 'फूँकणी' की कटाक के साथ ही झट से मैं पांव नीचे कर लेता था. कभी लग जाती और कभी बच जाता था. गोठ गोठ में रोटी बनाते हुए भी ईजा के कान बाहर को ही लगे रहते थे. बाहर से आने वाली आवाज के साथ ईजा but चौकनी हो जाती थीं. कभी बाघ के "गुरजने" (गर्जन), कभी किसी क...
मेरे बगीचे के फूल

मेरे बगीचे के फूल

संस्मरण
सुनीता भट्ट पैन्यूली मानसून के पदचापों की आमद हर because तरफ़ सुनाई दे रही है. पेड़ों के अपनी जड़ों से विलगित होने का शोर शायद ही मानवता को सुनाई दे किंतु इस वर्षाकाल में कोरोना का हाहाकार और मानवता के उखड़ने और उजड़कर गिरने का शोर हर रोज़ कर्णों को भेद रहा है. मानसून इस कोरोना के वर्षाकाल में so मानव को वेंटिलेटर की दरकार है कृत्रिम  प्राण वायु मनुष्य के लिए आज कितना अपरिहार्य है इस कोरोनाकाल में हमें महसूस हो रहा है किंतु प्राकृतिक प्राण वायु जो अदृश्य रुप में हमें मिल रही है उसका ज़िक्र कहीं हमारे मानस-पटल पर धुंधलाता जा रहा है. आज उत्तराखंड में हरेला दिवस मनाया जा रहा है उल्लास कम है कोरोना की वजह से किंतु पौधे रोपे ही जायेंगे कुछ प्राचीन पुरोधाओं की स्मृतियों में कुछ उपेक्षित नदियों के तटों पर, स्कूल, बगीचों अपने घरों में श्रलाघनीय है यह और सार्थक भी. मानसून किंतु पर्यावरण ...
गाँव का इकलौता ‘नौह’ वो भी सूख गया

गाँव का इकलौता ‘नौह’ वो भी सूख गया

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—53 प्रकाश उप्रेती पहाड़ में पानी और 'नौह' की because बात मैंने पहले भी की है लेकिन आज उस नोह की बात जिसे मैंने डब-ड़बा कर छलकते हुए  देखा है. उसके बाद गिलास से पानी भरते हुए और कई सालों से बूँद-बूँद के लिए तरसते हुए भी देखा है. पहाड़ ये हमारे छोटे से गाँव का इकलौता नौह था.but इसके बारे में तब कहा जाता था कि "सब जग पाणी बिसिक ले जालो, खोपड़ी नौह हन तो मिलोले" (अगर सब जगह पानी सूख भी जाएगा तो खोपड़ा वालों के नौह में तो मिलेगा ही). अब इसे दुर्भाग्य कहिए या सौभाग्य कि उस इलाके में सबसे पहले इसी नौह का पानी सूखा. एक बार सूखा तो फिर कभी लौटा भी नहीं. पानी तब पानी लाने के लिए शाम में ही जाना होता था.so ईजा घास लेने जाते हुए कहा करती थीं- "आज दी गगर भरि दिये हां पाणिल" (आज पानी से दो गगरी भर देना). हम तुरंत हाँ..हाँ..कह देते थे. शाम को एक "हलाम" (कु...
समृतियों की मंजूषा से…

समृतियों की मंजूषा से…

संस्मरण
सुनीता भट्ट पैन्यूली काले घनीभूत बादल उभर आये थे soआसमान में, सुकून भरी अपने हिस्से की बारिश में भीगने का स्वप्न संजोने लगीं थी कुछ बेदार आंखें…, इन्हीं स्वप्नों को हकीकत में बदलने का ख़्याल सबसे जुदा कुनबों से उन बेख़ौफ़ चुनिंदा दिलों में कुंडली मारकर बैठ गया…घने हो आये तिरते बादलों के रलने-मिलने में. कुंडली दबे-पांव, चुपके-चुपके butपहाडों में आन्दोलन उमगने लगा था. अपने अधिकार, अपने पुर, अपनी संस्कृति, अपनी वैखरी, अपना खान-पान एक ही रंग में पुते हुए सब के शरीर और आत्माओं का स्वप्न के ऊंचे-ऊंचे महलों से उतरकर जमीन पर खुरदुरी रूपरेखा तैयार करना गलत भी न था. कुंडली बारहवीं कक्षा में ही हल्के-फुलके कानों को सुकून देते शब्दों के बुलबुले अनायास ही रंगीन शरारे छोड़ने लगे थे आंखों में… आधुनिक होगा अपना उतराखंड नई ट्रेन, मोटर कार, मल्टीप्लेक्स बिल्डिंग, फ्लाईओवर, becauseमाल, आधुनिक तकनीकी स...
वो “सल्डी सुंगनाथ” और देवीदत्त मासीवाल का फ़ोटो स्टूडियो

वो “सल्डी सुंगनाथ” और देवीदत्त मासीवाल का फ़ोटो स्टूडियो

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—52 प्रकाश उप्रेती तब कैमरे का फ्लैश चमकना भी चमत्कार लगता था. कैमरा देख लेना ही चाक्षुष तृप्ति का चरम था. देखने के लिए हम सभी बच्चों की भीड़ इकट्ठा हो जाया करती थी और कैमरे को लेकर हम becauseअपना गूढ़ ज्ञान आपस में साझा करते थे. हम सबकी बातों में यह बात कॉमन होती कि- "हां यार कैमरा गोर कदयूं" (कैमरा गोरा कर देता है). इसके बाद जिसमें फेंकने का जितना सामर्थ्य होता वह उतनी बातें बनाता था. जबकि कैमरा हम सब ने दूर से ही देखा होता था. कैमरा गाँव में तब फ़ोटो खिंचाने के कुछ ही मौके होते थे. so उनमें से एक गाँव की 'दीदियों' (बहनों) द्वारा शादी के लिए फोटो खिंचवाने का होता था. एकदम चटक रंग के सूट में फ़ोटो खिंचवाया जाता था जिसमें अक्सर पीछे का बैकग्राउंड हरा, नीला और आसमानी होता था. फ़ोटो एकदम सावधान की मुद्रा में खिंचवाया जाता था. उसमें कोई भाव या पोज़ नहीं...
ऑक्सफोर्ड, हिन्दी और इमरै बंघा

ऑक्सफोर्ड, हिन्दी और इमरै बंघा

संस्मरण
बुदापैश्त डायरी-13 डॉ. विजया सती बुदापैश्त में हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थियों का because अध्ययन ब्रजभाषा काव्य पढ़े बिना पूरा नहीं होता और इस भाषा के विशेषज्ञ के रूप में वहां निमंत्रित होते हैं डॉ इमरै बंघा. बुदापैश्त डॉ बंघा बुदापैश्त में इंडोलोजी के छात्र रहे but और विश्वभारती, शान्तिनिकेतन में शोधार्थी. वर्तमान में वे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के ओरिएंटल इन्सटीट्यूट में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं, जहां वे हिन्दी, उर्दू और बँगला पाठ पढ़ाते हैं. बुदापैश्त भारतीय साहित्य पर कई पुस्तकों और आलेखों के रचयिता डॉ बंघा का लेखन अंग्रेजी, हिंदी और हंगेरियन में प्रकाशित है. उनका मुख्य काम ब्रजभाषा पर है – ‘सनेह को मारग - so आनंदघन का जीवन वृत्त’ – उनकी इस पुस्तक का प्रकाशन भारत में हुआ. बुदापैश्त हिन्दी की मध्यकालीन कविता, because विशेष रूप से तुलसीदास में अभिरुचि रखने वाले डॉ इमरै बं...
जागरी, बुबू और मैं (धामी लगा म्येरी चाल) अंतिम भाग

जागरी, बुबू और मैं (धामी लगा म्येरी चाल) अंतिम भाग

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—51 प्रकाश उप्रेती नरसिंह देवता थोड़ा हिले लेकिन नाचे नहीं. बुबू कुछ समझ रहे थे क्योंकि वो उनके पुराने जगरी थे. उनके घर में पहली बार 'नौतार' (पहली-पहली बार) भी बुबू ने अवतरित किया था. becauseउस समय becauseनरसिंह ने गुरु के तौर पर 'हाथ मार' (वचन दिया) रखा था कि आगे से तुम ही मेरे गुरु रहोगे और तुम्हारे नाम लेने मात्र से ही मैं दर्शन दे दूँगा. ऐसा होने के बावजूद नरसिंह नहीं नाच रहे थे. जागरी बुबू ने एक बार फिर चाल लगाई. हुडुक की गमक फिर से गूँजने लगी और मैं साथ में थकुल 'मिसाने' में लगा हुआ था. बुबू अब नरसिंह देवता को 'हाथ मारने' (वचन देना) वाली बात भी यादbecause दिला रहे थे. हुडुक, थकुल और बुबू की आवाज से पूरा माहौल देवमय हो रखा था. वहाँ बैठे सभी लोग विनती-अर्जी कर रहे थे. जिनकी जागरी थी वो नरसिंह देवता के पांव में पड़कर विनती कर रहे थे. बुबू बीच-...
जागरी, बूबू और मैं (घात-मघता, बोली-टोली) भाग-2

जागरी, बूबू और मैं (घात-मघता, बोली-टोली) भाग-2

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—50 प्रकाश उप्रेती हुडुक बुबू ने नीचे ही टांग रखा था लेकिन किसी ने उसे उठा कर ऊपर रख दिया था. बुबू ने हुडुक झोले से निकाला और हल्के से उसमें हाथ फेरा, वह ठीक था. उसके बाद वापस झोले में रख दिया. so हुडुक रखने के लिए एक काला सा थैला था. उसी में but रखा रहता था. बुबू के हुडुक पर कोई हाथ लगा दे यह उनको मंजूर नहीं था. तब ऐसे किस्से भी बहुत प्रचलित थे कि मंत्रों से कोई हुडुक या जगरी की आवाज़ बंद कर देता है. वो कहते थे कि "आवाज मुनि गे". जागरी जागरी अंदर लगनी थी. देवताओं के आसन लग चुके थे. बुबू और मेरे लिए आसन लगा हुआ था. एक आदमी सबको पिठ्या लगा रहा था. मुझे भी उन्होंने पिठ्या लगाया और 10 रुपए दक्षिणा दी. मैंने उन्हें सीधे अपने झोले में रखे तौलिए के किनारे में बांध दिया. अब एक तरफ देवताओं के आसन लगे हुए थे और ठीक उनके सामने मैं, बुबू और दो 'ह्वो' becau...