संस्मरण

दशहरे का त्‍योहार यादों के झरोखे से…

दशहरे का त्‍योहार यादों के झरोखे से…

संस्मरण
अनीता मैठाणी नब्बे के दशक की एक सुबह... शहर देहरादून... हमारी गली और ऐसे ही कई गली मौहल्लों में... साइकिल की खड़खड़ाहट और ... एक सांस में दही, दही, दही, दही दही, दही की आवाज़. दशक कुछ ही देर में दूसरी साइकिल की खड़खड़ but और आवाज वही दही की, पर इस बार दोई... दोई..., दोई.. दोई..., दोई... दोई... तीसरी साइकिल की खड़खड़ और आवाज दहीईईईई दहीईईईई. ऐसे ही दोपहर होते-होते कई फेरी वाले एक because के बाद एक गली में चक्कर लगा जाते. यूं तो एक-दो दही वाले लगभग रोज ही आते थे, परंतु दशहरे के दिन इस तरह के दही वालों की रेलमपेल अक्सर देखने को मिलती. वे जानते थे कि आज के दिन भारत के गोर्खाली समुदाय के लोग दही चावल का टीका करते हैं. दशक दशक जिन्हें दही लेना होता वो because गिलास, लोटा, जग लेकर घरों से बाहर निकलते और सपरेटा दही की तमाम कमियां बताते ना-नुकुर करते पाव भर, आधा किलो, एक किलो दही लेते. उन ...
वो पीड़ा… यादें बचपन की

वो पीड़ा… यादें बचपन की

संस्मरण
एम. जोशी हिमानी छुआछूत किसी भी समाज की मानसिक बर्बरता का द्योतक है. हमारे समाज में छुआछूत का कलंक सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा है. आज के तथाकथित सभ्य समाज में भी यह बहुत गहरे so तक मौजूद है. उसके खात्मे की बातें मात्र किताबी हैं, समय पड़ने पर छुआछूत का नाग अपने फन उठा लेता है. ताव अपने बाल्यकाल में दूसरों की इस पीड़ा but को महसूस कर पाने के कारण ही शायद मेरे अंदर छुआछूत का भाव बचपन में ही खत्म हो गया था. हालांकि जिस माहौल में मेरी परवरिश हुई थी उसमें मुझे छुआछूत का कट्टर समर्थक बन जाना चाहिए था. शायद कुछ मेरा प्रारब्ध रहा होगा कि मैं वैसी नहीं बन पाई. ताव उच्च कुल में जन्म लेने के बावजूद छुआछूत की पीड़ा को मैंने बहुत नजदीक से देखा है. भले ही मैंने उस दंश को नहीं झेला, लेकिन मैं उसकी गवाह तो रही हूं. किसी संवेदनशील इंसान के because लिए किसी बुराई का गवाह बनना भी उसको भोगने जितना ह...
हर रोग का इलाज था ‘ताव’

हर रोग का इलाज था ‘ताव’

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—58 प्रकाश उप्रेती पहाड़ पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्वयं के ढलने की कहानी भी है. पहाड़ विलोम में जीता और अपनी संरचना में ढलते हुए भी निशान छोड़ जाता है. आज उन निशान में से एक “ताव” की बात. because ताव को आप डॉ. का आला या पौराणिक कथाओं से ख्यात 'रामबाण' समझ सकते हैं. हर घर में ताव होता ही होता था. कुछ ताव विशेषज्ञ भी होते थे जो इसका बिना डरे इस्तेमाल करते थे. तब ताव के एक “चस्साक” से कई रोग दूर हो जाते थे. हमारे घर में दो ताव थे. एक पतला और दूसरा उससे थोड़ा मोटा था. ताव ताव लोहे की एक छड़ होती थी. because इस छड़ को आगे से दो मुहाँ बनाया जाता था. इस सीधी छड़ के दोनों मुँह आगे से थोड़ा मुड़े हुए होते थे. एक हाथ भर के इस यंत्र को ही “ताव” कहा जाता था. ताव "लोहार" के वहाँ से बनाकर लाया जाता था. “अमूस” (अमावस्या) के दिन बना ताव ज्यादा कारगर माना जाता था. उस दिन का बना ताव...
मन में अजीब से ख़्याल उपज रहे थे…

मन में अजीब से ख़्याल उपज रहे थे…

संस्मरण
जवाबदेही की अविस्मरणीय यात्रा भाग-2 सुनीता भट्ट पैन्यूली हमारा रिक्शा छन-छन घुंघरुओं की सी आवाज़ निकालते हुए हवा से बातें करते हुए कॉलेज की ओर जा रहा था, रिक्शा एक पतली तंग भीड़-भाड़ वाली गली में घुसा, ऐसा महसूस हो because रहा था मानो दुनिया भर के सारे मेहनत करने वाले हाथ अपनी-अपनी रोटी जुटाने के लिए उमड़े हों, यहां इस गली में सड़क पर कोई उबले अंडे, कोई शकरकंदी, कोई मुंगफली के साथ ठेली में अम्रक बेच रहा था, तो कोई भूने हुए पापड़. कोई गज्जक बेच रहा था, कोई काला चश्मा पहनकर वैल्डिंग से लोहे की सरियाओं को खिड़कियों और दरवाज़े का आकार दे रहा था. इस मेहनत वाली गली में दांयी तरफ एक छोटी-सी मस्ज़िद से होकर भी गुजरना हुआ, मुझे मालूम नहीं था कि अनजाने में ही सही पर दोबारा एक साल तक कॉलेज आने-जाने के लिए मैंने पहचान स्वरुप इस छोटी-सी मस्जिद की पक्की तस्वीर अपने ज़ेहन में बैठा ली थी. खोलकर...
रिस्पना की खोज में एक यायावर…

रिस्पना की खोज में एक यायावर…

संस्मरण
नदियों से जुड़ाव का सफर वर्ष 1993 में रिस्पना नदी से आरम्भ हुआ तो फिर आजीवन बना रहा. DBS  कॉलेज से स्नातक और बाद में DAV परास्नातक, पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान भी रिस्पना पर शोध कार्य जारी रहा. हिमालय की चोटियों से निकलने वाली छोटी-बड़ी जलधाराएँ- धारा के विपरीत बहने की उर्जा ने मुझे देहरादून की नदियों और जलधाराओं के अध्ययन के लिए वर्ष 1996-1997 से ही प्रेरित किया. जलान्दोलन के तहत पूरे उत्तराखंड में पनचक्कियों के संरक्षण, जलधाराओं को प्रदुषण मुक्त रखने- पहाड़ के हर गाँव में सिंचाई के साधन उपलब्ध कराने को लेकर- जलान्दोलन के तहत- पदम् भूषण डॉ. अनिल प्रकाश जोशी जी के नेतृत्व में गंगोत्री से दिल्ली पदयात्रा का समन्वयन किया. पहाड़ के प्राकृतिक जल संसाधनों और जंगल और जमीन के मुद्दे पर सदैव सक्रिय रहे. शराब विरोधी आन्दोलन की वजह से मुकद्दमे झेले और जेल भी जाना पड़ा. आज भी जनपद चमोली, देहरादून, बागेश्...
अर्थ और सौंदर्य से ही स्‍त्री जीवन में आता है नयापन!

अर्थ और सौंदर्य से ही स्‍त्री जीवन में आता है नयापन!

संस्मरण
जवाबदेही की अविस्मरणीय यात्रा भाग-1 सुनीता भट्ट पैन्यूली वर्तमान की मंजूषा में सहेजकर रखी गयी स्मृतियां अगर उघाड़ी जायें तो वे पुनरावृत्ति हैं उन अनुभवों को but तराशने हेतु जो तुर्श भी हो सकती हैं, मीठी भी या फिर दोनों… यक़ीनन कुछ न कुछ because हासिल हो ही जाता है इन स्मृतियों के सफ़र के दौरान कुछ खोने के बावजूद भी, चाहे उस यात्रा का हासिल आत्मविश्वासी बनना हो, निर्भीक हो जाना हो या स्वयं के अस्तित्व को खोजना हो या फिर लौह हो जाना हो वक्त के हथौड़े से चोट खाकर. प्रेम स्त्री जीवन में कुछ अर्थ और सौंदर्य हों so तभी उसके जीवन में एक उत्साह और नयापन बना रहता है. सौंदर्य से अभिप्राय आत्ममुग्धता या भौतिकवादिता नहीं वरन कुछ उसके मन का गुप-चुप कुलांचे मारता रूहानी संगीत है जिसकी धुन व लय पर उसके पैर थिरकें या एक नीला विस्तीर्ण नीरभ्र आकाश जिस पर वह सिर्फ़  अपने अन्वेषण और हुनर की कूं...
लकड़ी जो लकड़ी को “फोड़ने” में सहारा देती

लकड़ी जो लकड़ी को “फोड़ने” में सहारा देती

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—57 प्रकाश उप्रेती पहाड़ की संरचना में लकड़ी कई रूपों में उपस्थित है. वहाँ लकड़ी सिर्फ लकड़ी नहीं रहती. उसके कई रूप, नाम और प्रयोग हो जाते हैं. इसलिए जंगलों पर निर्भरता पर्यावरण के कारण नहीं बल्कि जीवन के कारण होती है. because जंगल, जमीन, जल, सबका संबंध जीवन से है. जीवन, जीव और जंगलातों के बीच अन्योश्रित संबंध होता है. इन्हें अलग-अलग करके पहाड़ को नहीं समझा जा सकता. इन सबसे ही पहाड़ और वहाँ का जीवन बनता है. पहाड़ आज बात उस लकड़ी की जो लकड़ी को ही 'फोड़ने' (फाड़ने) में सहारा देती थी. इसके बिना घर पर आप लकड़ी फोड़ ही नहीं सकते थे. इसका मसला वैसे ही था जैसा कबीर कहते हैं न- “अंदर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट”. ईजा तो इसे कभी 'गोठ' (घर के नीचे वाला हिस्सा) तो कभी “छन” (जहां गाय-भैंस बाँधी जाती) के अंदर संभाल कर because रखती थीं. इसका काम सिर्फ लकड़ी को सहारा देने ...
पहाड़-सा है पहाड़ी ग्रामीण महिलाओं का जीवन!

पहाड़-सा है पहाड़ी ग्रामीण महिलाओं का जीवन!

संस्मरण
बेहद कठिन था ह्यूपानी के जंगल से लकड़ी लाना प्रकाश चन्द्र पुनेठा हमारे पहाड़ में मंगसीर के महीने तक यानी कि दिसम्बर माह के अन्त तक पहाड़ की महिलाओं द्वारा धुरा-मांडा में घास कटाई तथा साथ ही खेतों में गेहूँ, जौ, सरसों व चने बोने का काम because पूरा जाता है. हम अपने बचपन में सोचते थे कि अब सब काम पूर्ण हो गए है अब हमारी महिलाओं को थोड़ा आराम मिलेगा! लेकिन एक काम और हमारे पहाड़ की महिलाओं की प्रतिक्षा कर रहा होता था, वह काम होता था साल भर के लिए अपने चूल्हे के लिए जलावन लकड़ियों  की व्यवस्था करना. रसोई आज से लगभग पचास वर्ष पूर्व हमारे पहाड़ों की रसोई में भोजन बनाने का कार्य अधिकांश चूल्हों में लकड़ी जलाकर किया जाता था. उस समय कुछ संपन्न परिवारों में मिट्टी के तेल से चलने वाले प्रेशर वाले स्टोप भी होते थे, जिनमें भोजन बनाया जाता था. इस प्रकार के प्रेशर से जलने वाले स्टोप में, अधिक प्रेशर...
पारले-जी ने की ‘विज्ञापन स्ट्राइक’ (‘तुम’- ‘हम’)

पारले-जी ने की ‘विज्ञापन स्ट्राइक’ (‘तुम’- ‘हम’)

संस्मरण
प्रकाश उप्रेती मूलत: उत्तराखंड के कुमाऊँ से हैं. पहाड़ों में इनका बचपन गुजरा है, उसके बाद पढ़ाई पूरी करने व करियर बनाने की दौड़ में शामिल होने दिल्ली जैसे महानगर की ओर रुख़ करते हैं. पहाड़ से निकलते जरूर हैं लेकिन पहाड़ इनमें हमेशा बसा रहता है. शहरों की भाग-दौड़ और कोलाहल के बीच इनमें ठेठ पहाड़ी पन व मन बरकरार है. यायावर प्रवृति के प्रकाश उप्रेती वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. कोरोना महामारी के कारण हुए 'लॉक डाउन' ने सभी को 'वर्क फ्राम होम' के लिए विवश किया. इस दौरान कई पाँव अपने गांवों की तरफ चल दिए तो कुछ काम की वजह से महानगरों में ही रह गए. ऐसे ही प्रकाश उप्रेती जब गांव नहीं जा पाए तो स्मृतियों के सहारे पहाड़ के तजुर्बों को शब्द चित्र का रूप दे रहे हैं. इनकी स्मृतियों का पहाड़ #मेरे #हिस्से #और #किस्से #का #पहाड़ नाम से पूरी एक सीरीज में दर्ज़ है. श्रृंखला, पहाड़ और because वहाँ ...
रिस्पना की खोज में एक यायावर…

रिस्पना की खोज में एक यायावर…

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नदियों से जुड़ाव का सफर वर्ष 1993 में रिस्पना नदी से आरम्भ हुआ तो फिर आजीवन बना रहा. DBS  कॉलेज से स्नातक और बाद में DAV परास्नातक, पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान भी रिस्पना पर शोध कार्य जारी रहा. हिमालय की चोटियों से निकलने वाली छोटी-बड़ी जलधाराएँ- धारा के विपरीत बहने की उर्जा ने मुझे देहरादून की नदियों और जलधाराओं के अध्ययन के लिए वर्ष 1996-1997 से ही प्रेरित किया. जलान्दोलन के तहत पूरे उत्तराखंड में पनचक्कियों के संरक्षण, जलधाराओं को प्रदुषण मुक्त रखने- पहाड़ के हर गाँव में सिंचाई के साधन उपलब्ध कराने को लेकर- जलान्दोलन के तहत- पदम् भूषण डॉ. अनिल प्रकाश जोशी जी के नेतृत्व में गंगोत्री से दिल्ली पदयात्रा का समन्वयन किया. पहाड़ के प्राकृतिक जल संसाधनों और जंगल और जमीन के मुद्दे पर सदैव सक्रिय रहे. शराब विरोधी आन्दोलन की वजह से मुकद्दमे झेले और जेल भी जाना पड़ा. आज भी जनपद चमोली, देहरादून, बागेश्...