संस्मरण

पिता की ‘छतरी’ के साथ चलने का सुख

पिता की ‘छतरी’ के साथ चलने का सुख

संस्मरण
बाबू की पुण्यतिथि (27 फरवरी, 2015) पर स्मरण  चारु तिवारी पिता के सफर में जरूरी हिस्सा थी छतरी दुःख-सुख की साथी सावन की बूंदाबादी में जीवन की अंतिम यात्रा में मरघट तक so विदा करते पिता को एक तरफ कोने में बैठी सुबकती रही मेरे साथ रस्म-पगड़ी के बाद मेरे साथ but आई सड़क तक पिता का हाथ थामे चुपचाप रास्ते भर so सींचकर मस्तिष्क की भुरभुरी मिट्टी अंकुरित करती रही स्मृतियों के अनगिनत बीज भादो की तेज because बारिश में छोटे बच्चे-सा so दुबका लेती है गोदी में फिर भी पसीज जाता है मन छत पर अतरती सीलन-सा तपती धूप में बैठकर but मेरे कंधे पर चिढ़ाती है अंगूठा दिखाकर तमतमाते so सूरज का मुंह जब होता हूं आहत दुनियादारी के दुःखों से अनेक पैबन्द because लगीं पिता की छतरी रखती है मेरे सिर पर आशीर्वाद भरे हाथ करवट बदलते मौसम में उत्तराखंड मौसम पहचानता है जिस तरह पतझड़ के बाद...
भैया! क्या कोई नरक आश्रम भी है…

भैया! क्या कोई नरक आश्रम भी है…

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पसंद आ गया न, कुछ पैसे दे तो बाकी जब शिफ्ट करोगे तब दे देना, स्वर्ग आश्रम से अच्छा तुमको कहीं मिलेगा भी नहीं... प्रकाश उप्रेती   अतीत में... बात 2012 की है. कॉलेज की जिंदगी निपटने में बस एक बसंत ही बाकी था. उसी बसंत में उत्तरप्रदेश पीसीएस का फॉर्म भर दिया था क्योंकि तब अपने इर्दगिर्द यूपीएससी वालों का जमावड़ा था. because कोई तैयारी कर रहा था, किसी के भैया कर चुके थे, किसी का दोस्त इलाहाबाद से दिल्ली तैयारी के लिए आ रहा था, किसी के सीनियर का हो गया था, कोई बाबा बन चुका था और कोचिंग सेंटर चलाने लग गया था. because इस माहौल में भला हम कैसे किनारे पर खड़े रहते. हमने भी उस 'कोसी' में डुबकी लगा ही ली.अब मसला तैरने का था तो उसके लिए सबसे पहले कोसी के तट यानि मुखर्जीनगर के आसपास कमरे की तलाश शुरू कर दी थी. यूपीएससी नॉर्थ कैंपस में रहते हुए because दाढ़ी निकल आई थी लेकिन इस कॉलोनी के ...
मैं उस पहाड़ी मुस्लिम स्त्री की हवा से  मुखातिब हो रही हूं…

मैं उस पहाड़ी मुस्लिम स्त्री की हवा से  मुखातिब हो रही हूं…

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दुर्गाभवन स्मृतियों से नीलम पांडेय ‘नील’ जब हम किसी से दूर हों रहे होते हैं, तब हम उसकी कीमत समझने लगते हैं. कुछ ऐसा ही हो रहा है आज भी. कुछ ही पलों के बाद हम हमेशा के लिए यहां से दूर हो जाएंगे. so फिर शायद कभी नहीं मिल पाएंगे इस जगह से. कितना मुश्किल होता है ना, अपना बचपन का घर छोड़ना, तब और मुश्किल होती है, जब हम उसको हमेशा के लिए छोड़ रहे हों. कारण बहुत रहे, मैं कारण पर नहीं जाना चाहती हूं, उसका जिक्र फिर कभी करूंगी. किन्तु आज मन कह रहा है कि- बचपन मुठ्ठी भर अलविदा लेते because जाना गर लौट रहे हो, जीवन की शरहदों because में खामोशी बहुत है रोज आकर  लौटso रही थी, जो हवाएं  मेरे द्वार से मुझे but ही खटखटाकर, देखना किसी रोज गुम  हो because जाएंगी मुझे सुलाकर. मैं सबसे ऊपर वाले खेत के so मुहाने पर बैठकर सोच रही हूं, बचपन मेरे छल जो because मुझे बचपन में लगते रहे हैं और पू...
गोपाल की ईमानदारी व परिश्रम का हर कोई कायल है…

गोपाल की ईमानदारी व परिश्रम का हर कोई कायल है…

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गोपाल आ गया है… प्रकाश चन्द्र पुनेठा मैं अपने एक मंजिले भवन को परिवार के सदस्यों की भविष्य में संख्या बढ़ने के बारे में सोचता हुआ दुमंजिला बनवा रहा था. इस कार्य के लिए मजदूरों की आवश्यकता थी. पिथौरागढ़ में स्थानीय मजदूर न के बराबर मिलते है. अतः यहां मजदूर पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार व पड़ोसी देश नेपाल उपलब्ध हो पाते हैं. बिहार के अधिकतर कुशल मजदूर हैं. राजमिस्त्री, कारपेन्टर, पेन्टर व लोहा काटने वाले कुशल मजदूर अधिकतर बिहार राज्य के मिलते है. वर्तमान में जहां भी भवन निर्माण कार्य हो रहा हैं वहां बिहार के मजदूरों का अधिपत्य हैं. अकुशल मजदूर पूर्वी उत्तर प्रदेश या नेपाल के मिलते है. शारीरिक श्रम में एक नेपाली मजदूर अन्य क्षेत्रों के मजदूरों की अपेक्षा अधिक सक्षम होते हैं. नेपाल जब मेरा मेरा मकान पूर्ण रुप से निर्मित हो गया. सब मजदूर अपनी मजदूरी लेकर संतुष्ट होकर चले गए. किन्तु गोपा...
वो अद्भुत दाम्पत्य

वो अद्भुत दाम्पत्य

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वो लड़की गांव की भाग- 1 एम जोशी हिमानी एक कहावत है ' सुखद दाम्पत्य जीवन का बहुत बड़ा वरदान है'. बहुत भाग्यशाली होते हैं वे लोग, जिनके जीवन में यह कहावत चरितार्थ होती है. मैं भी भाग्यशाली हूं कि मैं ने अपनी आंखों से अपने आमा-बडबौज्यू (दादा-दादी) का ऐसा दाम्पत्य देखा है. बहुत से लोगों को मेरी बातें कपोल-कल्पित और अतिशयोक्ति पूर्ण लग सकती हैं लेकिन उससे मेरा सच बदल नहीं जाएगा. दीन-दुनियां की हाय-हाय, चिंताओं, परेशानियों से बहुत दूर थी मेरे बड़ बौज्यू की दुनिया. घर परिवार में रहते हुए भी वे अपनी आंतरिक दुनिया में मगन रहते थे. आमा का नाम तारा था परंतु वे उनको हमेशा 'हरि' नाम से बुलाते थे. अपने बच्चों के नाम भी उन्होंने लक्ष्मी दत्त, हरगोविंद, हरिप्रिया और तुलसी रखा था ताकि हर वक्त किसी न किसी रूप में ईश्वर का नाम उनकी जिह्वा पर बना रहे. बर्फ़ पड़ रही हो या बारिश, चाहे कैसा भी मौ...
पगडंडी

पगडंडी

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वो बचपन की सारी यादें… दीपशिखा गुसाईं ‘दीप’ आज फिर उसी पगडण्डी से होते हुए चलती हुई उन यादों में खो जाती हूँ, अपने गांव और गांव के नीचे बहती अलकनंदा की कलरव करती मधुर आवाज, सामने वही मेरा दृढ पहाड़, वही मेरे गांव के सरसों के खेत मानों मेरे आने पर पीली ओढ़नी ओढ़े बसंत संग मेरे आने के स्वागत में दोनों हाथों को फैलाये हो… इस बार फिर वही अहसास साथ "दी" का सारी यादें ताजा कर गई… वो बचपन की सारी यादें. बचपन उन दिनों सुबहें कितनी जल्दी हुआ करतीं थीं, शामें भी कुछ जल्दी घिर आया करती थीं तब... फूलों की महक भीनी हुआ करती थी और तितलियाँ रंगीन, और इन्द्रधनुष के रंग थोड़े चमकीले, थोड़े गीले हुआ करते थे, आँखों में तैरते ख़्वाब, सुबह होते ही चीं-चीं करती गौरैया छत पर आ जाया करतीं थीं दाना चुगने, उस प्यारी सी आवाज़ से जब नींदें टूटा करती थीं तो बरबस ही एक मुस्कुराहट तैर जाया करती थी होंठों पर.....
घने अंधेरे में जब गधेरे से बच्चे के रोने की आवाज़ आने लगी

घने अंधेरे में जब गधेरे से बच्चे के रोने की आवाज़ आने लगी

संस्मरण
ललित फुलारा मैं कुंवर चंद जी के साथ रात के because तीसरे पहर में सुनसान घाटी से आ रहा था. यह पहर पूरी तरह से तामसिक होता है. कभी भूत लगा हो, तो याद कर लें रात्रि 12 से 3 बजे का वक्त तो नहीं! अचानक कुंवर चंद जी मुझसे बोले 'अगर ऐसा लगे कि पीछे से को¬ई आवाज दे रहा है, तो मुड़ना नहीं. रोए, तो देखना नहीं. छल पर भरोसा मत करना, सीधे बढ़ना.. मन डरे, कुछ अहसास हो, तो हनुमान चालिसा स्मरण करो. मैं साथ हूं. कुंवर अचानक बच्चा रोया because और छण-छण शुरू हो गई. मैंने पीछे देखना चाहा, तो उन्होंने गर्दन आगे करते हुए 'बस आगे देखो. चलते रहो. छल रहा है. भ्रमित मत होना. कुछ भी दिखे यकीन मत करना. जो दिख रहा है, वो है नहीं और जो है, वह अपनी माया रच रहा है.' भ्रमित आसपास बस घाटियां थीं. झाड़ झंखाड़. because गधेरे. ऊपर जंगल और नीचे नदी जिसकी आवाज भी थम चुकी थी. अंधेरा घना. मैं आगे था और कुंवर चंद जी ...
अमलावा नदी में दो तैरती मछलियां

अमलावा नदी में दो तैरती मछलियां

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स्मृतियों के उस पार... सुनीता भट्ट पैन्यूली पहाड़, नदी because और खेत पहाड़ी लोग और उनके जीवन के बीच बना हुआ अनंत  सेतु है जिस पर आवाजाही किये बिना पहाड़ी लोग जीवन की जटिलता को भोगकर स्वयं के लिए सुगम रास्ता नहीं बना सकते. कहना ग़लत न होगा पहाड़, नदी, और खेत तप-स्थल हैं because पहाड़ियों के अभ्यास करने के जिनके इर्द-गिर्द उनके स्वप्न, उनकी उम्मीदें उनके जीवन के उद्देश्य धीरे-धीरे अंगड़ाई लेते हैं फिर पूरे वेग के साथ कुलांचे मारते हैं. नदी पहाड़ ने बहुत कुछ दिया है मैदान को, because पहाड़ ने स्वच्छ हवा दी है, स्वच्छ पानी दिया है, ताजा अनाज, फल और सब्जियां दी हैं  साथ ही समृद्धि  भी दी है. यही नहीं पहाड़ के प्रति हमें कृतार्थ होना चाहिए क्योंकि पहाड़ ने  देश व समाज को नई-नई प्रतिभायें  भी दी हैं. नदी आप यदि बस में बैठकर शहर से गांवों की because ओर जा रहे हैं तो आपको शहर और गा...
सौ साल के इस टूटते हुए ‘दुर्गाभवन’ की स्मृतियां

सौ साल के इस टूटते हुए ‘दुर्गाभवन’ की स्मृतियां

संस्मरण
हर परिवर्तन के साक्षी बने हुए हैं हिमाच्छादित हिमालय शिव स्वरूप नीलम पांडेय ‘नील’ काफी समय बाद बस से यात्रा की. because यात्रा देहरादून से रानीखेत की थी. मैदान से पहाड़ों की बसों में बजाए जाने  वाले गीत कुछ इस प्रकार होते हैं, एक उदाहरण के तौर पर जैसे देहरादून से हरिद्वार तक देशी छैल छबीले गीत, हरिद्वार से नजीबाबाद तक निरपट धार्मिक गीत, नजीबाबाद से हल्द्वानी तक 80 के दशक के रोमांटिक गीत और हल्द्वानी से रानीखेत तक सिर्फ पहाड़ी गीत. पूरी रात, मैं इन गीतों से लगभग ऊब चुकी थी because और अब पूरी रात की यात्रा के बाद बस पहुंचने वाली ही थी. पूरी रात बहुत पहले यहां रात्रि को because चौकीदार घुमा करता था. ‘जागते रहो-जागते रहो’ की आवाज सुनाई देती थी, लेकिन शायद अब ऐसा कुछ नहीं है.  मुझे लगा साढ़े पांच बजे के बाद शायद कुछ लोग सुबह की सैर पर निकलते तो होंगे, लेकिन  कोई प्राणी सड़क पर दिख...
गिरगिट की तरह रंग बदलने पर मज़बूर हो रही थी मैं!

गिरगिट की तरह रंग बदलने पर मज़बूर हो रही थी मैं!

संस्मरण
जवाबदेही की अविस्मरणीय यात्रा – अंतिम किस्‍त सुनीता भट्ट पैन्यूली वक़्त की हवा ही कुछ इस तरह से बह रही है because कि किसी अपरिचित पर हम तब तक विश्वास नहीं करते जब तक कि हम आश्वस्त नहीं हो जायें कि फलां व्यक्ति को हमसे बदले में कुछ नहीं चाहिए वह नि:स्वार्थ हमारी मदद कर रहा है. सत्य अमूमन ऐसा होता नहीं है कि किसी प्रोफेसर because के घर जाने की नौबत आये, कालेज के सभी कार्य और प्रयोजन कालेज में ही संपन्न कराये जाते हैं. छात्र और छात्राओं को प्रोफेसर के घर से क्या लेना-देना? ख़ैर अत्यंत असमंजस में थी मैं असाइनमेंट जमा करवाने को लेकर. यदि दीदी साथ न होती तो मेरी इतनी हिम्मत because नहीं थी कि सब कुछ ताक पर रखकर अकेले ही चली जाती प्रोफेसर के पास असाइनमेंट जमा करवाने. सत्य किंतु यहां पर इस परिदृश्य में मेरी because स्थिती अलहदा है स्वयं को मैंने जज़्ब किया है कि मुझे फाईनल परीक्षा ...