संस्मरण

आमा बीते जीवन की स्मृतियों को दोहराती होंगी

आमा बीते जीवन की स्मृतियों को दोहराती होंगी

संस्मरण, साहित्‍य-संस्कृति
नीलम पांडेय वे घुमंतु नही थे, और ना ही बंजारे ही थे। वे तो निरपट पहाड़ी थे। मोटर तो तब उधर आती-जाती ही नहीं थी। हालांकि बाद में 1920 के आसपास मोटर गाड़ी आने लगी लेकिन शुरुआत में अधिकतर जनसामान्य मोटर गाड़ी को देखकर डरते भी थे, रामनगर से रानीखेत (आने जाने) के लिए बैलगाड़ी और पैदल ही सफर करने की लंबी कठिन यात्रा को जब वे पूरा कर लेते तो वापस लौटते हुए, एक दो रात्रि चैन का पड़ाव रानीखेत में भी गुजारा करते थे। आने—जाने की इसी प्रक्रिया में पड़ाव के साथ-साथ कुछ जगह रहने के ठिकाने भी बनते गए। उनके पास मेरे लिए पढ़ने के आलावा भविष्य बनाने का अचूक उपाय भी था, जो एक लोक गीत के रूप में मुझे रटाया भी गया था "बानरे आंखी छिलूकै की राखी, बौज्यू मै बनार कैं दिया, बानर जांछ हांई फांई बौजयू मैं बानर कै दिया," मां को विश्वास हो गया था इस गीत और पारम्परिक कहानियों से मैं पांचवीं पास भी कर लूं तो गनीम...
किन्नौर का कायाकल्प करने वाला डिप्टी कमिश्नर

किन्नौर का कायाकल्प करने वाला डिप्टी कमिश्नर

संस्मरण, हिमाचल-प्रदेश
कुसुम रावत मेरी मां कहती थी कि किसी की शक्ल देखकर आप उस ‘पंछी’ में छिपे गुणों का अंदाजा नहीं लगा सकते। यह बात टिहरी रियासत के दीवान परिवार के दून स्कूल से पढ़े मगर सामाजिक सरोकारों हेतु समर्पित प्रकृतिप्रेमी पर्वतारोही, पंडित नेहरू जैसी हस्तियों को हवाई सैर कराने वाले और एवरेस्ट की चोटी की तस्वीरें पहली बार दुनिया के सामने लाने वाले एअरफोर्स पायलट, किन्नौर की खुशहाली की कहानी लिखने वाले और देश में पर्यावरण के विकास का खाका खींचने वाले वाले दूरदर्शी नौकरशाह नलनी धर जयाल पर खरी बैठती है। देश के तीन प्रधानमंत्रियों के साथ काम करने वाले इस ताकतवर नौकरशाह ने हमेशा अपनी क्षमताओं से एक मील आगे चलने की हिम्मत दिखाई जिस वजह से वह भीड़ में दूर से दिखते हैं। जीवन मूल्यों के प्रति ईमानदारी, प्रतिबद्वता व संजीदगी से जीने का सलीका इस बेजोड़ 94 वर्षीय नौकरशाह की पहचान है। यह कहानी एक रोचक संस्मरण है कि क...
जनाधिकारों के लिए संघर्षरत एक लोककवि !

जनाधिकारों के लिए संघर्षरत एक लोककवि !

उत्तराखंड हलचल, संस्मरण
व्योमेश जुगरान आज हिमालै तुमुकै धत्यूं छौ,  जागो - जागो ओ मेरा लाल बरसों पहले पौड़ी के जिला परिषद हॉल में गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ को पहली बार सुना था। खद्दर का कुर्ता पहने घने-लटदार बालों वाले इस शख़्स की बात ही कुछ और थी। उन्होंने माहौल से हटकर फ़ैज साहब का मशहूर कौमी तराना ‘दरबार-ए-वतन में जब इक दिन... सुनाया। ओजस्वी स्वर फूटे तो साज की दरकार ही कहां रही ! यह काम तो उनके पावों और बाहों की जुंबिशों ने संभाल लिया था। शास्त्रीय संगीत की जुगलबंदियां तो सुनी थी, लेकिन लोकगायकों की जुगलबंदी? यह अभिनव प्रयोग इतना सफल रहा कि इसकी गूंज सात समुंदर पार भी पहुंची। लेकिन यह सिर्फ गीत और गायिकी का आनंद भर नहीं था, बल्कि एक ऐसा प्रयोग था जिसने गढ़वाल और कुमाऊं से जुड़ी पहाड़ की सांस्कृतिक एकता के बचे-खुचे सूराख भी पाट दिए। तराने की हर बहर से आवाज के अंगार दहक रहे थे। मानो कोई कौमी हरकारा किस...