संस्मरण

काकड़, कोरैण, रायत और पीसी लूण

काकड़, कोरैण, रायत और पीसी लूण

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—5 प्रकाश उप्रेती आज बात- 'कोरैण' की. कोरैण माने कोरने वाला. लुप्त होने के लिए 'ढिका' (किनारे) में बैठा यह औजार कभी भी लुढ़क सकता है. फिर हम शायद ही इसे देख पाएं. उन दिनों पहाड़ में हर घर की जरूरत थी -कोरैण. अब तो इसके कई स्थानापन आ गए हैं. कोरैण भी धीरे-धीरे पहाड़ के उन घरों की तरह पुरानी हो गयी है जो आधुनिकता की भेंट चढ़े. आधुनिकता और आराम ने कई पुरानी चीजों को ढहाया और ले आया नये व आसान विकल्प. लकड़ी के हत्थे और लोहे की पत्ती से बनी कोरैण अलग-अलग आकार की होती थी. इसका आगे का हिस्सा मुड़ा होता था. उस मुड़े हुए हिस्से के 'कर्व' से तय होता था कि यह पतली वाली कोरैण है या मोटी वाली. लोगों द्वारा अलग-अलग चीजों को कोरने के लिए अलग-अलग कोरैण का इस्तेमाल किया जाता था. "ले य काकड़ कोर दे" (ये ककड़ी कोर दे). हम  ईजा को कहते थे 'डाव से कोरैण' निकाल दे. ईजा निक...
एक घुमक्कड़ की गौरव गाथा-दुनिया ने माना, हमने भुलाया

एक घुमक्कड़ की गौरव गाथा-दुनिया ने माना, हमने भुलाया

संस्मरण
पंडित नैन सिंह रावत (21 अक्टूबर, 1830-1 फरवरी, 1895) डॉ. अरुण कुकसाल 19वीं सदी का महान घुमक्कड़-अन्वेषक-सर्वेक्षक पण्डित नैन सिंह रावत (सन् 1830-1895) आज भी ‘‘सैकड़ों पहाड़ी, पठारी तथा रेगिस्तानी स्थानों, दर्रों, झीलों, नदियों, मठों के आसपास खड़ा मिलता है. लन्दन की रॉयल ज्‍यॉग्रेफिकल सोसायटी, स्‍टॉटहोम के स्वेन हैडिन फाउण्डेशन, लन्दन की इण्डिया आफिस लाइब्रेरी, कलकत्ता के राष्ट्रीय पुस्तकालय, दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार, देहरादून के सर्वे ऑफ इण्डिया के दफ्तरों में नैन सिंह, अन्य पण्डितों, मुन्शियों तथा उनके तमाम गौरांग साहबों को अर्से से शोधार्थी अभिलेखों में विराजमान देखते रहे हैं.’’ (एशिया की पीठ पर, पण्डित नैन सिंह रावत, पृष्ठ-21) पण्डित नैन सिंह रावत का जन्म उत्तराखंड में जोहार इलाके के गोरी नदी पार भटकुड़ा गांव में 21 अक्टूबर, 1830 को हुआ था. उनका पैतृक गांव मिलम था. उस दौरा...
हिमालय के साथ चलने वाला व्यक्तित्व

हिमालय के साथ चलने वाला व्यक्तित्व

संस्मरण
राजेन्द्र धस्माना की पुण्यतिथि (16 मई) पर विशेष चारु तिवारी उम्र का बड़ा फासला होने के बावजूद वे हमेशा अपने साथी जैसे लगते थे. उन्होंने कभी इस फासले का अहसास ही नहीं होने दिया. पहाड़ के कई कोनों में हम साथ रहे. एक बार हम उत्तरकाशी साथ गये. रवांई घाटी में. भाई शशि मोहन रावत 'रवांल्टा' के निमंत्रण पर. पर्यावरण दिवस पर उन्होंने एक आयोजन किया था नौंगांव में. हमारे साथ बड़े भाई और कांग्रेस के नेता पूर्व मंत्री किशोर उपाध्याय भी थे. रास्ते भर उन्होंने यमुना घाटी के बहुत सारे किस्से सुनाये. उन्होंने यमुना पुल की मच्छी-भात के बारे में बताया. खाते-खाते मछली के कई प्रकार और उसे बनाने की विधि भी बताते रहे. यहां की कई ऐतिहासिक बातें, लोकगाथाओं, लोककथाओं एवं लोकगीतों के माध्यम से कई अनुछुये पहलुओं के बारे में बताते रहे. एक बार हम लोग टिहरी जा रहे थे. श्रीदेव सुमन की जयन्ती पर. यह आयोजन मैंने ह...
इस्कूल से ई-स्कूल तक : ये कहाँ आ गए हम…

इस्कूल से ई-स्कूल तक : ये कहाँ आ गए हम…

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‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़ भाग—2 रेखा उप्रेती स्कूल बंद हैं. नहीं, बंद नहीं हैं… आजकल मोबाइल के रास्ते घर के कोने तक पहुँच गए हैं. मेरा बच्चा बिना नहाए-धोए, बिना यूनिफार्म पहने उस कोने में बैठा अध्यापिका से पाठ सुन रहा है. अध्यापिका का चेहरा भर दीखता है स्क्रीन पर… . सहपाठी गायब हैं और शरारतें भी… बच्चे को सामाजिक प्राणी बनाने वाला एकमात्र ज़रिया स्कूल ही बचा था… उसके भी द्वार बंद हैं. एक हमारा इस्कूल था, इस ई-स्कूल के मुकाबले कितना ‘कूल’ था. आइए आपको ले चलती हूँ- “प्राइमरी पाठशाला, माला” छात्रों की टोली बारी-बारी अँजुरी भर-भर कर पानी पीती. उस ठंडे-मीठे सोते के पानी से हम फिर स्फूर्ति से भर उठते. कभी-कभी मुँह में पानी भरकर वापस आते और जब मुँह में पानी को ‘होल्ड’ करने की क्षमता चुक जाती तो उसे पी लेते. यह हमारा जुगाड़ था पानी स्टोर करने का. मेरे घर से एकदम खड़ी चढ़ाई थी इस्कूल के लि...
‘तीलू पिन’ मतलब जाड़ों की ख़ुराक़

‘तीलू पिन’ मतलब जाड़ों की ख़ुराक़

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—4 प्रकाश उप्रेती आज बात-'तीलू पिन' (तिल के लड्डू) की.हमारे यहाँ यह सर्दियों की ख़ुराक थी. पहाड़ के जिन इलाकों में तिल ज्यादा होते हैं, वहाँ 'पिन' बनता ही था. हमारे यहाँ तिल ठीक-ठीक मात्रा में होते थे. बाकायदा कुछ खेत तिल के लिए ही जाने जाते हैं. उनको तिल के लिए ही तैयार किया जाता था. ईजा उन खेतों की पहचान करती थीं जहाँ तिल हो सकते थे. हर खेत की प्रवृति उसकी मिट्टी पर निर्भर करती थी. मौसम तो अधिकांशतः पूरे क्षेत्र का एक जैसा ही होता था मगर कौन से खेत में कौन सी फसल अच्छी होगी इसके लिए बहुत कुछ देखना पड़ता था. अक्सर ईजा कुछ खेतों में अनाज के साथ "ढीका-निसा" (खेत के इधर-उधर) तिल भी बो देती थीं. अगर उसमें तिल ठीक हुए तो फिर अगले वर्ष से वह तिल वाला खेत हो जाता था. इस तरीके से 2-3 खेत तय हो जाते और अदल-बदल कर उनमें तिल बोए जाते थे. हम भी तिल कभी-कभी...
अब कहाँ होगी भेंट…

अब कहाँ होगी भेंट…

संस्मरण
हम याद करते हैं पहाड़ को… या हमारे भीतर बसा पहाड़ हमें पुकारता है बार-बार? नराई दोनों को लगती है न! तो मुझे भी जब तब ‘समझता’ है पहाड़ … बाटुइ लगाता है…. और फिर अनेक असम्बद्ध से दृश्य-बिम्ब उभरने लगते हैं आँखों में… उन्हीं बिम्बों में बचपन को खोजती मैं फिर-फिर पहुँच जाती हूँ अपने पहाड़… रेखा उप्रेती दिल्ली विश्वविद्यालय, इन्द्रप्रस्थ कॉलेज के हिंदी विभाग में बतौर एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं. हम यहां पर अपने पाठकों के लिए रेखा उप्रेती द्वारा लिखित ‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़ नाम की पूरी सीरिज प्रकाशित कर रहे हैं... ‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़ भाग—1 रेखा उप्रेती “धरु!! आब काँ होलि भेंट” आमा ने मेरे बाबूजी को अंग्वाल में लेते हुए कहा और फफक कर रो पड़ी. “तस नी कौ काखी, आब्बे…” बाबूजी के बोल रुँधे कंठ में विलीन हो गए. गर्मी की छुट्टियाँ ‘घर’ में बिताकर, दिल्ली वापस लौटने की घड़ी आती तो निश्व...
कब लौटेगा पाई में लूण…

कब लौटेगा पाई में लूण…

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मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—3 प्रकाश उप्रेती आज बात- ‘पाई’ की. पहाड़ के हर घर की शान ‘पाई’ होती थी. पाई के बिना खाना बनने वाले गोठ की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. पाई दरअसल लकड़ी की बनी वह चीज थी जिसमें पिसा हुआ लूण और चटनी रखते थे. मोटी लकड़ी को तराश कर उसको एक या दो खाँचों का बनाया जाता था. इन खाँचों में ही लूण और चटनी रखी जाती थी. इस पूरे ढाँचे को बोला जाता था-पाई. ईजा हमेशा पाई में लूण और चटनी पीसकर रख देती थीं. हमारे घर में एक बड़ी और दो छोटी पाई थीं. छोटी पाई पर हम बच्चों का अधिकार होता था. हम अपनी-अपनी पाई को छुपाकर रख देते थे. जो बडी पाई थी वह जूठी न हो इसलिए ईजा हमारी पाई में चटनी और नमक अलग से रख देती थीं. ईजा कहती थीं- "ये ले आपणी पाई हां धर ले" (अपनी पाई में (नमक, चटनी) रख ले). हम बड़ी उत्सुकता से रखकर पाई को फिर गोठ में कहीं छुपा देते थे ताकि कोई और न खा ले. ई...
जाड़ों की बरसात में जब पड़ते ‘घनगुड़’ थे

जाड़ों की बरसात में जब पड़ते ‘घनगुड़’ थे

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मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—2 प्रकाश उप्रेती आज बात- 'घनगुड़' की. पहाड़ों पर जाड़ों में जब बरसात का ज़ोर का गड़म- गड़ाका होता था तो ईजा कहती थीं "अब घनगुड़ पडील रे". मौसम के हिसाब से पहाड़ के जंगल आपको कुछ न कुछ देते रहते हैं. बारिश तो शहरों में भी होती है लेकिन घनगुड़ तो अपने पहाड़ में ही पड़ते हैं. घनगुड़ को मशरूम के परिवार की सब्जी के तौर पर देखा जाता था. इनका कुछ हिस्सा जमीन के अंदर और कुछ बाहर होता था. जहाँ पर मिट्टी ज्यादा गीली हो समझो वहीं पर बहुत सारे घनगुड. बारिश बंद होने के बाद शाम के समय हम अक्सर घनगुड़ टीपने जाते थे. ईजा बताती थीं- "पार भ्योव पन ज्यादे पड़ रह्नल" (सामने वाले जंगल में ज्यादा पड़े होंगे). हम वहीं पहुँच जाते थे. घनगुड़ हम कच्चे भी खाते थे और इनकी सब्जी भी बनती थी. ईजा कहती थीं- "घनगुड़क साग सामेणी तो शिकार फेल छू" (घनगुड़ की सब्जी के सामने तो मटन फेल है)... "सब...
जंगल जाते, किम्मु छक कर खाते

जंगल जाते, किम्मु छक कर खाते

संस्मरण
प्रकाश उप्रेती मूलत: उत्तराखंड के कुमाऊँ से हैं. पहाड़ों में इनका बचपन गुजरा है, उसके बाद पढ़ाई पूरी करने व करियर बनाने की दौड़ में शामिल होने दिल्ली जैसे महानगर की ओर रुख़ करते हैं. पहाड़ से निकलते जरूर हैं लेकिन पहाड़ इनमें हमेशा बसा रहता है। शहरों की भाग-दौड़ और कोलाहल के बीच इनमें ठेठ पहाड़ी पन व मन बरकरार है. यायावर प्रवृति के प्रकाश उप्रेती वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. कोरोना महामारी के कारण हुए 'लॉक डाउन' ने सभी को 'वर्क फ्राम होम' के लिए विवश किया. इस दौरान कई पाँव अपने गांवों की तरफ चल दिए तो कुछ काम की वजह से महानगरों में ही रह गए. ऐसे ही प्रकाश उप्रेती जब गांव नहीं जा पाए तो स्मृतियों के सहारे पहाड़ के तजुर्बों को शब्द चित्र का रूप दे रहे हैं। इनकी स्मृतियों का पहाड़ #मेरे #हिस्से #और #किस्से #का #पहाड़ नाम से पूरी एक सीरीज में दर्ज़ है। श्रृंखला, पहाड़ और वहाँ के जीवन क...
जहां धरती पर स्नान के लिए उतरती हैं परियां!

जहां धरती पर स्नान के लिए उतरती हैं परियां!

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मनोज इष्टवाल सरूताल : जहां खुले आसमान के नीचे स्नान के लिए एक दिन उतरते हैं यक्ष, गंदर्भ, देवगण, परियां व तारामंडल! ऋग्वेद के कर्मकांड मन्त्र के कन्यादान में लिखा है- “पुष्ठारक्षेत्रे मधुरम्य च वायु, छिदन्ति योगानि वृद्धन्ति आयु” बात लगभग 13 बर्ष पुरानी है. मैं बर्ष तब रवांई घाटी के भ्रमण पर था. बडकोट गंगनाली राजगढ़ी होते हुए मैं 10 जून 2005 को सरनौल गांव पहुंचा जहां आकर सड़क समाप्त हो जाती है. दरअसल मेरा मकसद ही ऐसे स्थानों की ढूंढ थी जहां अभी भी हमारा लोक समाज लोक संस्कृति अछूती थी. सच कहूं तो मुझे आमंत्रण भी मिला था कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालय पुरोला की उन बेटियों का जिनके गांव पुरोला से लगभग 30 किमी. पैदल दूरी पर 8 गांव सर-बडियार थे. मुझे आश्चर्य यह था कि ये लोग आज भी क्या सचमुच 30 किमी. पैदल यात्रा तय करते हैं. बस दो दिन बाद सर गांव में जुटने वाला कालिग नाग मेला जो था. फि...