संस्मरण

फिर शुरू हुआ जीवन

फिर शुरू हुआ जीवन

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बुदापैश्त डायरी : 6 डॉ. विजया सती नए देश में हम अपने देश को भी नई दृष्टि से देखते हैं. ऐसा ही होता रहा हमारे साथ बुदापैश्त में  ..अपने जाने-पहचाने जीवन की नई-नई छवियाँ खुलती रही हमारे सामने. विभाग में हिन्दी पढ़ने वाले युवा विद्यार्थियों की पहली पसंद होती – भारत जाने पर बनारस की यात्रा! उन्हें राजस्थान के रंगों का भी मोह था. हम भी बनारस को नए सिरे से देखने को ललक उठते, ऐसा क्या है हमारे बनारस में जो अब तक हम न देख पाए? क्षमा कीजिएगा... बनारस नहीं, उनकी वाराणसी ! बहुत जागरुक और चौकन्ना होना होता है हमें अपने देश के लिए परदेश में. ... भारतीय भोजन को लेकर तरह-तरह के भ्रम थे - उन्हें मिटाना था. रोजमर्रा का वह जीवन जब दिल्ली जैसे शहर में सड़कों पर हमारे साथ-साथ गाय भी चले, इस पर उनसे क्या कहना हुआ, यह सोचना था. सबसे बढ़कर भारत में स्त्री. कितने-कितने सवाल - असुरक्षित है उनका जीवन...
चौमासेक गाड़ जैसी…

चौमासेक गाड़ जैसी…

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मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—29 प्रकाश उप्रेती आज बात- 'सडुक' (सड़क) और 'गाड़' (नदी) की. हमारा गाँव न सड़क और न ही नदी के किनारे है. सड़क और नदी से मिलने के मौके तब ही मिलते थे जब हम दुकान, 'ताहे होअ बहाने'(नदी के करीब के खेतों में हल चलाने) और 'मकोट (नानी के घर) जाते थे. हमारे कुछ खेत जरूर सड़क और नदी के पास थे लेकिन ईजा ने शुरू से ही इन दोनों के प्रति मन में भय बैठा रखा था. बाकी रहा-सहा भय उन कहानियों ने पैदा कर दिया जो हमने गांवों वालों के साथ-साथ ईजा व 'अम्मा' से सुनी थीं. कुछ नदी में डूबने और डुबाने के किस्से तो कुछ नदी के ऊपर बने पुल में बच्चों की बलि देने के थे. सड़क हमको आकर्षित जरूर करती थी लेकिन गाडियाँ डराती भी थीं. खासकर भयंकर आकार वाले 'ठेल्य' (ट्रक). उनका आगे का हिस्सा बहुत ही डरावना होता था. साथ ही तेज निकलती कार और झूलती हुई जीप से भी डर लगता था. सड़क पर सिर्फ ...
घुल्यास की दुनिया

घुल्यास की दुनिया

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मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—28 प्रकाश उप्रेती आज बात- 'घुल्यास' की. घुल्यास मतलब एक ऐसी लकड़ी जो पहाड़ की जिंदगी में किसी बड़े औजार से कम नहीं थी. लम्बी और आगे से मुड़ी हुई यह लकड़ी खेत से जंगल तक हर काम में आगे रहती थी. बगीचे से आम, माल्टा, और अमरूद की चोरी में इसका साथ हमेशा होता था. इज़्ज़त ऐसी की इसे नीचे नहीं बल्कि हमेशा पेड़ पर टांगकर ही रखा जाता था. ईजा इससे इतने काम लेती थीं कि हमारे पेड़ पर कम से कम चार-पांच अलग-अलग कद-काठी, लकड़ी व वजन के घुल्यास हमेशा टंगे रहते थे. हम भी सूखी लकड़ी लेने ईजा के साथ-साथ जाते थे. ईजा कहती थीं- "हिट म्यर दघे, मैं कच लकड़ काटूल तू उनों पन बे सूखी लकड़ चाहे ल्याले". हम भी ईजा के साथ चल देते थे. घुल्यास के लिए दाड़िम, भिमु, तिमूहुँ, गौंत, गीठी और मिहो की लकड़ी अच्छी मानी जाती थी. इसका कारण इन पेड़ों का मजबूत होना था. घुल्यास के लिए लकड़ी का मजबूत...
सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों की पुरोधा-आमा 

सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों की पुरोधा-आमा 

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आमा के हिस्से का पुरुषार्थ डॉ गिरिजा किशोर पाठक  कुमाऊँनी में एक मुहावरा बड़ा ही प्रचलित है "बुढ मर, भाग सर" (old dies after a certain age at the same times he transmits rituals, and traditions) यानी कि जो बुज़ुर्ग होते हैं वे सभ्यता, सांस्कृतिक परंपराओं के स्थंभ होते हैं. इन्हीं से अगली पीढ़ी को सभ्यता, संस्कृति परंपराओं का अदृश्य हस्तांतरण (invisible transmission) होता है. इसी को ‘भाग सर’ कहते है.  परंपरा, संस्कृति, संवेदनशीलता, मानवीय मूल्यों की रक्षा, विनम्रता, त्याग, शील, मर्यादा और मानवीय व्यवहार हर मनुष्य अपने परिवार से सीखता है. इन सबके मिश्रण से ही मनुष्य के अंदर संस्कारों का अंकुरण होता है. मुझे याद है रामकथा सुनाते समय सीता की व्यथा का जो वर्णन आमा ने मेरे मन मे भर दिया उसे मैं तुलसी, कंब, वाल्मीकि, फादर कामिल बूलके की रामकथाओं को पढ़ने के बाद भी नहीं निकाल पाया. आम...
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा

हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा

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डॉ विजया सती दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज से हाल में ही सेवानिवृत्त हुई हैं। इससे पहले आप विज़िटिंग प्रोफ़ेसर हिन्दी–ऐलते विश्वविद्यालय, बुदापैश्त, हंगरी में तथा प्रोफ़ेसर हिन्दी–हान्कुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरन स्टडीज़, सिओल, दक्षिण कोरिया में कार्यरत रहीं। साथ ही महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, पुस्तक समीक्षा, संस्मरण, आलेख निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं। विजया सती जी अब ‘हिमाँतर’ के लिए ‘देश-परदेश’ नाम से कॉलम लिखने जा रही हैं। इस कॉलम के जरिए आप घर बैठे परदेश की यात्रा का अनुभव करेंगे- बुदापैश्त डायरी : 5 डॉ. विजया सती देश के बाहर हिन्दी – यह सोचकर मन उल्लास से भर जाता है. हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा – पंक्ति का सही अर्थ समझ आता है. सुनने में अच्छा लगता है. और जब कहीं परदेश में अपने देश से अचानक मुलाक़ात हो जाए तो ? वो मुहावरा है ना इसके लिए.... दिल बा...
पहाड़ का बादल

पहाड़ का बादल

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‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—13 रेखा उप्रेती “जोर का मंडान लग गया रे! जल्दी-जल्दी हिटो” संगिनियों के साथ धुर-धार से लौटती टोली के कदम तेज हो उठते. ‘मंडान’ मतलब चारों तरफ़ से बादलों का घिर आना. बौछारों की अगवानी से पूर्व आकाश में काले मेघों का चंदोवा… घसियारिनें अपनी दातुली कमर में खोस लेतीं, लकडियाँ बीनती काखियाँ गट्ठर बाँधने लगतीं, खेतों में निराई-गुड़ाई करती जेड्जा कुटव चलाना छोड़ देती… पर कितनी ही दौड़ लगा लें, घर पहुँचने तक इन सबका भीग कर फुत-फुत हो जाना तय होता. मंडान देखकर घर में भी हका-हाक शुरू… आँगन में सूखते धान, बड़ियाँ, मिर्चें उठानी हैं, टाल में से सूखी लकडियाँ उठाकर गोठ रखनी हैं, पुआल के लुटों से गट्ठर उठाकर छान में रखना है. मल भितेर के पाख में रोशनी देने के लिए बना जा’व बंद करने के लिए उसका पाथर खिसकाना है. आँगन में जहाँ-जहाँ पाख से बारिश की बंधार लगेगी, उसके नीचे बर्तन धर...
बाघ जब एकदम सामने आ गया

बाघ जब एकदम सामने आ गया

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मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—27 प्रकाश उप्रेती आज किस्सा 'बाघ' का. बाघ का हमारे गाँव से गहरा नाता रहा है. गाँव में हर किसी के पास बाघ के अपने-अपने अनुभव और क़िस्से हैं. हर किसी का बाघ से एक-दो बार तो आमना -सामना हुआ ही होगा. अपने पास भी बाघ को लेकर कुछ स्मृतियाँ और ढेरों क़िस्से हैं. हमारे घर में 'कुकुर' (कुत्ता) हमेशा से रहा है. पहले हम बकरियाँ भी पाला करते थे. बाघ के लिए आसान और प्रिय भोजन ये दोनों हैं लेकिन वह गाय और बैलों पर भी हमला करता है. मेरी याददाश्त में हमारे 9 कुत्ते, 2 बकरी, 4 गाय और 1 बैल को बाघ ने मारा. मैं इन सबका गवाह रहा हूँ. जब भी बाघ ने इनको मार उसके बाद हमें बस हड्डियाँ ही नसीब हुई थी. कुछ महीने पहले ही छोटी सी गाय को फिर बाघ ने मार दिया. इसलिए बाघ 'अन्य' की तरह न चाहते हुए भी हमारे ताने-बाने में दख़ल दे ही देता है. ईजा अच्छे से छन के दरवाजे पर 'अड़ी' (ए...
आम के इतने नाम कि…

आम के इतने नाम कि…

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मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—26 प्रकाश उप्रेती आज बात- 'आम' और 'नाम' की. हमारे गाँव में आम ठीक-ठाक मात्रा में होता है. गाँव का एक सामूहिक बगीचा है जिसमें सभी गाँव वालों के पेड़ हैं. उसमें बहुत से पेड़ तो गांवों के 'बुबुओं' (दादा जी लोगों के नाम के) के नाम के भी हैं. दुनिया में कई क़िस्म के आम और उनके अलग-अलग नाम होते हैं लेकिन अपने गाँव के आम और नाम की कहानी अलहदा ही है. घर से थोड़ा ही दूर यह सामूहिक बगीचा था. उसमें 14-15 आम के पेड़ हमारे भी थे. सभी अलग किस्म और नाम के आम थे. एक था- 'सुंदरी आम'. सुंदर दिखने के कारण उसका नाम 'सुंदरी आम' पड़ गया. इस आम में बड़ी अच्छी खुशबू आती थी, स्वरूप में ये लंबा व आगे से थोड़ा लाल सा होता था. पकने के बाद तो यह आम और ज्यादा सुंदर दिखाई देता था. एक था- 'कलमी आम'. 'कलम' के जरिए वह पेड़ लगा था तो 'कलमी आम' नाम पड़ गया. यह आम गोल और बहुत मीठा होता था. ज्...
पिता तो पिता है, हमसे कब वो जुदा है

पिता तो पिता है, हमसे कब वो जुदा है

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पितृ दिवस पर विशेष डॉ. अरुण कुकसाल मानवीय रिश्तों में सबसे जटिल रिश्ता पिता के साथ माना गया है. भारतीय परिवेश में पारिवारिक रिश्तों की मिठास में 'पिता' की तुलना में 'मां' फायदे में रहती है. परिवार में 'पिता' अक्सर अकेला खड़ा नज़र आता है. तेजी से बदलती जीवनशैली में परिवारों के भीतर पिता का पारंपरिक रुतवा लुढ़कता हुआ खतरे के निशान के आस-पास अपने अस्तित्व को बचाने की कोशिश कर रहा है. पर यह भी उतना ही सच है कि पिता के पैरों की नीचे की जमीन कितनी ही खुरदरी लगे परिवार में जीने का जज्बां और हौसला वहीं पनाह लेता है. पिता-पुत्र/पुत्र-पिता संबधों और उनकी आपसी कैमेस्ट्री की इवान सेर्गेयेविच तुर्गेनेव ने अपनी किताब 'पिता और पुत्र' में 150 साल पहले जो व्याख्या की थी वह आज भी प्रासंगिक है. इवान तुर्गेनेव (सन् 1818-1883) 19वीं शताब्दी के विश्व प्रसिद्व अग्रणी लेखकों में शामिल रहे हैं. टाॅलस्टा...
च्यलेल परदेश और चेलिलि सौरास जाणे होय

च्यलेल परदेश और चेलिलि सौरास जाणे होय

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मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—25 प्रकाश उप्रेती आज- ईजा, मैं और परदेश. ईजा की हमेशा से इच्छा रही कि हम भी औरों के बच्चों की तरह पढ़-लिखकर भविष्य बनाएँ. तब हमारे गाँव के बच्चों का भविष्य शहरों में जाकर ही बनता था. ईजा के लिए मुझे शहर भेजना मजबूरी और जरूरी दोनों था. ईजा बातों-बातों में कई बार कहती थीं- "च्यलेल परदेश और चेलिलि सौरास जाणे होय" (बेटे ने परदेश और बेटी ने ससुराल जाना ही है)... मुझे ईजा ने लड़की की तरह पाला था . ईजा मुझे फ्रॉक पहनाने से लेकर घास काटने तक साथ ले जाती थीं. मेरे बाल लंबे थे तो दो चोटी बनाकर ही खेलने भेजती थीं. रात को चूल्हे में रोटी बनाती तो मैं पास में बैठ जाता था. ईजा कहती थीं- "चुल हन लाकड़ लगा और आग ले फूंकने रहिए" (चूल्हे में लकड़ी लगाकर आग फूँकते रहना).रोटी बनाते हुए अंत में एक रोटी बनाने के लिए मुझे भी देती थीं. कहती थीं- "रोट बनाण सिख ले तो भो हैं प...