साहित्‍य-संस्कृति

तनाव और अवसाद से ग्रस्त होना आज आम हो गया!

तनाव और अवसाद से ग्रस्त होना आज आम हो गया!

साहित्‍य-संस्कृति
विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस (1 0 अक्टूबर) पर विशेष   गिरीश्वर मिश्र ‘जीवेम शरद: शतम्’! भारत में स्वस्थ और सुखी सौ साल की जिंदगी की आकांक्षा के साथ सक्रिय जीवन का संकल्प लेने का विधान बड़ा पुराना  है. पूरी सृष्टि में मनुष्य अपनी कल्पना शक्ति और बुद्धि बल से सभी प्राणियों में उत्कृष्ट है. वह इस जीवन और जीवन के परिवेश को रचने की भी क्षमता रखता है. साहित्य, कला, स्थापत्य, और ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में उसकी विराट उपलब्धियों को देख कर कोई भी चकित हो जाता है. यह सब तभी सम्भव है जब जीवन हो और वह भी आरोग्यमय हो. परन्तु लोग स्वास्थ्य पर तब तक  ध्यान नहीं देते  जब तक कोई कठिनाई न आ जाय. दूसरों से तुलना करने और अपनी  बेलगाम होती जरूरतों और महत्वाकांक्षाओं के बदौलत तरह-तरह, चिंता कष्ट, तनाव और अवसाद से ग्रस्त होना आज आम बात हो गयी है. मुश्किलों के आगे घुटने टेक कई लोग तो जीवन से ही निराश हो बैठ...
स्वराज का बिम्ब और स्वदेशी का संकल्प

स्वराज का बिम्ब और स्वदेशी का संकल्प

साहित्‍य-संस्कृति
प्रो. गिरीश्वर मिश्र  सन 1909 में लंदन से दक्षिण अफ़्रीका को लौटते हुए गांधी जी ने तब तक के अपने सामाजिक-राजनैतिक विचारों को सार रूप में गुजराती में दर्ज किया जिसे ‘हिंद स्वराज’ शीर्षक से प्रकाशित किया जिसे बंबई की सरकार ने ज़ब्त कर लिया. फिर जब गांधी जी 1915 में दक्षिण अफ़्रीका का कार्य पूरा कर भारत लौटे तब इस पुस्तिका को अंग्रेज़ी में छपाया. इस बार सरकार ने विरोध नहीं किया और यह पढ़ने के लिए सब को उपलब्ध हो गयी. इसे लेकर देश-विदेश में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की आकोचनाएँ होती रहीं. खुद गांधी जी के शब्दों में ‘इसके विचार उनकी आत्मा में गढ़े-जड़े हुए’ से थे. सन 1938 में सेवाग्राम, वर्धा में आर्यन पथ नामक पत्रिका में अंग्रेज़ी में इसके प्रकाशन के अवसर पर उन्होंने कहा था कि ‘इसे लिखने के बाद तीस साल मैंने अनेक आँधियों में बिताए हैं, उनमें मुझे इस पुस्तक में फेर बदल करने का कुछ भी का...
देश की सामर्थ्य के लिए चाहिए भाषाओं का पोषण  

देश की सामर्थ्य के लिए चाहिए भाषाओं का पोषण  

साहित्‍य-संस्कृति
प्रो. गिरीश्वर मिश्र  भाषा मनुष्य जीवन की अनिवार्यता है और वह न केवल सत्य को प्रस्तुत करती है बल्कि उसे रचती भी है. वह इतनी सघनता के साथ जीवन में घुलमिल गई है कि हमारा देखना-सुनना, समझना  और विभिन्न कार्यों में प्रवृत्त होना यानी जीवन का बरतना उसी की बदौलत होता है. जल और वायु की तरह आधारभूत यह मानवीय रचना सामर्थ्य और संभावना में अद्भुत है. भारत एक भाग्यशाली देश है जहां संस्कृत, तमिल, मराठी, हिंदी, गुजराती, मलयालम, पंजाबी आदि  जैसी अनेक भाषाएँ कई सदियों से भारतीय संस्कृति, परंपरा और जीवन संघर्षों को आत्मसात करते हुये अपनी भाषिक यात्रा में निरंतर आगे बढ़ रही है. भाषाओं की विविधता देश की अनोखी और अकूत संपदा है जिसकी शक्ति कदाचित तरह तरह के कोलाहल में उपेक्षित ही रहती है. इन सब के बीच व्यापक क्षेत्र में संवाद की भूमिका निभाने वाली हिंदी का जन्म एक लोक-भाषा के रूप में हुआ था. वह असंदिग्ध रूप स...
जीवन में क्यों आवश्यक है सत्संग…

जीवन में क्यों आवश्यक है सत्संग…

साहित्‍य-संस्कृति
राधा कांत पाण्डेय श्रीमद्भागवत के माहात्म्य में अजामिल प्रसंग का बहुत सुंदर वर्णन किया गया है- अजामिल पूर्व में बड़ा ही शास्त्रज्ञ शीलवान, सदाचारी व सदगुण संपन्न था. किंतु जीवन में सैद्धांतिक निष्ठा के अभाव के कारण वह पथभ्रष्ट और कामवासना के गहरे दलदल में चला गया. जब व्यक्ति के जीवन में विचार,साधना, अध्ययन, अभ्यास और चिंतन का लोप होता है तो प्रायः व्यक्ति की स्थिति अजामिल के जैसी हो जाती है. जीवन पथ पर तनिक भी सावधानी हटी तो दुर्घटना घटने के  योग प्रबल हो जाते हैं. इसीलिए जीवन को साधने के लिए अभ्यास और अनुशासन की आवश्यकता होती है. इंद्रियों का संयम जरूरी होता है. जो  आध्यात्मिक गुरु एवं श्रेष्ठ साधकों की निकटता और आशीष से ही प्राप्त हो सकता है. चूँकि भगवान की माया बहुत प्रबल है उसकी कसौटी पर कोई बिरला ही खरा उतर सकता है. भगवान पहले तो अपने भक्तों की कठिन परीक्षा लेते हैं लेकिन जैसे ही भक...
हिंदी राजभाषा दिवस : निज भाषा उन्नति अहै…

हिंदी राजभाषा दिवस : निज भाषा उन्नति अहै…

साहित्‍य-संस्कृति
सुनीता भट्ट पैन्यूली जिस देश को अपनी भाषा और साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता.. डा०राजेन्द्र प्रसाद हिंदी भाषा विश्व की एक प्राचीन ,समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हमारी राज्य भाषा भी है भारत की स्वतंत्रता के बाद 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिंदी की खड़ी बोली ही भारत की because राजभाषा होगी.इस महत्त्वपूर्ण निर्णय के बाद ही हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार हेतु राष्ट्र भाषा प्रचार समिति,वर्धा के अनुरोध पर सन् 1953 से संपूर्ण भारत में १४सितंबर को प्रतिवर्ष हिंदी दिवस के रुप में मनाया जाता है. ज्योतिष दरअसल भाषा  की संस्कृति कोई बद्धमूल विषय नहीं, because कालांतर यह गतिमान होती रहनी चाहिए हमारी व्यवहारिकता हमारी बोली हमारे रहन-सहन में. संस्कृति तो यही कहती है जो हमने ग्रहण किया है उसे सतत रूप से प्रभावशील,सहेजा और संरक्षि...
शिक्षक की गरिमा : पुनर्प्रतिष्ठा की अनिवार्यता

शिक्षक की गरिमा : पुनर्प्रतिष्ठा की अनिवार्यता

साहित्‍य-संस्कृति
शिक्षक दिवस पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र  भारतीय संस्कृति में गुरु या शिक्षक को ऐसे प्रकाश के स्रोत के रूप में ग्रहण किया गया है जो ज्ञान की दीप्ति से अज्ञान के आवरण को दूर कर जीवन को सही मार्ग पर ले चलता है. इसीलिए उसका स्थान सर्वोपरि होता है. उसे ‘साक्षात परब्रह्म’ तक कहा गया है.  आज भी सामाजिक, आध्यात्मिक और निजी जीवन में बहुत सारे लोग किसी न किसी गुरु से जुड़े मिलते हैं. because गुरु से प्रेरणा पाने और उनके आशीर्वाद से मनोरथों की पूर्ति की कामना एक आम बात है यद्यपि गुरु की संस्था में इस तरह के विश्वास को कुछ छद्म  गुरु  नाजायज़ फ़ायदा भी उठाते हैं और गुरु-शिष्य के पावन सम्बन्ध को because लांछित करते हैं. शिक्षा के औपचारिक क्षेत्र में गुरु या शिक्षक एक अनिवार्य कड़ी है जिसके अभाव में ज्ञान का अर्जन, सृजन और विस्तार सम्भव नहीं है . भारत में शिक्षक दिवस डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की स...
स्वतंत्र भारत में स्वराज की प्रतिष्ठा

स्वतंत्र भारत में स्वराज की प्रतिष्ठा

साहित्‍य-संस्कृति
स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त, 2022) पर विशेष  प्रो. गिरीश्वर मिश्र  आज़ादी मिलने के पचहत्तर साल बाद देश स्वतंत्रता का ‘अमृत महोत्सव’ मना रहा है तो यह विचार करने की इच्छा और स्वाभाविक उत्सुकता पैदा होती है कि स्वतंत्र भारत का जो स्वप्न देखा गया था वह किस रूप में यथार्थ के धरातल पर उतरा. स्वाधीनता संग्राम का प्रयोजन यह था कि भारत को न केवल उसका अपना खोया हुआ स्वरूप वापस मिले बल्कि वह विश्व में अपनी मानवीय because भूमिका को भी समुचित ढंग से निभा सके. देश या राष्ट्र का भौगोलिक अस्तित्व तो होता है पर वह निरा भौतिक पदार्थ नहीं होता जिसमें कोई परिवर्तन न होता हो. वह एक गत्यात्मक रचना है और उसी दृष्टि से विचार किया जाना उचित होगा. बंकिम बाबू ने भारत माता की वन्दना करते हुए उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ‘सुजलां सुफलां मलयज शीतलां शस्य श्यामलां मातरं वन्दे मातरं‘ का अमर गान रचा था. ‘सुखदां वरदां म...
सामर्थ्य के विमर्श में मातृभाषा का स्थान 

सामर्थ्य के विमर्श में मातृभाषा का स्थान 

साहित्‍य-संस्कृति
प्रो. गिरीश्वर मिश्र  मनुष्य इस अर्थ में भाषाजीवी कहा जा सकता है कि उसका सारा जीवन व्यापार भाषा के माध्यम से ही होता है. उसका मानस भाषा में ही बसता है और उसी से रचा जाता है. because दुनिया के साथ हमारा रिश्ता भाषा की मध्यस्थता के बिना अकल्पनीय है. इसलिए भाषा सामाजिक सशक्तीकरण के विमर्श में प्रमुख किरदार है फिर भी अक्सर उसकी भूमिका की अनदेखी की जाती है. भारत के राजनैतिक-सामाजिक जीवन में ग़रीबों, किसानों, महिलाओं, जनजातियों यानि हाशिए के लोगों को सशक्त बनाने के उपाय को हर सरकार की विषय सूची में दुहराया जाता रहा है. पढ़ें- अंतर्मन की शांति है प्रसन्नता की कुंजी ज्योतिष वर्तमान सरकार पूरे देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कृतसंकल्प है. आत्म-निर्भरता के लिए ज़रूरी है कि अपने स्रोतों और संसाधनों का उपयोग को पर्याप्त बनाया जाए ताकि कभी दूसरों का मुँह न जोहना पड़े. इस दृष्टि से ‘स्वदेशी’ का नारा ...
महात्मा गांधी का सामाजिक प्रयोग

महात्मा गांधी का सामाजिक प्रयोग

साहित्‍य-संस्कृति
प्रो. गिरीश्वर मिश्र  आज कल विभिन्न राजनीतिक दलों के लोक लुभावन पैंतरों और दिखावटी  सामाजिक संवेदनशीलता के बीच स्वार्थ का खेल आम आदमी को किस तरह दुखी कर रहा है यह जग जाहिर है. परन्तु आज से एक सदी पहले पराधीन भारत में लोक संग्रह का विलक्षण प्रयोग हुआ था. में जीवन का अधिकाँश बिताने के बाद उम्र के सातवें दशक में पहुँच रहे अनुभव-परिपक्व गांधी जी ने आगे के समय के लिए वर्धा को अपनी कर्म-भूमि बनाया था. ज्योतिष नागपुर से75 किलोमीटर की दूरी पर स्थित वर्धा अब रेल मार्गों और कई राष्ट्रीय राजमार्गों से जुड़ चुका  है. तब महात्मा गांधी ने धूल-मिट्टी-सने और खेती-किसानी के परिवेश वाले इस पिछड़े ग्रामीण इलाके को  चुना और गाँव के साधारण किसान की तरह श्रम-प्रधान जीवन का वरण किया. इसके पीछे उनकी यह सोच और दृढ विश्वास था कि भारत का भविष्य देश के गाँवों के सशक्त होने में निहित है. उनकी दृष्टि में स्वतंत्रता ...
रवांई क्षेत्र में पत्रकारिता की अविरल लौ जलाते रहे राजेन्द्र असवाल

रवांई क्षेत्र में पत्रकारिता की अविरल लौ जलाते रहे राजेन्द्र असवाल

देहरादून, साहित्‍य-संस्कृति
पुण्य स्मरण: पुण्य तिथि (30 मई) पर विशेष महावीर रवांल्टा रवांई क्षेत्र में पत्रकारिता की बात करें तो आज अनेक लोग इस क्षेत्र में सक्रिय हैं लेकिन इस क्षेत्र से किसी भी  नियमित पत्र का प्रकाशन नहीं हो सका सिर्फ अस्सी के दशक के पूर्वाद्ध में  बर्फिया लाल जुवांठा और शोभा because राम नौडियाल के संपादन में पुरोला से निकले 'वीर गढ़वाल' की जानकारी मिलती है. सन् 1992 ई में पुरोला से पहली बार 'रवांई मेल' (साप्ताहिक) समाचार पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ और इसके संस्थापक, प्रकाशक व संपादक थे- राजेन्द्र असवाल. अपनेपन राजेन्द्र असवाल का जन्म नौगांव विकासखंड के because बलाड़ी गांव में 1 जनवरी सन् 1964 ई को हुआ था.आपके पिता का नाम नैपाल सिंह और मां का नाम चंद्रमा देवी था.तीन भाईयों में आप घर के सबसे बड़े बेटे थे. आपकी आरंभिक शिक्षा गांव में ही हुई फिर राजकीय इंटर कालेज नौगांव से करने के बाद स्नातक ...